दिल्ली में हिंसा ना संयोग है, ना प्रयोग, बल्कि एक 'प्रोजेक्ट' है

Update: 2020-02-28 02:30 GMT

दिल्ली में गुजरात की तरह कोई क्रिया की प्रतिक्रिया नहीं हुई है और ना ही कोई बड़ा पेड़ गिरा है जिसकी वजह से दिल्ली की धरती हिली है। यह निरंतर चलायी गयी प्रक्रियाओं का परिणाम है जिसमें लोगों के मानस को बदल दिया है। दिल्ली हिन्दुस्तान की राजधानी है और शायद इस प्रोजेक्ट का आखिरी छोर भी...

दिल्ली हिंसा पर जावेद अनीस की टिप्पणी

ह ना संयोग है, ना प्रयोग, बल्कि एक प्रोजेक्ट है। भारत को ‘हम’ और ‘वे’ में बांट देने का प्रोजेक्ट। जिसे बहुत तेजी से पूरा किया जा रहा है जिसके लिये कई दशकों से प्रयास किया जा रहा था। दिमागों में पैदा किये गये विभाजन और हिंसा अब जमीन पर दिखाई पड़ने लगी है जिसके चलते भारत बहुत तेजी से नफरत, खौफ और निराशा की अंधी खाई में धंसता जा रहा है। सात दशक पहले विभाजन के दर्द को भूल कर सभी भारतीयों के बीच स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के सपने अब लगातार खाक होते जा रहे हैं।

पिछले कुछ सालों से राजधानी दिल्ली लगातार निशाने पर है। पहले विश्वविद्यालयों को निशाना बनाया गया और अब बस्तियां भी सुलग रही है। दिल्ली में 1984 में हुये सिख विरोधी दंगों के बाद यह सबसे बड़ी सांप्रदायिक हिंसा है। इस बार भी दिल्ली में बिना किसी रोकथाम के तीन से चार दिनों तक हिंसा का तांडव होता रहा जिसमें अभी तक 35 से अधिक लोगों के मारे जाने की पुष्टि हो चुकी है। ढाई से तीन सौ तक लोग घायल हुये हैं और बड़ी संख्या में सम्पतियों को निशाना बनाया गया। इस दौरान पुलिस की निष्क्रियता के अलावा कई ऐसे विडियो सामने आये हैं जिसमें यह शक पैदा होता है कि पुलिस के संरक्षण में भी हिंसा को अंजाम दिया गया है।

Full View शुरू होने के दो दिनों बाद दिल्ली में बैठी केंद्र सरकार की नींद खुली लेकिन इसमें भी किसी निर्वाचित जन प्रतिनिधित की जगह राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल को हिंसा प्रभावित क्षेत्रों में दौरे पर भेजा गया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा ट्विटर के माध्यम से लोगों से शांति बनाए रखने की अपील की गयी। लेकिन इसी के साथ ही दिल्ली हिंसा मामले की सुनवाई कर रहे जस्टिस मुरलीधर के ट्रांसफर का आदेश भी जारी कर दिया गया। हालांकि सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम द्वारा 12 फरवरी को ही जस्टिस मुरलीधर सहित तीन जजों के ट्रांसफर की सिफारिश की गयी थी। लेकिन बाकी दो जजों का ट्रांसफर आदेश नहीं निकाला गया है।

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सलिये इसे दिल्ली हिंसा मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस मुरलीधर के कड़े रुख के साथ जोड़ कर देखा जा रहा है जिसमें उन्होंने केंद्र सरकार व दिल्ली पुलिस को जमकर फटकार लगायी थी और सत्ताधारी पार्टी के नेताओं पर एफआईआर दर्ज करने के आदेश दिए थे। गौरतलब है कि जस्टिस मुरलीधर ने 84 के सिख विरोधी दंगों के मामले में कांग्रेस नेता सज्जन कुमार को दोषी ठहराया था और इस बार भी उन्होंने कहा था कि ‘इस अदालत के होते हुए दिल्ली में दूसरा 1984 नहीं होने दे सकते हैं।’ ऐसे में उनकी अदालत ही बदल दी गयी और इसी के साथ ही दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा इस मामले की सुनवाई को 13 अप्रैल तक टाल दिया गया है।

