एकल महिला : मैं 8 महीने की गर्भवती थी और पति ने पीटकर घर से निकाल दिया

Update: 2019-10-11 12:42 GMT

घर की संपत्ति में अधिकार और बराबरी देने की बात तो तब हो जब एकल महिलाओं को परिवार के लोग इंसान समझें, उन्हें तो भारत समझा जाता है, ज्यादातर परिवार वालों को लगता है जिस महिला का पता उसके ​पति से न शुरू हो, वह धरती पर रहे ही क्यों...

महिलाओं के प्रति सबसे कम अपराध वाले राज्यों में शुमार उत्तराखंड के अल्मोड़ा जनपद में जनज्वार संवाददाता विमला ने जानी एकल महिलाओं से उनकी हकीकत उन्हीं की जुबानी

सामाजिक रूतबे के हिसाब से उत्तराखण्ड की महिलाएं वहां की आर्थिकी की रीढ़ हैं, बावजूद इसके पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता और पुरानी रूढ़ियां यहां के समाज में भी कूट-कूटकर वैसी ही भरी हैं, जैसी की पूरे देशभर में।

त्तराखंड का पूरा समाज, घर, परिवार, खेती-बाड़ी, मजदूरी, बच्चों व बूढों की देखभाल सभी महिलाओं की श्रमशक्ति पर टिका हुआ है, मगर पितृसत्ता की बेड़ियों में बुरी तरह जकड़े इस समाज में भी सामाजिक व सांस्कृतिक परिवेश में महिलाओं को दोयम दर्जा ही हासिल है, बावजूद इसके कि पूरी आर्थिकी उन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती है।

म महिलाओं की जिंदगी से भी बहुत बुरा हाल है उन महिलाओं का जो अकेली रहकर संघर्ष कर रही हैं। इनमें विधवा, तलाकशुदा और शादी न करने वाली या फिर वे महिलायें शामिल हैं, जिनके पति लापता हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार छोटे से राज्य उत्तराखंड में ही 4,26,201 एकल महिलाएं हैं, मगर बेटियां बचाने और महिला सशक्तीकरण के तमाम दावे-वादे करती सरकारों ने संविधान में एकल महिलाओं के लिए ऐसा कोई प्रावधान शामिल करवाया, जो उन्हें सामाजिक सुरक्षा का आश्वासन ही दे दे।

सी ही एक एकल महिला हैं रेशमा परवीन। रेशमा परवीन कहती हैं, 'मैं ऐसे समाज और परिवार से हूँ जहाँ लड़की होना भी अभिशाप है। आज जब देश में बेटी पढाओ, बेटी बचाओ जैस अभियान चलाए जा रहे हैं, वहीं मुझ जैसी एकल महिलाओं को लोग इंसान तक नहीं समझते। न पिता हमें सम्पत्ति में अधिकार देना चाहते हैं, न ही पति की प्रॉपर्टी में ही अधिकार मिलता है।'

रेशमा परवीन : मुझ जैसी महिलाओं को तो समाज इंसान तक नहीं समझता

रेशमा आगे कहती हैं, 'मैं जब एमए की पढा़ई कर रही थी, तभी पिता ने मेरी शादी जबरदस्ती करवा दी। शादी की पहली रात से ही पति ने मुझे दहेज के लिए मारना-पीटना शुरू कर दिया। फिर यह सिलसिला लगभग रोज का हो गया। जब मैं 8 महीने की गर्भवती थी, पति ने घर से निकाल दिया। पति द्वारा घर से निकालने के बाद मैं पिता के घर में रहने लगी, मगर बेटे के जन्म के कुछ ही दिनों बाद पिता ने भी मुझे परेशान करना शुरू कर दिया।

रेशमा कहती हैं, 'जब मेरी उम्र मात्र 6 महीने की थी तो खिड़की से गिरने के कारण मेरा शरीर 90 फीसदी विकलांग हो गया था। स्कूल में भी लोग मुझे कुबड़ी कहकर चिढ़ाते थे, मगर मैंने सब बातों-तानों को दरकिनार कर एमए की पढ़ाई जारी रखी। साथ में कम्प्यूटर सीखना भी शुरू कर दिया। वहां से मुझे पता चला कि हेपेटाइटिस बी के टीके के कैम्प चलाये जा रहे हैं, मगर मेरी विकलांगता के कारण मुझे फार्म तक नहीं भरने दिया। मैं एक फार्म किसी तरह देखने के लिये ले आयी और उसका फोटोस्टेट कर लोगों को हेपेटाइटिस बी के प्रति जागरूक करना शुरू किया। मैंने अपने प्रयास से रेमजे इण्टर कालेज में कैम्प लगाया, जिसके लिए मुझे 2006 में तीलू रौतेला पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।'

