किसी जनम में मेरे प्रेमी रहे होंगे फर्नीचर कठुआ गए होंगे किसी शाप से

Update: 2018-04-27 09:42 GMT

सप्ताह की कविता में आज हिंदी की ख्यात कवि अनामिका की कविताएं

अनामिका की कविताएँ औसत भारतीय स्त्री जीवन की डबडबाई अभिव्यक्तियाँ हैं –'मैं उनको रोज झाड़ती हूँ/ पर वे ही हैं इस पूरे घर में/ जो मुझको कभी नहीं झाड़ते!' ‘फर्नीचर’ कविता की ये पंक्तियाँ आधी आबाद के गहन दुख को उसकी सांद्रता के साथ जिस तरह अभिव्यक्त करती हैं, वह अभूतपूर्व है।

घर भर को खिला-पिला-सुलाकर जब एक आम घरेलू स्त्री जाड़े की रात में अपने बरफाते पाँवों पर खुद आयोडीन मलती अपने बारे में सोचना शुरू करती है तो सारे दिन, घर भर से मिले तहाकर रखे गए दुख व झिड़कियाँ अदबदा कर बहराने लगते हैं। तब अलबलाई-सी उसे कुछ नहीं सूझता तो कमरे में पड़े काठ के फर्नीचर को ही सम्बोधित कर बैठती है वह। कोई जीवित पात्र उसके दुखों में सहभागिता निभाने को जब सामने नहीं आता तो उन पर बैठती वह सोचती है कि घर भर से यही अच्छे हैं जो सहारा देते हैं। अपने निपट अकेलेपन से लड़ती उसकी कल्पना का प्रेमी तब आकार लेने लगता है। जिसका सपना लिए वह उस घर में आई होगी और उसे वहाँ अनुपस्थित पा उसके इन्तजार में दिन काट रही होगी।

भारतीय लड़कियों के मन में बचपन में ही एक राजकुमार बिठा दिया जाता है, जिसे कहीं से आना होता है। बचपन से किशोरी और युवा होने तक उस राजकुमार की छवियाँ रूढ़ हो ऐसी ठोस हो जाती हैं कि उन्हें अपने मन का राजकुमार कभी मिलता नहीं तब इसी तरह अपने अकेलेपन में वे जड़ चीजों में अपना प्रिय, अपना राजकुमार आरोपित करती हैं। चूँकि बचपन से ही जड़ गुड्डे-गुडि़यों में, राजकुमार को ढूँढ़ने पाने की उन्हें आदत होती है –'किसी जनम में मेरे प्रेमी रहे होंगे फर्नीचर कठुआ गए होंगे किसी शाप से/ एक दिन फिर से जी उठेंगे ये/ थोड़ों से तो जी भी उठे हैं/ गई रात चूँ-चूँ-चूँ करते हैं; ये शायद इनका चिडि़या जनम है / कभी आदमी भी हो जाएँगे!'

फर्नीचर में अपना प्रेमी ढूँढ़ जब वे सुकून भरी साँस लेती हैं और उनकी कल्पना में वे जीवित होने लगते हैं, तो वह फिर घबरा जाती है कि कहीं जीवित होने पर ये भी घरभर की तरह रूखाई का व्यवहार करने लगे तब। क्योंकि जिसको राजकुमार बता उसे ब्याहा गया होता है वह कहीं से उसके सपनों के राजकुमार से मिलता नहीं, सो उसके भीतर पड़ी दुख की सतहों से आवाज उठती है कि क्यों वह इन जड़ चीजों को जिलाने पर पड़ी है कि कहीं वे सचमुच जग गए तो वे भी उसे शासित करने वाली एक सत्ता पिता-पति-पुत्र में बदल जाएँगे और उसे मौके-बेमौके झाड़ने लगेंगे - 'जब आदमी ये हो जाएँगे /मेरा रिश्ता इनसे हो जाएगा क्या /वो ही वाला जो धूल से झाड़न का?'

