नहीं रहे कविता पोस्टर विधा के चितेरे बी मोहन नेगी

Update: 2017-10-26 16:24 GMT

रूला गये बी मोहन नेगी दा। बी मोहन दा अब कौन बनाएगा हमारे लिए कविता पोस्टर! बिना बताये क्यों चले गये। अब कौन करेगा हमसे लम्बी बातें...

संजय चौहान

कविता पोस्टर विधा के एकमात्र चितेरे पुरोधा बी मोहन नेगी अब हमारे बीच नहीं रहे। देहरादून के एक निजी अस्पताल में उन्होंने कल 25 अक्तूबर की देर रात अंतिम सांसें लीं। अभी तक विश्वास नहीं हो रहा है। खबर सुनकर स्तब्ध हूं। बीमोहन दा रूला गये आप। अभी तो बहुत कुछ सीखना था आपसे। लम्बी बातें करने थी।अब कौन बनाएगा हमारे लिए कविता पोस्टर!

बी मोहन नेगी के साथ लेखक

बीमोहन दा का जाना लोकसंस्कृति के पुरोधा का असमय जाना है, जिससे एक खालीपन हो गया है, जिसकी भरपाई कभी नहीं हो सकती। उन्होंने कविता पोस्टर विधा से लोक का पहली बार साक्षत्कार करवाया। इस विधा से लोकसंस्कृति को संजोने का बीड़ा खुद के कंधों पर उठाया। अपनी इस विधा के द्वारा कई गुमनाम लोगों से लोक का परिचय करवाया। 

चमोली के गोपेश्वर नगर से शुरू हुआ यह सफर 41 सालों के बाद आज थम गया है। इस जात्रा में वो अकेले ही डटे रहे। सिर में लोकसंस्कृति की छटा बिखेरती हुई टोपी, प्यारी सी लम्बी दाड़ी, चेहरे पर मनमोहक मुस्कान जिस पर हर कोई फ़िदा हो जाये अब हमें कभी भी दिखाई नहीं देगी। जीवनभर चुपचाप लोक की सेवा करते हुये चुपचाप इस दुनिया से चले गये। उनका जाना एक अपूर्ण क्षति है।

गौरतलब है कि पौड़ी जनपद के कल्जीखाल ब्लाक के मन्यारसू पट्टी गांव के नेगी परिवार ने देश की आजादी के पहले द्रोण नगरी देहरादून को अपना आशियाना बना दिया था, भले ही जब इस परिवार ने अपने पैतृक घर को छोड़ा था तो उस समय ये उनकी जरुरत थी, लेकिन इस परिवार ने अपनी संस्कृति और विरासत को कभी भी बिसराया नहीं। 

देहरादून में नेगी परिवार की विरासत को संभालने वाले भवानी सिंह नेगी और जमुना देवी के घर 26 अगस्त 1952 को सबसे बड़े बेटे के रूप में विलक्षण प्रतिभा के धनी एक बालक ने जन्म लिए, माता पिता ने इनका नाम बिरेन्द्र मोहन रखा। दो भाई और एक बहिन में ये सबसे बड़े थे, 12वीं के बाद ये आगे की पढ़ाई जारी नहीं रख पाये। 

पिताजी की आकस्मिक मृत्यु हो जाने के कारण पूरे परिवार की जिम्मेदारी इनके कंधों पर आ गई, जिसके लिए इन्होंने प्रिंटिंग प्रेस में कार्य करना शुरू कर दिया। बचपन से इनके अंदर कला के प्रति एक ललक सी थी, इनके मन में चित्रकार बनने की ख्वाहिश थी, लेकिन परिवार की जिम्मेदारी आड़े आ गयी। 

इन्हें भगवान् की मूर्तियाँ बेहद भाती थी, एक मूर्तिकार से इन्होने बनाने सिखाने को कहा लेकिन इन्होंने मना कर दिया, इस घटना ने उनके अंदर के कलाकार को झकझोर कर रख दिया। उन्होंने ठान ली की अब जिन्दगी में जो भी करेंगे वे खुद की मेहनत से,और खुद ही ये काम सीखेंगे। देखते ही देखते इन्होने मूर्तियाँ बनाने का कार्य सीख लिया और खुद मूर्तियाँ बनाने लग गए।

अपनी धुन के पक्के बी मोहन ने इसमें महारत हासिल कर ली। इसी दौरान वे शौकिया तौर पर लोगों के स्केच बनाने लग गए और पर्यटकों के भी, जिससे उन्हें कुछ आमदनी प्राप्त हो जाती। जिसका उपयोग वे पेंटिग का सामान खरीदने में करते। 

