कितनी भी बड़ी तोप हो...

Update: 2018-06-02 08:50 GMT

सप्ताह की कविता में आज हिंदी के ख्यात कवि वीरेन डंगवान की कविताएं

'तू तभी अकेला है जो बात न ये समझे है/ लोग करोड़ों इसी देश में तुझ जैसे /धरती मिटटी का ढेर नहीं है अबे गधे/ दाना पानी देती है वह कल्याणी है...' 'अकेला तू तभी' कविता की ये पंक्तियाँ ठेठ देसी मिजाज के कवि वीरेन डंगवाल के मूल स्वर का परिचय देती हैं। शमशेर ने कभी लिखा था-'जो नहीं है उसका गम क्या जैसे सुरुचि... वीरेन पर ये पंक्तियां ठीक बैठती हैं। इतनी बेतरतीबी, हिंदी क्या, किसी भी भाषा के कवि में नहीं मिलती। वीरेन जानते हैं, अराजक आदमी की ताकत को तभी तो 'प्रधानमंत्री कविता में लिखते हैं-'ये आदमी भी एक ही खुर्राट चीज है प्रधानमंत्री/पानी की तरह साफ, सफ्फाक, निर्मल और तरल.../लेकिन जब वह किलबिलाता हुआ उठ खड़ा होता है...तब'

विष्णु खरे के बाद जिस तरह हिंदी कविता में मानी-बेमानी डिटेल्स बढ़ते गये और कविता के कलेवर में मार तमाम तरह की गदहपच्चीसियाँ जारी हैं, ऐसे में , वीरेन की संक्षिप्त कलेवर की कविताएँ 'कटु-तिक्त बीज' की तरह हैं। हिंदी कविता के लिए वीरेन नया प्रस्थान बिंदु साबित होते हैं। मेधा की दुर्जयता के टंटों के इस दौर में ऐसी हरकतों से खुद को उन्‍होंने बराबर दूर रखा। बडी़ और महान कविता से ज्यादा वह बड़ी जमात की बात कहने में विश्वास रखते हैं। बड़प्पन का घड़ा वह हर जगह पटक कर फोड़ते दिखार्इ देते हैं। 'रात-गाड़ी' कविता में वह लिखते हैं- 'इस कदर तेज वक्त की रफ्तार/और ये सुस्त जिंदगी का चलन/ अब तो डब्बे भी पाँच एसी के/ पाँच में ठुंसा हुआ, बाकी वतन...'

इस बाकी वतन की चिंता वीरेन के यहाँ हर जगह देखी जा सकती है। पहले संग्रह की पहली कविता 'कैसी जिंदगी जिएँ' में ही उन्होंने लिखा था-'हवा तो खैर भरी ही है कुलीन केशों की गंध से/ इस उत्तम बसंत में/ मगर कहाँ जागता है एक भी शुभ विचार/ खरखराते पत्तों में कोपलों की ओट में/ पूछते हैं पिछले दंगों में कत्ल कर डाले गए लोग/ अब तक जारी इस पशुता का अर्थ...' और यह पशुता जारी है आज भी, परंपरा और राष्ट्रवाद के नाम पर जारी इस पशुता के खिलाफ, उसके छदम रूपों के खिलाफ। 'नई संस्‍कृति' कविता में
वह लिखते हैं- '...जली हुर्इ/ उन उजाड़, बस्तियों में/ आकार ले रहा है/ हमारा नूतन स्थापत्य/ पटककर मार दिया गया वह बच्चा/वह हमारा भविष्य है'

इस व्यवस्था से गहरी चिढ़ है वीरेन को, क्योंकि वह किसी के मन का कुछ होने नहीं देती और कवि दुखी हो जाता है कि-'...झंडा जाने कब फुनगी से निकलकर/लोहे की अलमारी में पहुँच जाता.../इतने बड़े हुए मगर छूने को न मिला अभी तक/कभी असल झंडा...' असली झंडा ना छू पाने की यह जो कचोट है कवि के मन में, यह आमजन की टकटकी का रहस्य खोलती है। यह टकटकी, जो मुग्धता और तमाम विशिष्टताओं को पा लेने की, उन्हें मिसमार कर देने की हिंसक चाह के बीच झूलती रहती है। यह जो टकटकी है, निगाह है कवि की, झंडे से प्रधानमंत्री के पद तक की बंदरबांट कर लेने की, वह बहुतों को नागवार गुजरती है। खासकर हिंदी के चिर किशोर व नवल आलोचकों को, जिन्हें बेरोजगारी से ज्यादा, बेरोजगारों द्वारा समीक्षा का स्तर गिराए जाने की बात परेशान करती है।