यह रिश्ते का सवाल बड़ा जटिल है भारतीय स्त्री के जीवन में, जो आजीवन रिसता रहता है, कि उसका इससे या उससे रिश्ता क्या है... मनुष्य से मनुष्य का रिश्ता उसके लिए नाकाफी हो जाता है। वह जवाब दे नहीं पाती ताउम्र इस सवाल का कि यह या वह तेरा लगता कौन है... ‘फर्नीचर’ कविता एक भारतीय स्त्री के जीवन और उसके पारंपरिक रिश्तों के खोखलेपन को जाहिर करती है। दरअसल अनामिका की स्त्रियाँ परंपरा का द्वन्द्व सँभाले अपनी रौ में आगे बढ़ती स्त्रियाँ हैं जो स्वभाव से ही विद्रोहिणी हैं, विद्रोह उनका बाना नहीं, जीवन है। विद्रोह की लौ को जलाए, जलती हुई वे, किसी भी कठिन राह पर डाल दिए जाने की चुनौती स्वीकारती हैं। उन्हीं कठिन घडि़यों में से, उसी कठोर जीवन में से निकाल लेती हैं वो अपने आगामी जीवन का सामाँ - 'जब मेरे आएंगे,/ छप्पर पर सूखने के दिन, मैं तो उदास नहीं लेटूँगी!/ छप्पर के कौए से ही कर लूँगी दोस्ती,/ काक भुशुंडी की कथाएँ सुनूँगी जयंत कौए का पूछूँगी हाल-चाल/ और एक दिन किसी मनपसंद कौए के पंखों पर उड़ जाऊँगी.../ कर्कश गाते हैं तो क्या छत पर आते तो हैं रोज-रोज,/ सिर्फ बहार के दिनों के नहीं होते साथी!'

पुरुष सोचता है कि उसने स्त्री के लिए तय कर रखे हैं चौखटे, छप्पर! पर मन-ही-मन ये विद्रोहिणी स्त्रियाँ सारा हिसाब लगाती रहती हैं कि वे भी जानती है आजादी का मरम, साथी के साथ का सुख, वे भी चुनती रहती हैं अपने दुख के दिनों के साथियों को और तैयार रहती हैं चल देने को उसके साथ किसी भी पल,कि - 'वह कहीं भी हो सकती है,/ गिर सकती है बिखर सकती है /लेकिन वह खुद शामिल होगी सबमें गलतियाँ भी खुद ही करेगी.../ अपना अंत भी देखती हुई जाएगी (आलोक धन्वा)'

वैदिक काल में स्त्री ऋषि शची पौलमी ने एक मंत्र में उस समय ऊँचा सर कर चलने वाली स्त्रियों को लक्ष्य कर लिखा था - ‘मे दुहिता विराट्’। हिन्दी कविता में सविता सिंह के यहाँ वह स्त्री पहली बार दिखी थी अपनी विराटता के साथ। अनामिका के यहाँ वह विराटता व उद्दात्तता अपनी अलग असीमता के साथ अभिव्यक्त होती है - 'आकाश खुद भी तो पंछी है,/ बादल के पंख खोल उड़ता चला जाता है एक अनंत से दूसरे,/ अनंत तक।'

विष्णु खरे ने हिन्दी कविता को नई ऊँचाई दी है पर हिन्दी में आ रही इन कवयित्रियों ने नए सिरे से परिभाषित कर बताना शुरू कर दिया है कि खरे के अनंत के मुकाबिल अभी बहुत से नए अनंतों की अभिव्यक्ति बाकी है। कविता का अंत नहीं है कहीं, ना जीवन का, ना आधी आबादी का। अनंत कविता में रचा जाना अभी बाकी है, वही रच रही हैं अनामिका, सविता सिंह आदि कवि। आइए पढते हैं अनामिका की कविताएं -कुमार मुकुल

