25 सालों से फासीवादी ताकतों से जूझते ‘थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’ का पांचवां पड़ाव पूना में संपन्न

Update: 2018-06-17 10:30 GMT

“थिएटर ऑफ़ रेलेवंस” ने कला कला के लिए वाली औपनिवेशिक और पूंजीवादी सोच के चक्रव्यहू को तोड़ा है अपने तत्व और सार्थक प्रयोगों से, हजारों रंग संकल्पनाओं को रोपा और किया है अभिव्यक्त...

पूना। देश को ‘स्वराज’ और ‘समता’ का विचार देने वाली ‘पूना’ की ऐतिहासिक भूमि और महाराष्ट्र की सांस्कृतिक राजधानी ‘पूना’ में 6,7,8 जून,2018 को ‘तिलक स्मारक नाट्य मन्दिर’ में ‘थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’ नाट्य दर्शन का 25 वर्षीय नाट्य उत्सव सम्पन्न हुआ।

10 अगस्त, 2017 को दिल्ली से शुरू नाट्य उत्सव, मुम्बई, पनवेल, ठाणे और पूना में हर रंग सम्भावना को अंकुरित कर, हर रंगकर्मी को प्रोत्साहित करता हुआ एक रंग आंदोलन है “थिएटर ऑफ़ रेलेवंस”... एक चौथाई सदी यानी 25 वर्षों से सतत सरकारी, गैर सरकारी, कॉर्पोरेटफंडिंग या किसी भी देशी विदेशी अनुदान से परे ‘दर्शक’ सहभागिता पर खड़ा है हमारा रंग आन्दोलन। मुंबई से मणिपुर तक!

“थिएटर ऑफ़ रेलेवंस” ने जीवन को नाटक से जोड़कर रंग चेतना का उदय करके उसे ‘जन’ से जोड़ा है। अपनी नाट्य कार्यशालाओं में सहभागियों को मंच, नाटक और जीवन का संबंध, नाट्य लेखन,अभिनय, निर्देशन, समीक्षा, नेपथ्य, रंगशिल्प, रंगभूषा आदि विभिन्न रंग आयामों पर प्रशिक्षित किया है और कलात्मक क्षमता को दैवीय से वरदान हटाकर कर वैज्ञानिक दृष्टिकोण की तरफ मोड़ा है।

25 सालों में 16 हजार से ज्यादा रंगकर्मियों ने 1000 कार्यशालाओं में हिस्सा लिया। जहाँ पूंजीवादी कलाकार कभी भी अपनी कलात्मक सामाजिक जिम्मेदारी नहीं लेते इसलिए “कला– कला के लिए” के चक्रव्यहू में फंसे हुए हैं और भोगवादी कला की चक्की में पिस कर ख़त्म हो जाते हैं। “थिएटर ऑफ़ रेलेवंस” ने “कला– कला के लिए” वाली औपनिवेशिक और पूंजीवादी सोच के चक्रव्यहू को अपने तत्व और सार्थक प्रयोगों से तोड़ा है और हजारों ‘रंग संकल्पनाओं’ को ‘रोपा’ और अभिव्यक्त किया। अब तक 28 नाटकों का 16,000 से ज्यादा बार मंचन किया है।

भूमंडलीकरण पूंजीवादी सत्ता का ‘विचार’ को कुंद, खंडित और मिटाने का षड्यंत्र है। तकनीक के रथ पर सवार होकर विज्ञान की मूल संकल्पनाओं के विनाश की साज़िश है। मानव विकास के लिए पृथ्वी और पर्यावरण का विनाश, प्रगतिशीलता को केवल सुविधा और भोग में बदलने का खेल है। फासीवादी ताकतों का बोलबाला है “भूमंडलीकरण”!

लोकतंत्र, लोकतंत्रीकरण की वैधानिक परम्पराओं का मज़ाक है “भूमंडलीकरण”! ऐसे भयावह दौर में इंसान बने रहना एक चुनौती है... इस चुनौती के सामने खड़ा है “थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’ नाट्य दर्शन। विगत 25 वर्षों से फासीवादी ताकतों से जूझता हुआ!

भूमंडलीकरण और फासीवादी ताकतें ‘स्वराज और समता’ के विचार को ध्वस्त कर समाज में विकार पैदा करती हैं, जिससे पूरा समाज ‘आत्महीनता’ से ग्रसित होकर हिंसा से लैस हो जाता है। हिंसा मानवता को नष्ट करती है और मनुष्य में ‘इंसानियत’ का भाव जगाती है कला। कला जो मनुष्य को मनुष्यता का बोध कराए... कला जो मनुष्य को इंसान बनाए!

दर्शक सहयोग और सहभागिता से आयोजित इस 25 वर्षीय नाट्य उत्सव श्रंखला में प्रस्तुत हैं रंग चिन्तक मंजुल भारद्वाज रचित तीन क्लासिक नाट्य प्रस्तुतियां, आज के मशीनीकरण के दौर में मनुष्य रूपी देहों में ‘इंसानियत’ खोजता हुआ नाटक “गर्भ”, खरीदने और बेचने के दौर में कलाकारों को वस्तुकरण से उन्मुक्त करता हुआ नाटक “अनहद नाद –Unheard Sounds of Universe” और आधी आबादी की आवाज़, पितृसत्तात्मक व्यवस्था के शोषण के खिलाफ़ हुँकार, न्याय और समता की पुकार तीसरा नाटक है “न्याय के भंवर में भंवरी” !

इस कलात्मक मिशन को मंच पर साकार करने वाले कलाकार थे अश्विनी नांदेडकर, योगिनी चौक, सायली पावसकर, कोमल खामकर, तुषार म्हस्के, बेट्सी एंड्रयूज और बबली रावत!

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