बढ़ती मंदी और घटती आमदनी का असर उत्तराखंड के नंदा देवी मेले में भी आया नजर
मंदी का असर पंडिताई पर भी छाने लगा है, नंदा देवी के पंडित जी दुखी होकर कहते हैं इस बार मेले में वो पहले वाली रौनक नहीं है, नारियल तोड़ने वाले युवा कहते हैं सालों से हम यहां बेहिसाब नारियल तोड़ते थे, इस बार तोड़े बहुत कम नारियल ...
नैनीताल के नंदा देवी से विनीता यशस्वी की रिपोर्ट
3 सितम्बर का दिन है मल्लीताल फ्लैट्स में दुकानें लगने लगी हैं। व्यापारी बाहर इलाकों से आकर दुकानें सजाने में व्यस्त हैं। कोई सामान की पोटलियाँ सर पर लादे दुकानों के बाहर इकट्ठा कर रहे हैं तो कोई अभी दुकानें बनाने के लिये बांस के खम्बे लगा रहा है। सबसे ज्यादा कठिन काम झूला लगाने वालों का है। उन्हें बड़े सैट-अप लगाने के अलावा सबकी सुरक्षा का भी खयाल रखना है।
मौत का कुंआ लगाने वालों के लिये तो ये काम और ज्यादा कठिन है, क्योंकि उन्हें दर्शकों के साथ अपने कारिंदों की सुरक्षा का भी तो ध्यान रखना होता है। कुछ दुकानदारों ने तो हल्की सी दुकानें लगा कर माल बेचना भी शुरू कर दिया है। बाजपुर से आये राजा सामान बेचते हुए कहते हैं - अरे! दुकान तो लगती ही रहेगी पर माल भी तो बेचना जरूरी है। अगर फायदा नहीं हुआ तो इतनी दूर आना तो सर पड़ जायेगा।
उत्तराखंड में लगभग सब स्थानों पर नन्दाष्टमी की पूजा होती है, क्योंकि नंदा यहाँ कि कुलदेवी हैं। वेदों में नंदा को हिमालय की पुत्री माना गया है और उत्तराखंडवासी नंदा को अपनी बहन और बेटी के स्वरूप में पूजते हैं। नैनीताल में नंदा देवी मेले की शुरूआत सन् 1918 से हो गयी थी और तब से आज तक यह मेला हर वर्ष मनाया जाता है।
इस वर्ष 3 सितम्बर को दोपहर 3 बजे से मेले का विधिवत उद्घाटन हो गया, जिसमें अजय भट्ट शामिल हुए थे। विधिवत उद्घाटन हो जाने के बाद कुछ लोग केले के पेड़ लेने के लिये हल्द्वानी, गौलापार चले गये। जहाँ पूरी विधि के साथ केले के पेड़ की पूजा की गयी और फिर मूर्तियाँ बनाने के लिये केले के पेड़ को नैनीताल लाया गया। 4 तारीख को नैनीताल में केले के पेड़ की शोभा यात्रा निकली और फिर केले के पेड़ों को मंदिर में रख दिया गया, ताकि अगले दिन मूर्ति बनाने का कार्य किया जा सके।
मूर्ति बनाना बेहद धैर्य का काम है। छोटी-छोटी बारीकियों का भी खयाल रखना होता है और काम को नियत समय में सम्पन्न करना होता है, क्योंकि अगली सुबह मूर्तियों को मंदिर में रखना होता है।
6 तारीख को सुबह के मूहूर्त में नंदा-सुनंदा की मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा कर दी गयी, जिसके बाद उन्हें श्रद्धालुओं के दर्शन करने के लिये खोल दिया गया।