यहाँ हम उन तथाकथित आलोचकों को भी याद कर सकते हैं, जो इससे पहले नागार्जुन में इस मनोवृत्ति को चिन्हित करते रहे हैं, दरअसल ऐसी फिकराकशियाँ उस अभिजात, अकादमिक विशिष्टता बोध से पैदा होती हैं, जो खुद को अलग और खास बतलाने-दिखलाने की कोशिश करते हैं। आइए पढते हैं वीरेन डंगवाल की कुछ कविताएं - कुमार मुकुल

तोप
कम्पनी बाग़ के मुहाने पर
धर रखी गई है यह 1857 की तोप

इसकी होती है बड़ी सम्हाल
विरासत में मिले
कम्पनी बाग की तरह
साल में चमकायी जाती है दो बार

सुबह-शाम कम्पनी बाग में आते हैं बहुत से सैलानी
उन्हें बताती है यह तोप
कि मैं बड़ी जबर
उड़ा दिये थे मैंने
अच्छे-अच्छे सूरमाओं के छज्जे
अपने ज़माने में

अब तो बहरहाल
छोटे लड़कों की घुड़सवारी से अगर यह फारिग हो
तो उसके ऊपर बैठकर
चिड़िया ही अकसर करती हैं गपशप
कभी-कभी शैतानी में वे इसके भीतर भी घुस जाती हैं
ख़ासकर गौरैयें

वे बताती हैं कि दरअसल कितनी भी बड़ी हो तोप
एक दिन तो होना ही है उनका मुँह बन्द!

कवि
मैं ग्रीष्म की तेजस्विता हूँ
और गुठली जैसा
छिपा शरद का उष्म ताप
मैं हूँ वसन्त में सुखद अकेलापन
जेब में गहरी पड़ी मूंगफली को छाँट कर
चबाता फ़ुरसत से
मैं चेकदार कपड़े की कमीज़ हूँ

उमड़ते हुए बादल जब रगड़ खाते हैं
तब मैं उनका मुखर गुस्सा हूँ

इच्छाएँ आती हैं तरह-तरह के बाने धरे
उनके पास मेरी हर ज़रूरत दर्ज है
एक फ़ेहरिस्त में मेरी हर कमज़ोरी
उन्हें यह तक मालूम है
कि कब मैं चुप होकर गरदन लटका लूँगा
मगर फिर भी मैं जाता रहूँगा ही
हर बार भाषा को रस्से की तरह थामे
साथियों के रास्ते पर

एक कवि और कर ही क्या सकता है
सही बने रहने की कोशिश के सिवा।

फ़ैजाबाद-अयोध्या
(फिर फिर निराला को)
1.
स्टेशन छोटा था, और अलमस्त
आवाजाही से अविचलित एक बूढा बन्दर धूप तापता था
अकेला
प्लेटफॉर्म नंबर दो पर।
चिलम पी रहा एक रिक्शावाला, एक बाबा के साथ।
बाबा संत न था
ज्ञानी था और गरीब।
रिक्शेवाले की तरह।

दोपहर की अजान उठी।
लाउडस्पीकर पर एक करुण प्रार्थना
किसी को भी ऐतराज़ न हुआ।
सरयू दूर थी यहाँ से अभी,
दूर थी उनकी अयोध्या।

2.
टेम्पो
खच्च भीड़
संकरी गलियाँ
घाटों पर तख्त ही तख्त
कंघी, जूते और झंडे
सरयू का पानी
देह को दबाता
हलकी रजाई का सुखद बोझ,
चारों और स्नानार्थी
मंगते और पण्डे।
सबकुछ था पूर्ववत अयोध्या में
बस उत्सव थोड़ा कम
थोड़ा ज्यादा वीतराग,
मुंडे शीश तीर्थंकर सेकते बाटी अपनी
तीन ईंटों का चूल्हा कर
जैसे तैसे धौंक आग।
फिर भी क्यों लगता था बार बार
आता हो जैसे, आता हो जैसे
किसी घायल हत्-कार्य धनुर्धारी का
भिंचा-भिंचा विकल रुदन।

3.
लेकिन
वह एक और मन रहा राम का
जो
न थका।
जो दैन्यहीन, जो विनयहीन,
संशय-विरहित, करुणा-पूरित, उर्वर धरा सा
सृजनशील, संकल्पवान
जानकी प्रिय का प्रेम भरे जिसमें उजास
अन्यायक्षुब्ध कोटिशः जनों का एक भाव
जनपीड़ा-जनित प्रचंड क्रोध
भर देता जिस में शक्ति एक
जागरित सतत ज्योतिर्विवेक।
वह एक और मन रहा राम का
जो न थका।

इसीलिए रौंदी जाकर भी
मरी नहीं हमारी अयोध्या।
इसीलिए हे महाकवि, टोहता फिरता हूँ मैं इस
अँधेरे में
तेरे पगचिह्न।

Similar News