जो इस पागलपन में शामिल नहीं होंगे, मारे जाएँगे

Update: 2018-01-26 22:19 GMT

‘कवि घंघोल देता है / व्यक्तियों के जल / हिला-मिला देता / कई दर्पनों के जल / जिसका दर्शन हमें / शांत कर देता है / और गंभीर / अन्त में...’ लिखा है, शमशेर ने।

राजेश जोशी की कविताओं से गुजरते हुए ऐसा ही लगता है कि वे पहले से चली आ रही सुचिंतित व्यवस्थाओं को इधर-उधर कर देते हैं, उसे झकझोर देते हैं ताकि आगत की नई तस्वीर उभर सके। इन कविताओं को पढ़ते अरुण कमल की इस टिप्पणी पर जरा एतबार नहीं होता कि राजेश जोशी की कविताएँ (भविष्य की धूल खाने को तैयार किए गए) दस्तावेज हैं।

ये वो कविताएँ हैं, जो ‘आसमान के सफे पर’ लिखे चाँद की तरह
‘प्रतिपदा से पूर्णिमा तक
हर दिन अपनी वर्तनी बदल लेती हैं,’
ये जीवंत कविताएँ हैं ‘दुर्भिक्ष में भी छप्पन भोग’ की कल्पना करती किसी अघाए कवि की रसोद्रेक कराती कविताएँ नहीं। दस्तावेजों और आलेखों की सुचिंतिता के मुकाबिल ये कविताएं ‘हड़बड़ी और सरलता’ को तरजीह देती हैं। ये वो कविताएँ हैं ‘जो अचानक थोड़ी हड़बड़ी में कवि की आत्मा से बाहर’ चली आई हैं, जिन्हें ‘तराशने का कभी वक्त ही न मिला हो उसे’! यहाँ साफ है कि ऐसा वे वक्त की कमी के चलते करते हैं इरादतन नहीं। क्योंकि और भी गम हैं कवि के पास - कुमार मुकुल 

आइए पढते हैं राजेश जोशी की कुछ कविताएं -

बच्‍चे काम पर जा रहे हैं

कोहरे से ढँकी सड़क पर बच्‍चे काम पर जा रहे हैं
सुबह सुबह

बच्‍चे काम पर जा रहे हैं
हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह
भयानक है इसे विवरण के तरह लिखा जाना
लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह

काम पर क्‍यों जा रहे हैं बच्‍चे?

क्‍या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें
क्‍या दीमकों ने खा लिया हैं
सारी रंग बिरंगी किताबों को
क्‍या काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने
क्‍या किसी भूकंप में ढह गई हैं
सारे मदरसों की इमारतें
क्‍या सारे मैदान, सारे बगीचे और घरों के आँगन
खत्‍म हो गए हैं एकाएक
तो फिर बचा ही क्‍या है इस दुनिया में?
कितना भयानक होता अगर ऐसा होता
भयानक है लेकिन इससे भी ज्‍यादा यह
कि हैं सारी चीज़ें हस्‍बमामूल

पर दुनिया की हज़ारों सड़कों से गुजते हुए
बच्‍चे, बहुत छोटे छोटे बच्‍चे
काम पर जा रहे हैं।

वली दकनी

बात इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई के शुरूआती दिनों की है
जब बर्बरता और पागलपन का एक नया अध्याय शुरू हो रहा था
कई रियासतों और कई क़िस्म की सियासतों वाले एक मुल्क में
गुजरात नाम का एक सूबा था
जहाँ अपने हिन्दू होने के गर्व और मूर्खता में डूबे हुए क्रूर लोगों ने --
जो सूबे की सरकार और नरेन्द्र मोदी नामक उसके मुख्यमन्त्री के
पूरे संरक्षण में हज़ारों लोगों की हत्याएँ कर चुके थे
और बलात्कार की संख्याएँ जिनकी याददाश्त की सीमा पार कर चुकी थीं

-- एक शायर जिसका नाम वली दकनी था का मज़ार तोड़ डाला !

वह हिन्दी-उर्दू की साझी विरासत का कवि था
जो लगभग चार सदी पहले हुआ था और प्यार से जिसे
बाबा आदम भी कहा जाता था।

हालाँकि इस कारनामे का एक दिलचस्प परिणाम सामने आया
कि वह कवि जो बरसों से चुपचाप अपनी मज़ार में सो रहा था
मज़ार से बाहर आ गया और हवा में फ़ैल गया !
इक्कीसवीं सदी के उस शुरूआती साल में एक दूसरे कवि ने
जो मज़ार को तोड़ने वालो के सख्त ख़िलाफ़ था
किसी तीसरे कवि से कहा कि
मैं दंगाइयों का शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ
कि उन्होंने वली की मज़ार की मिट्टी को
सारे मुल्क की मिट्टी, हवा और पानी का
हिस्सा बना दिया !

