सवाल पूछने से पहले ही केंद्रीय मंत्री ने थमा दिया था जवाब, बोले इसी को सेट कर लो!

Update: 2018-04-06 18:54 GMT

आज के समय पत्रकारिता कैसे हो रही है, उसका एक उदाहरण सुनिए?

राग दरबारी

एक दिन मेरे एक मित्र मंत्री के पास गए। उनको मंत्री का साक्षात्कार करना था। मंत्री कैबिनेट में हैं। साक्षात्कार का मकसद 4 साल की उपलब्धियां बताना था। मंत्री के पास एक बड़ा मंत्रालय है, जो देश की सबसे बड़ी आबादी को डील करता है।

मित्र उनसे सवाल पूछना शूरू करते, उससे पहले उन्होंने तीन—चार पेज का जवाब थमा दिया। उनकी आंखों में आखें डाल मंत्री बोले, 'आपका जवाब तैयार है। अब आप यहां चाय—नाश्ता लीजिए और इसे आराम से अपने यहां अखबार में सेट कर लीजिएगा।'

मित्र ने कहा, लेकिन अभी तो हमारी बातचीत ही शुरू नहीं हुई, फिर जवाब कैसा? मैं तो आपके साक्षात्कार के लिए सवाल ले आया हूं। आप कहेंगे तो मैं लिखित सवाल आपको दे सकता हूं, उसको देखकर आप जवाब दे दीजिए, पर आपका लिखा जवाब, वह भी बगैर जवाब के, वह भी आमने—सामने के साक्षात्कार में, इसे प्रकाशित करना कैसे संभव है?

पर वह मित्र पत्रकार की बात को न समझने का नाटक करते रहे। वह बस यही बालते रहे कि इसे ही ले लीजिए, इससे काम चला लीजिए, यही मुझे कहना है, इसमें आपके सारे जवाब हैं, आदि—आदि।

पर मित्र थोड़ी देर अपनी बात पर टिके रहे। ऐसे में मंत्री ने कोई उपाय सूझता न देखकर बोला, मैं यही जवाब आपको दे सकता हूं, यही जवाब पीएमओ से आया है। मैं इसमें कुछ नहीं जोड़—घटा सकता।

मित्र सत्ता से दूर रहने वाले पत्रकारों में हैं। इसलिए मंत्री का जवाब सुन वह उछल पड़े। उन्होंने कहा कि आपके मंत्रालय का जवाब पीएमओ लिखता है, ऐसा कैसे? आपको क्या मालूम नहीं कि चार साल में आपने क्या किया?

मित्र पत्रकारिता के एक्सपर्ट लोगों में हैं, तो बात करते—करते उन्होंने सवाल दागना शुरू कर दिया। वे थोड़े जिद्दी भी हैं, वे ज्यादा देर तक शासन—सत्ता से दब नहीं पाते।

खैर! सवाल—जवाब की घबड़ाहट में मंत्री ने एक—दो सवालों के जवाब पीएमओ वाले लिखे में से ही दिया। लेकिन बीच—बीच में मंत्री अपने मन से भी एक—दो बातें बोलते रहे। ऐसे में कुछ नए सवाल भी उभर आए।

इस तरह मंत्री से एक कामचलाऊ बातचीत मित्र पत्रकार की हो गयी? इससे मित्र की ईमानदार पत्रकारिता की चाहत भी थोड़ी तुष्ट हुई। उन्होंने पूरा वाकया उन्होंने बड़े ही दिलचस्प ढंग से सुनाया। उन्होंने दुखित होकर कहा कि मैं तो बेकार ही गया, मेल से वह भेज देते और मैं उसे फॉरवर्ड कर देता। आखिर इस साक्षात्कार में मेरी इससे अधिक क्या उपयोगिता थी।

पर बात यहां खत्म नहीं हुई, कमाल तो इससे आगे हुआ, अगली सुबह!

जब सुबह—सुबह उन्होंने अपना अखबार देखा तो पाया कि मंत्री का वही वाला साक्षात्कार छपा है, जो पीएमओ से आया था और जो मंत्री उन्हें जाते थमा रहा था। उनकी हेडिंग और इंट्रो तो गायब ही था।

साफ है कि पत्रकारिता हो या सरकार सबमें एकाधिकार के साथ एक तीसरी और इकलौती ताकत काम करने लगी है जिसमें न रिपोर्टर की जरूरत है न मंत्री की। इनका उपयोग अब सिर्फ दफ्तरों का लोकलाज बनाए रखने के लिए है। एक तरह का कोरम भर हैं ये।

मोदी जी की भाषा में शायद इसे ही 'वन विंडो सिस्टम' कहते हैं।

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