1971 उनके लिए खुशियाँ लेकर आया, उन्हें भारतीय डाक विभाग में नौकरी मिल गई, जहाँ उन्हें उस समय की चिटठी, पत्री, अंतर्देशी, डाक टिकट, लिफापों ने कुछ अलग करने की राह दिखाई। उन्होंने कविता पोस्टर विधा को अपनाया, उन्हें जो भी कविताएँ पसंद आती उन पर वो कविता पोस्टर बना देते। वे दिनभर नौकरी करते और रात को जितना भी समय मिलता कविता पोस्टर बनाते।

इसी बीच इनका चयन पोस्टल अस्सिटेंट पद हेतु हुआ और इनकी इच्छा के अनुरूप इन्हें गोपेश्वर में तैनाती दी गई। गोपेश्वर आना इनकी जिन्दगी का सबसे अहम फैसला साबित हुआ। 

गोपेश्वर आने के बाद एक दफा इनके दोस्त और बेहद करीबी लोकसंस्कृति कर्मी और पत्रकार राजेन टोडरिया के साथ उनकी लोकसंस्कृति पर लम्बी गुफ्तगू हुई, जिसमें राजेन ने उनसे कहा की गोपेश्वर जैसे पहाड़ी जनपदों में कला और सांस्कृतिक शून्य को खत्म करने के लिए कुछ किया जाना चाहिए। इस पर बी मोहन नेगी ने कविता पोस्टर का विचार सामने रखा, जिसे राजेन ने अपनी सहमति दे दी।

उस समय उनका साथ दिया बहादुर सिंह बोरा ने, जो उस समय सीएमओ कार्यालय में प्रशासनिक अधिकारी के पद पर कार्यरत थे। बहादुर सिंह भी संस्कृति प्रेमी थे। इनकी जुगलबंदी ने कविता पोस्टर प्रदर्शनी को पंख लगा दिये। 

16 दिनों की मेहनत आखिरकार रंग लायी जब 145 कविता पोस्टर तैयार हो गये, जिसमें कविता और पोस्टर के माध्यम से लोगों को सांस्कृतिक गतिविधियों और कला की जानकरी मुहैया करवाई गई। साथ ही लोगों को आकर्षित करने और जागरूक करने का बीड़ा उठाया गया। 

1984 की दिसम्बर महीने की कड़कड़ाती ठंड में राजकीय स्नाक्तोतर महाविद्यालय गोपेश्वर में पहली बार कविता पोस्टर की प्रदर्शनी लगाई गई, जिसमें गढ़वाली कवियों की कविताओं से लेकर देश के जाने माने कवियों की कविताएँ भी शामिल थी। सुमित्रानंदन पन्त से लेकर कन्हैया लाल डडरियाल और रविन्द्रनाथ टैगोर जैसे प्रसिद्ध कवि और लेखकों की कविताएँ शामिल थीं। 

पहाड़ों में इस तरह के पहले आयोजन ने गोपेश्वर में धूम मचा दी। लोगों ने इस आयोजन को बेहद सराहा और बी मोहन नेगी की सराहना की। इसके बाद तो बी मोहन नेगी गोपेश्वर के चर्चित चेहरे बन गये। इस आयोजन ने बी मोहन नेगी के जीवन की दिशा और दशा बदल कर रख दी। लोगों से मिले प्रोत्साहन ने बी मोहन नेगी को गदगद कर दिया। 

गोपेश्वर से शुरू हुये कविता पोस्टर के सफर को जो रफ्फ्तार दी वो आज थम गया है। 1991 में मन्दाकिनी नदी के किनारे पर बसे नगर अगस्त्यमुनि में चन्द्रकुंवर बर्त्वाल के जीवन पर आधारित एक कविता पोस्टर प्रदर्शिनी का आयोजन किया गया। इस प्रदर्शनी के माध्यम से लोक ने पहली बार चन्द्रकुंवर को इतने करीब से जाना। इनके इस प्रयास को लोगों ने बेहद सराहा। 

1992 में दूरदर्शन के राजेन्द्र धस्माना के सहयोग से 14 सितम्बर को हिंदी दिवस के मौके पर दिल्ली के हिमाचल भवन में इनकी 80 कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी लगाई गई, जिसकी हर किसी ने भूरी भूरी प्रशंसा की। इसके अलावा पौड़ी, श्रीनगर, देहरादून, मसूरी, नैनीताल, सहित कई जगहों में विभिन्न अवसरों पर इनकी कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी लग चुकी है। 