अपने हिन्दू होने के गर्व और मूर्खता में डूबे उन लोगों को
जब अपने इस कारनामे से भी सुकून नही मिला
तो उन्होंने रात-दिन मेहनत-मशक़्क़त करके
गेंदालाल पुरबिया या छज्जूलाल अढाऊ जैसे ही
किसी नाम का कोई एक कवि और उसकी कविताएँ ढूँढ़ निकलीं

और उन्होंने दावा किया कि वह वली दकनी से भी अगले वक़्त का कवि है
और छद्म धर्मनिरपेक्ष लोगों के चलते उसकी उपेक्षा की गई
वरना वह वली से पहले का और ज़्यादा बड़ा कवि था !
फिर उन लोगों ने जिनका ज़िक्र ऊपर कई बार किया जा चुका है
कोर्स की किताबों से वो सारे सबक़ जो वली दकनी के बारे में लिखे गए थे
चुन-चुनकर निकाल दिए ।

यह क़िस्सा क्योंकि इक्कीसवीं सदी की भी पहली दहाई के शुरूआती दिनों का है
इसलिए बहुत मुमकिन है कि कुछ बातें सिलसिलेवार न हों
फिर आदमी की याददाश्त की भी एक हद होती है !

और कई बातें इतनी तकलीफ़देह होती है कि उन्हें याद रखना
और दोहराना भी तकलीफ़देह होता है
इसलिए उन्हें यहाँ जान-बूझकर भी कुछ नामालूम-सी बातों को छोड़ दिया गया है
लेकिन एक बात जो बहुत अहम है और सौ टके सच है
उसका बयान कर देना मुनासिब होगा
कि वली की मज़ार को जिन लोगों ने नेस्तनाबूत किया
या यह कहना ज्यादा सही होगा कि करवाया
वे हमारी आपकी नसल के कोई साधारण लोग नहीं थे
वे कमाल के लोग थे
उनके सिर्फ़ शरीर ही शरीर थे
आत्माएँ उनके पास नहीं थीं
वे बिना आत्मा के शरीर का इस्तेमाल करना जानते थे
उस दौर के क़िस्सों में कहीं-कहीं इसका उल्लेख मिलता है
कि उनकी आत्माएँ उन लोगों के पास गिरवी रखी थी,
जो विचारों में बर्बरों को मात दे चुके थे
पर जो मसखरों की तरह दिखते थे
और अगर उनका बस चलता तो प्लास्टिक सर्जरी से
वे अपनी शक्लें हिटलर और मुसोलिनी की तरह बनवा लेते !

मुझे माफ़ करें मैं बार-बार बहक जाता हूँ
असल बात से भटक जाता हूं
मैं अच्छा क़िस्सागो नहीं हूं
पर अब वापस मुद्दे की बात पर आता हूं

कोर्स की किताबों से वली दकनी वाला सबक़
निकाल दिए जाने से भी जब उन्हें सुकून नहीं मिला
तो उन्होंने अपने पुरातत्वविदों और इतिहासकारों को तलब किया
और कहा कि कुछ करो, कुछ भी करो
पर ऐसा करो
कि इस वली नाम के शायर को
इतिहास से बाहर करो !

यक़ीन करें मुझे आपकी मसरूफ़ियतों का ख़्याल है
इसलिए उस तवील वाकिए को मैं नहीं दोहराऊँगा
मुख़्तसर यह कि
एक दिन....!

ओह ! मेरा मतलब यह कि
इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई के शुरूआती दिनों में एक दिन
उन्होंने वली दकनी का हर निशान पूरी तरह मिटा दिया
मुहावरे में कहे तो कह सकते हैं
नामोनिशान मिटा दिया !

उन्ही दिनों की बात है कि एक दिन

जब वली दकनी की हर याद को मिटा दिए जाने का
उन्हें पूरा इत्मीनान हो चुका था
और वे पूरे सुकून से अपने-अपने बैठकखानों में बैठे थे
तभी उनकी छोटी-छोटी बेटियाँ उनके पास से गुज़री
गुनगुनाती हुई
..........................
वली तू कहे अगर यक वचन
रकीबां के दिल में कटारी लगे !


मारे जाएँगे

जो इस पागलपन में शामिल नहीं होंगे, मारे जाएँगे

कठघरे में खड़े कर दिये जाएँगे
जो विरोध में बोलेंगे
जो सच-सच बोलेंगे, मारे जाएँगे

बर्दाश्‍त नहीं किया जाएगा कि किसी की कमीज हो
उनकी कमीज से ज्‍यादा सफ़ेद
कमीज पर जिनके दाग नहीं होंगे, मारे जाएँगे

धकेल दिये जाएंगे कला की दुनिया से बाहर
जो चारण नहीं होंगे
जो गुण नहीं गाएंगे, मारे जाएँगे

धर्म की ध्‍वजा उठाने जो नहीं जाएँगे जुलूस में
गोलियां भून डालेंगी उन्हें, काफिर करार दिये जाएँगे

सबसे बड़ा अपराध है इस समय निहत्थे और निरपराधी होना
जो अपराधी नहीं होंगे, मारे जाएँगे।

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