दर्शन करने वालों की भीड़ उमड़ने लगती है। धक्का-मुक्की होने लगती है। स्कूल के लड़के-लड़कियाँ स्काउट-गाइड की ड्रेस पहने हुए चार्ज सम्भालते हैं और एक हाथ में रस्सी और एक हाथ में डंडा पकड़ के भीड़ को कंट्रोल करते हैं। दोपहर तक मंदिर में काफी चहल-पहल रही पर धीरे-धीरे भीड़ बहुत कम हो जाती है। मंदिर के बाहर बैठा पंडित मेरे कैमरे को देखते हुए कहता है -अष्टमी की पूजा करवा लो। रक्षा का धागा ही हाथ में बंधवा लो।
मैं उनसे कहती हूँ - पंडित जी! इस बार तो भीड़ नहीं हो रही है। दुःखी आवाज में पंडित जी कहते हैं - हाँ! इस बार मेले में वो पहले वाली रौनक नहीं है। नारियल तोड़ने वाले कुछ युवाओं का भी कहना है - और सालों तो हम बेहिसाब नारियल तोड़ते थे। इस बार ज्यादा नारियल नहीं तोड़े।
मंदिर से निकल कर मैं मैदान की ओर आ गयी जहाँ मेले की दुकानें लगी हुई हैं। पहले मेले में पैर रखने को जगह नहीं होती थी, पर इस बार यहाँ भी सुनसानी ही है। जमीन में बैठ के सिंदूर और बिंदी की दुकान लगाये दीप और उसकी पत्नी मेरी ओर देख के कहते हैं - इस बार तो बोनी होने के भी लाले पड़ गये हैं। अगर मेला आगे के दो दिन भी ऐसा ही रहा तो इस बार हम यहाँ से घाटा लेकर ही जायेंगे।
7 तारीख को मैं फिर मेले में पहुँची। इस समय घना कोहरा लगा हुआ है। पूरा मेला कोहरे की आगोश में है और इसी कोहरे की चादर को चीरती हुई किसी के गाने की आवाज सीधा मेरे कानों में पड़ी - ‘तेरी जवानी बड़ी मस्त-मस्त है’। मैं आवाज की ओर चली गयी। एक छोटा बच्चा गाते हुए प्लास्टिक के बाल्टियाँ और टब बेच रहा है। मुझे देख के बोला - कुछ सामान खरीद लो न। सुबह से बिल्कुल भी बोनी नहीं हुई है। ये मुन्ना है। रामपुर से आया है। रामपुर में स्कूल भी पड़ता है और अपने पिता की दुकान में मदद भी करता है।
आज भी अमूमन कल जैसी ही हालत है। रामपुर से आकर चूड़ियों की दुकान लगाये मौ. सलीम कहते हैं - इस बार मेले में रौनक थोड़ा कम है पर फिर भी यहाँ आकर दुकान लगाना अच्छा लगता है क्योंकि यहाँ दंगा-फसाद नहीं होता है और न ही चोरी का डर है। सलीम पिछले 15-20 सालों से मेले में दुकान लगा रहे हैं। बाजपुर से आये सोनू ने चादरों की दुकान लगायी है और वो भी इस समय लगभग खाली ही बैठे हैं।
राशिद खान बरेली से यहाँ आये हैं और बच्चों के खिलौनों को एक लाठी में बांध के बेच रहे हैं। राशिद तो लगभग गुस्से से बिफर ही पड़ते हैं क्योंकि इस बार मेले में कुछ खास कमाई नहीं हो रही है। वो कहते हैं - इस बार महंगाई बढ़ गयी है इसलिये लोग खरीदारी ही नहीं कर रहे हैं।
रमा जिसने मोजों और टोपियों की दुकान लगायी है वो भी बिक्री न होने से दुःखी है पर मेले का पूरे साल इंतजार करती हैं।
रज्जो की बेबसी तो उसकी आंखों में ही झलक रही है - लोहे के कढ़ाई और औजारों की दुकान जमीन पर लगाये हुए रज्जो अपने 5 महीने के बच्चे को गोद में लिये है और भर्राई हुई आवाज से कहती है - छोटे से बच्चे को गोद में पकड़ के बड़े-बड़े पेट पालने पड़ रहे हैं। ये सुन के उससे कुछ और पूछने की हिम्मत नहीं हुई।