पिछले 40 सालों में सैकड़ों पत्र पत्रिकाओं में इनके स्थाई स्तंभ और कविता पोस्टर छप चुके हैं। कई पत्र पत्रिकाओं के रेखांकन संपादक भी हैं। 145 कविता पोस्टर से शुरू हुआ यह सफर 1300 का आंकड़ा पार करने के करीब है।

लोकसंस्कृति और कला पर बी मोहन नेगी जी से लम्बी बातें होती थी। वे कहते थे की यदि कलाकार के पास आर्थिक संसाधन न हो तो उसकी कला संसाधन के अभाव में घुट घुट कर दम तोड़ देती है, जैसे कभी गढ़वाल की समृद्ध विरासत की बानगी रही काष्ठ शिल्प कला अंतिम साँसे गिन रही है। 

ऐसे कलाकारों और उनकी कला को बचाने के कभी कोई प्रयास नहीं किये गये। मैं बहुत भाग्यशाली हूँ कि मुझे कभी भी आर्थिक तंगी नहीं झेलनी पड़ी, वरना मेरी कला भी तिल तिल कर कहीं दफन हो जाती। साथ ही सबसे ज्यादा आभारी हूँ गोपेश्वर की जनता का जिन्होंने मुझे प्रोत्साहन दिया और आगे बढ़ने के लिए होंसला बढ़ाया। वरना जहां में आज हूँ वहां तक नहीं पहुँच पाता। 

बी मोहन नेगी कहते थे कि  जिस भी कलाकार ने अपनी कला को व्यवसाय के रूप में भुनाया उसकी मौलिकता खुद ही समाप्त हो गई, इसलिए उन्होंने अपनी कला को कभी भी व्यावसायिक रूप नहीं दियां अपनी कला में जो भी खर्च आता उसे वे खुद ही वहन करते

40 सालों से अकेले ही अपनी कला के द्वारा लोक और उसकी संस्कृति को संजोने का कार्य कर रहे थे, जो आने वाली पीढ़ी के लिए किसी धरोहर से कम नहीं है। नई पीढ़ी के लोगों को साहित्यिक और संस्कृति की जड़ों को मजबूत करने की वकालत करते हैं। 

वे अपनी कविता पोस्टर की जात्रा में गढ़वाली, कुमाउनी, जौनसारी, रंवालटा, उर्दू, अंग्रेजी, हिंदी, पंजाबी, भोटिया, बांग्ला, भोजपुरी सहित कई भाषाओं के कवि और लेखकों की कविताओं को जगह दे चुके हैं।

दो पुत्र और दो पुत्रियों के पिता बी मोहन नेगी का लोक और कला से लगाव बचपन से ही रहा है। अपने जीवन में इन्हें रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविताओं और व्यक्तित्व ने बेहद प्रभावित किया, जिसकी झलक उनकी कविता पोस्टर और व्यक्तिगत जीवन में भी देखने को मिलती है। 

बी मोहन नेगी को विगत 36 बरसों से करीब से जानने वाले उनके परम मित्र, लोकसंस्कृति कर्मी और साहित्यकार डॉ नंदकिशोर हटवाल बताते हैं के कला के प्रति बी मोहन नेगी जैसा जूनून, समर्पण और त्याग बिरले ही लोगों के पास होता है। अपनी कला के लिए वे खाना पीना तक भूल जाते हैं। खुद बी मोहन नेगी स्वीकारते हैं कि पेंटिंग और कविता पोस्टर बनाने के लिए उन्होंने अपने खाने से समझौता कर लिया था, क्योंकि खाना बनाने में समय ज्यादा लगता था, इसलिए वे अधिकतर रोटी चावल की जगह खिचड़ी खाकर दिन गुजारा करते थे। 

उनके कई दोस्त उन्हें खिचड़ी बाबा कहकर पुकारते थे। उनके खिचड़ी प्रेम पर नंदकिशोर हटवाल कहते हैं, उनकी भूख पेंटिंग और कविता पोस्टर में ही समाहित थी। 2009 में वे राजकीय सेवा से सेवानिवृत्त हुये और अब हमारे बीच नहीं रहे।

(संजय चौहान उत्तराखण्ड में जनसरोकारों से जुड़े पत्रकार हैं।)

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