दरवाज़ा
मैं एक दरवाज़ा थी
मुझे जितना पीटा गया
मैं उतना ही खुलती गई।
अंदर आए आने वाले तो देखा–
चल रहा है एक वृहतचक्र
चक्की रुकती है तो चरखा चलता है
चरखा रुकता है तो चलती है कैंची-सुई
गरज यह कि चलता ही रहता है
अनवरत कुछ-कुछ!
...और अंत में सब पर चल जाती है झाड़ू
तारे बुहारती हुई
बुहारती हुई पहाड़, वृक्ष, पत्थर–
सृष्टि के सब टूटे-बिखरे कतरे जो
एक टोकरी में जमा करती जाती है
मन की दुछत्ती पर।

स्त्रियाँ
पढ़ा गया हमको
जैसे पढ़ा जाता है काग़ज
बच्चों की फटी कॉपियों का
‘चनाजोरगरम’ के लिफ़ाफ़े के बनने से पहले!
देखा गया हमको
जैसे कि कुफ्त हो उनींदे
देखी जाती है कलाई घड़ी
अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद!

सुना गया हमको
यों ही उड़ते मन से
जैसे सुने जाते हैं फ़िल्मी गाने
सस्ते कैसेटों पर
ठसाठस्स ठुंसी हुई बस में!

भोगा गया हमको
बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुख की तरह
एक दिन हमने कहा–
हम भी इंसान हैं
हमें क़ायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर
जैसे पढ़ा होगा बी.ए. के बाद
नौकरी का पहला विज्ञापन।

देखो तो ऐसे
जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है
बहुत दूर जलती हुई आग।

सुनो, हमें अनहद की तरह
और समझो जैसे समझी जाती है
नई-नई सीखी हुई भाषा।

इतना सुनना था कि अधर में लटकती हुई
एक अदृश्य टहनी से
टिड्डियाँ उड़ीं और रंगीन अफ़वाहें
चींखती हुई चीं-चीं
‘दुश्चरित्र महिलाएं, दुश्चरित्र महिलाएं–
किन्हीं सरपरस्तों के दम पर फूली फैलीं
अगरधत्त जंगल लताएं!
खाती-पीती, सुख से ऊबी
और बेकार बेचैन, अवारा महिलाओं का ही
शग़ल हैं ये कहानियाँ और कविताएँ।
फिर, ये उन्होंने थोड़े ही लिखीं हैं।’
(कनखियाँ इशारे, फिर कनखी)
बाक़ी कहानी बस कनखी है।

हे परमपिताओ,
परमपुरुषों–
बख्शो, बख्शो, अब हमें बख्शो!

प्रेम के लिए फांसी (ऑन ऑनर किलिंग)
मीरारानी तुम तो फिर भी खुशकिस्मत थीं,
तुम्हें जहर का प्याला जिसने भी भेजा,
वह भाई तुम्हारा नहीं था,

भाई भी भेज रहे हैं इन दिनों
जहर के प्याले!

कान्हा जी जहर से बचा भी लें,
कहर से बचायेंगे कैसे!

दिल टूटने की दवा
मियाँ लुकमान अली के पास भी तो नहीं होती!

भाई ने जो भेजा होता
प्याला जहर का,
तुम भी मीराबाई डंके की चोट पर
हंसकर कैसे ज़ाहिर करतीं कि
साथ तुम्हारे हुआ क्या!

"राणा जी ने भेजा विष का प्याला"
कह पाना फिर भी आसान था,

"भैया ने भेजा"- ये कहते हुए
जीभ कटती!

कि याद आते वे झूले जो उसने झुलाए थे
बचपन में,
स्मृतियाँ कशमकश मचातीं;
ठगे से खड़े रहते
राह रोककर

सामा-चकवा और बजरी-गोधन के सब गीत :
"राजा भैया चल ले अहेरिया,
रानी बहिनी देली आसीस हो न,
भैया के सिर सोहे पगड़ी,
भौजी के सिर सेंदुर हो न..."

हंसकर तुम यही सोचतीं-
भैया को इस बार
मेरा ही आखेट करने की सूझी?
स्मृतियाँ उसके लिए क्या नहीं थीं?

स्नेह, सम्पदा, धीरज-सहिष्णुता
क्यों मेरे ही हिस्से आई,

क्यों बाबा ने
ये उसके नाम नहीं लिखीं?

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