कौन होती है एकल महिला : विवाहित,अविवाहित, विधवा, तलाकशुदा, परित्यकता, लिव इन में रहीं वे सभी महिलाएं-लड़कियां जो अकेले रहकर खुद का, बच्चों का या अपने पर आश्रितों का खर्च वहन करे।

सामाजिक कामों में इस तरह सक्रियता के बावजूद भी रेशमा को किसी प्रकार की सरकारी सहायता नहीं मिलती। रेशमा कहती हैं, 'मैं अभी किराए के मकान में रह रही हूँ। मेरा शरीर 90 फीसदी विकलांग होने के बाद भी मुझे सरकार की तरफ से कोई खास मदद नहीं मिलती। विकलांगों को मिलने वाली 1000 रुपये पेंशन मिलती है, वह भी हर महीने नहीं आती बल्कि 3-4 महीने में एक बार जारी की जाती है।

रेशमा की तरह ही एकल जीवन जी रही एक दूसरी महिला हीरा कहती हैं, 'मैं हिंदू हूं, मगर मेरी शादी मुस्लिम परिवार में हुई। पति की मृत्यु के बाद मेरी पहचान ही खो गयी, मुझे न हिन्दू समाज ने स्वीकार किया, न ही मुस्लिम समुदाय ने।

एकल महिला हीरा : पति की मौत के साथ ही खो गयी है मेरी पहचान, समाज न मुझे मुस्लिम के बतौर स्वीकारता है और न हिंदू, पुलिस भी रखती है गंदी निगाह

हीरा कहती हैं, 'मेरे पास रहने के लिए मकान भी नहीं, बड़ी मुश्किल से खाद्य सुरक्षा वाला कार्ड बना, जिसमें दो किलो गेहूं, तीन किलो चावल पर यूनिट मिलता है। मुझ जैसी एकल महिलाओं को लोग बहुत बुरी नजर से देखते हैं। गन्दी-गन्दी गालियां भी देते हैं। लोग तो छोड़ो पुलिस भी हमें नहीं छोड़ती, वह भी जहाँ दिखे ताने मारना शुरू कर देती है।

हीं ऐसी ही एक और एकल महिला हैं कविता। कविता बडोला कामकाजी महिला हैं, उधमसिंह नगर में वन स्टाप सेन्टर चलाती हैं। वह बताती हैं, 'समाज में लोगों का नजरिया एकल महिलाओं के प्रति बहुत ही नकारात्मक है। लोगों का सबसे पहला सवाल यही होता है आप शादीशुदा हैं। शादी क्यों नहीं की। हमारे भारतीय समाज की कुंठित मानसिकता है कि पति है तभी किसी का परिवार है, नहीं तो हम परिवार का हिस्सा हैं ही नहीं। मैंने महिला समाख्या में भी महिलाओं के साथ काम किया और महसूस किया कि कहीं न कहीं एकल महिलाओं के साथ सेक्सुअल हरासमेंट ज्यादा होता है। समाज का ढांचा ही ऐसा है कि लोग सिर्फ औरत को शरीर और योनि के तौर पर देखते हैं, जबकि एकल महिलाएं ज्यादा सशक्त हैं। मेरे पास 376 केस हैं घरेलू हिंसा, पोक्सो, देह व्यापार के जिन्हें अलग अलग तरह से मैं देख रही हूँ।'

