फूट-फूट कर रो रही हूं मैं यहां

Update: 2017-08-05 13:03 GMT

स्‍त्री जीवन की ऊहापोह

स्‍नेहमयी चौधरी की कविताओं में स्‍त्री जीवन की ऊहापोह लगातार अभिव्‍यक्‍त हुई है। कि स्त्रियां सक्रिय हैं और लगातार लड़ रहीं हैं अपने अतीत से पर परिणाम ढाक के तीन पात क्‍यों रहे, यह वे समझने की कोशिश बारहा करती हैं। उन्‍हें लगता है कि अपनी कैद के लिए स्त्रियां खुद एक हद तक जिम्‍मेवार हैं कि बंधन तुड़ाने के बाद भी वे लौट-लौट अपने खूंटे पर क्‍यों आती हैं। मुझे लगता है, यह इतना सरल नहीं है, कि यह मानव स्‍वभाव भी है कि लगातार चोट खाकर भी आदमी आदमीयत नहीं त्‍याग पाता और फिर-फिर धोखा खाता है। इस आशा में कि सामने खड़ा व्‍यक्ति शायद कल उसकी आदमीयत को पहचान ले और उसे उसके हिस्‍से का स्‍नेह, सम्‍मान देने लगे। अजित चौधरी के बाद उनकी सहकर्मिणी स्‍नेहमयी चौधरी भी विदा कह गयीं। पढें उनकी कुछ कविताएं -कुमार मुकुल

स्नेहमयी चौधरी की कविताएं

कैद अपनी ही
किसने कहा था
खूंटा जो गड़ा है
उससे बंधी रस्सी के एक सिरे पर
कसकर गांठ बांध दो
दूसरे सिरे के गोल घेरे में
अपनी गरदन डाल दो
रस्सी तुड़ाकर भागो
लेकिन बार-बार वापस आ
उसी के आसपास घूमती रहो
कहना किसे है-ऐसे में
जब खुद अपनी ही कैद में
गिरफ्त हो ‘मैं’!

औरतें
सारी औरतों ने
अपने-अपने घरों के दरवाजे़
तोड़ दिए हैं
पता नहीं
वे सबकी सब गलियों में भटक रही हैं
या
पक्की-चौड़ी सड़कों पर दौड़ रही हैं
या
चौराहों के चक्कर काट-काट कर
जहां से चली थीं
वहीं पहुंच रही हैं तितलियां।

एक इंटरव्‍यू
मैंने बच्चे को नहलाती
खाना पकाती
कपड़े धोती
औरत से पूछा
‘सुना तुमने पैंतीस साल हो गए
देश को आज़ाद हुए?’
उसने कहा ‘अच्छा’...
फिर ‘पैंतीस साल’ दोहराकर
आंगन बुहारने लगी
दफ़्तर जाती हुई बैग लटकाए
बस की भीड़ में खड़ी औरत से
यही बात मैंने कही
उसने उत्तर दिया
‘तभी तो रोज़ दौड़ती-भागती
दफ़्तर जाती हूं मुझे क्या मालूम नहीं!’
राशन-सब्जी और मिट्टी के तेल का पीपा लिए
बाज़ार से आती औरत से
मैंने फिर वही प्रश्न पूछा
उसने कहा ‘पर हमारे भाग में कहां!’
फिर मुझे शर्म आई
आखि़रकार मैंने अपने से ही पूछा
‘पैतींस साल आज़ादी के...
मेरे हिस्से में क्या आया?’
उत्तर मैं जो दे सकती थी,
वह था...।

लड़की
मेरे अंदर की
अबोध लड़की
चुपचाप खिसक गई
जाने कहां
कविताओं में अपने को
अभिव्यक्त कर पाने में असमर्थ
फूट-फूट कर रो रही हूं मैं यहां!

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