शाम के समय मेले में दिन के मुकाबले कहीं ज्यादा भीड़ है, पर फिर भी जाइंट व्हील झूला चलाने वाले राज ने मुस्कुराते हुए अपने कैबिन की जेल जैसी खिड़की के अंदर से झांकते हुए कहा - अरे भीड़ होती तो अभी तक तो झूले में कितनी लम्बी लाइन लग जाती। देखो न झूला आधा तो खाली ही है।
उससे मिल के मैं ‘मौत का कुंआ’ देखने चली गयी। यहाँ भी भीड़ कम है। कुछ देर तक और लोगों का इंतजार करते हुए मौत के कुंए का दरवाजा खुला और एक नौजवान ने बाइक से एंट्री ली और ऊपर की ओर देख के हीरो वाले स्टाइल में सबको हाथ हिलाया और बाइक चलानी शुरू कर दी। उसके बाद जो करतब उसने दिखाये उसे देख के डर ही लगता रहा। दर्शक हाथ में रुपये लिये खड़े हैं और शायद ही कोई हो जो जिसके हाथ से नोट बचा। ये सचमुच बेहद रिस्क वाला काम है।
हालांकि बाद में उसके साथ एक कार और एक बाइक और आये पर उनमें वो बात नहीं है जो इस लड़के में है। तमाशा खत्म होने के बाद में उससे मिलने जाती हूँ। 18 साल का अंशू पिछले कुछ सालों से मौत के कुंए में बाइक चला रहा है। इतनी दबंगई से बाइक चलाने वाला लड़का बात करने में शर्मा गया और मुझे अपने मालिक के पास ले गया। उसके मालिक ने मुझसे सिर्फ इतना ही कहा - इस काम में पूरा रिस्क हमारा ही है। दर्शकों का कोई रिस्क नहीं है।
मौत के कुंए से बाहर निकली तो पीछे से आवाज सुनाई दी - घोड़े के नाल की अंगूठी सिर्फ 10 रुपये में। अब सस्ते में बचें शनि के प्रकोप से। 10 रुपये की अंगूठी सब मुसीबतों से दिलायेगी छुटकारा। इतना सुनना था कि मैं उसके पास ही चली गयी और पूछा - आपके पास तो हर मर्ज की दवा है आप तो एकदम खुश होंगे। वो मेरी ओर देख के बस मुस्कुरा दिया और बोला - पेट के खातिर सब करना पड़ता है।
8 तारीख को मैं फिर मेले में गयी। आज मेले का आखरी दिन है क्योंकि नंदा-सुनंदा के डोले को पूरे शहर में घुमा के रात को नैनी झील में विसर्जित कर दिया जायेगा। आज तो काफी भीड़ उमड़ी है। आज फिर वही धक्का-मुक्की हो रही है। जिसे कंट्रोल करना मशक्कत वाला काम है। इस भीड़ में युवा वर्ग भी शामिल है, पर अफसोस देवी की लाल चुनरी बांधे हुए कई लोग शराब पिये हैं।
शादी बारातों में बजने वाला बैंड इस पारंपरिक उत्सव के आनन्द को कम कर रहा है और जो अपना पारंपरिक वाद्य और नृत्य है ‘छोलिया’ वो तो लगभग नदारद ही है। एक टोली जो आयी भी है उसका होना नहीं होना बराबर ही लग रहा है। क्या ही अच्छा होता कि अगर मेले के पारम्परिक स्वरूप को बचाये रखा जाता।
खैर, पूरे शहर में डोला घुमाने के बाद रात्रि को पूरे विधि-विधान के साथ नंदा-सुनंदा की मूर्तियों को नैनी झील में विसर्जित कर दिया गया। इसके साथ मेले का समापन हुआ हालांकि मैदान में दुकानें 11 तारीख तक लगी रहेंगी।
(युवा पत्रकार विनीता यशस्वी नैनीताल समाचार से जुड़ी हैं।)