कविता बडोला : कामकाजी होने के बावजूद इनका अकेला होना नहीं आता समाज को रास

कल महिला के बतौर जीवन जी रहीं सामाजिक कार्यकर्ता नीलिमा भट्ट कहती हैं, 'अगर हम पहाड़ के सन्दर्भ में देखें तो विधवा, तलाकशुदा, जिन्होंने शादी नहीं की वो तो एकल महिला हैं ही, इसके अलावा वो महिलाएं भी एकल हैं जिनका परिवार पलायन कर चुका है। अकेली बूढ़ी महिलाएं गांवों में रह रही हैं। ऐसी महिलाओं को यौन शोषण और छेड़छाड़ का बहुत अधिक सामना करना पड़ता है। उन्हें सम्पत्ति पर अधिकार नहीं मिलता और पितृसत्तात्मक समाज का ढांचा ऐसा है जिसमें माना गया है कि महिलाओं को किसी के नियंत्रण में रहना जरूरी है। एकल महिला होने के नाते मुझे भी यौन हिंसा सहनी पड़ी, लोग तो अकेली महिला को किराया का कमरा तक देने से साफ मना कर देते हैं। उनके सवाल होते हैं, आप कैसे किराया देंगी, अकेले रह लेंगी, बिना पुरुष के आपका जीवन कैसे चलता है।

ज जब समाज में एकल महिलाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है, अब महिलाएं आत्मनिर्भर बन रही हैं, अपने हिसाब से जिन्दगी को जीना चाहती हैं और जी भी रही हैं, ऐसे में हमारे समाज का पितृसत्तात्मक ढांचा हैकहीं ना कहीं महिलाओं के अधिकारों का हनन करता है, उनकी स्वच्छंदता में बाधा बनता है। हमारे समाज में ऐसी बहुत सारी घरेलू और कामकाजी महिलाएं हैं, जो एकल हैं लोगों की सोच और कुप्रथाओं की मार झेल रही हैं।

सामाजिक कार्यकर्ता नीलिमा भट्ट : कहती हैं एकल महिलाओं को यौन शोषण और छेड़छाड़ का करना पड़ता है बहुत अधिक

पेशे से शिक्षक और अकेले रहने वाली हिमानी कहती हैं, 'हमें न सिर्फ घर, समाज बल्कि आफिस और स्टाफ में भी अकेले होने के कारण ताने और प्रताड़ना झेलनी पड़ती है। एकल महिलाओं के प्रति लोगों का नजरिया बदल जाता है। लोगों के तानों से तंग आकर मैंने अपनी दोस्ती का दायरा बहुत कम कर दिया है। लोगों के तनाव के चलते जो मानसिक तनाव होता है, उससे हमारा बाहर निकलना बहुत मुश्किल हो जाता है।'

राष्ट्रीय एकल नारी अधिकार मंच उत्तराखंड में अल्मोड़ा, नैनीताल, बागेश्वर में अकेली महिलाओं के लिए काम कर रहा है। इसकी उत्तराखण्ड में कुल 758 सदस्य हैं। एकल नारी संगठन अल्मोड़ा की अध्यक्ष कमला तिवारी कहतीं हैं, 'हमनें एकल महिलाओं की मांगों को लेकर जिलाधिकारी अल्मोड़ा के माध्यम से मुख्यमंत्री उत्तराखंड को एक ज्ञापन भी सौंपा था, जिसमें मांग की थी कि एकल महिलाओं को एक ऐसा कार्ड जारी किया जाये जिसमें उन्हें आवास, पेंशन, राशन सबकुछ मिल सके। मगर सरकार ने हमारी इस मांग पर कोई सुनवाई नहीं की। प्रधानमंत्री आवास योजना में भी तभी आवास मिलता है जब पहले से लाभार्थी के पास तीन मुठ्ठी जमीन हो, ऐसे में एकल महिलायें आखिर कहां जायें।'

त्तराखण्ड में महिला सामाख्या से जुड़ी रहीं सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका गीता गैरोला एकल महिलाओं के बारे में कहती हैं, पितृसत्तात्मक समाज में अकेली महिलाओं के प्रति लोगों की सोच बिलकुल अच्छी नहीं है। पुरुष को ही घर का मालिक समझा जाता है। घर, परिवार, समाज और कार्यस्थल पर उनका जबरदस्त यौनशोषण होता है, जिसके लिए वो आवाज तक नहीं उठा पातीं। असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं के श्रम का बहुत शोषण होता है। मैंने महिला समाख्या में 30 साल काम किया। 26 ब्लॉक में लगभग 35 हजार महिलाओं के बीच इस दौरान मैंने काम किया और उनके अनुभवों को बहुत करीब से अनुभव किया।

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