दिल्ली हिंसा के पृष्ठभूमि में नागरिकता संशोधन कानून और इसको लेकर चल रहे आन्दोलन हैं जिसका सबसे बड़ा केंद्र दिल्ली का शाहीन बाग बन चुका है। जैसा कि शुरू से ही स्पष्ट था, नागरिकता संशोधन कानून का मकसद हमारे पड़ोसी मुस्लिम देशों के गैर-मुस्लिम शरणार्थियों को शरण देने से ज्यादा नागरिकता को धर्म की पहचान से जोड़ना था जिसके बाद इस कानून के खिलाफ देश भर में प्रदर्शन शुरू हो गए। लेकिन केंद्र सरकार में बैठे लोगों द्वारा आन्दोलनकारियों की बात सुनने और उनकी आशंकाओं को दूर करने की जगह उलटे उन्हें ही अराजक और देशद्रोही घोषित किया जाने लगा। खुद प्रधानमंत्री द्वारा झारखण्ड के एक चुनावी सभा में आंदोलनकारियों का पहनावा को देखने जैसी बातें की गयीं।

सके बाद तो जिम्मेदारी भरे पदों पर बैठे लोगों की तरफ ही नफरती, धमकी भरे और हिंसक बयानों की बाढ़ सी आ गयी। कर्नाटक से भाजपा सरकार के मंत्री सी।टी। रवि की तरफ से 'बहुसंख्यकों ने अपना संयम खोया तो गोधरा जैसी घटनाएं दोबारा हो सकती हैं’ जैसे बयां दिये गये। दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान तो सारी हदें पार कर दी गयीं। इस दौरान खुद गृह मंत्री अमित शाह और वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर ईवीएम के बटन से शाहीन बाग में करंट दौड़ाने और देश के गद्दारों को....जैसी बातें कही गयीं। भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा और कपिल मिश्रा जैसे नेता तो सीधे दौर पर दंगाई की भूमिका में रहे।इस दौरान दो बार ऐसा मौका आया जब जामिया और शाहीन भाग के पास नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों के आस-पास नौजवान बंदूक लहराते नजर आये और अंत में हिंसा अपने विस्फोटक रूप में सामने आई है।

Full View में गुजरात की तरह कोई क्रिया की प्रतिक्रिया नहीं हुई है और ना ही कोई बड़ा पेड़ गिरा है जिसकी वजह से दिल्ली की धरती हिली है। यह निरंतर चलायी गयी प्रक्रियों का परिणाम है जिसमें लोगों के मानस को बदल दिया है। दिल्ली हिन्दुस्तान की राजधानी है और शायद इस प्रोजेक्ट का आखिरी छोर भी। जाहिर है यहां जो भी होता है उसका असर पूरे देश के मनोविज्ञान पर पड़ता है। करीब 18 साल पहले जब गुजरात में “क्रिया की प्रतिक्रिया” हुई थी तो दिल्ली थू-थू कर रही थी और आज जब इसी प्रोजेक्ट को हुबहू दिल्ली में दोहराया जा रहा है तो दिल्ली उफ्फ भी नहीं कर रही है या यूं कहें कि उफ्फ करने की स्थिति में भी नहीं रह गयी है।

दिल्ली में जो हो रहा है वो डरावना और चिंताजनक है लेकिन इससे भी अधिक डरावना है राजनीतिक विकल्पहीनता की स्थिति।आज देश में आक्रमक बहुसंख्यकवादी राजनीति के खिलाफ कोई दूसरी राजनीति नजर नहीं आती है। ले देकर नागरिक प्रतिरोध ही नजर आ रहे हैं लेकिन इनके खिलाफ भी लगातार मानस बनाते हुये जनता के एक हिस्से को खड़ा कर किया जा रहा है।

स प्रोजेक्ट के बरक्स कोई दूसरा प्रोजेक्ट सिरे से ही गायब है लेकिन सबसे बड़ी चिंता की बात यह है इस कमी का अहसास भी गायब है। ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब भाजपा-संघ विरोधी खेमा दिल्ली में आम आदमी की जीत से खुशी में बाग- बाग हुये जा रहा था और इसे भारतीय जनता पार्टी के 'प्रोजेक्ट' के खिलाफ जनादेश मान लिया गया था।

संघ और उसके चुनावी संगठन भाजपा का अपना एजेंडा है जिसके लिये वे लंबे समय की प्लानिंग करते हैं।उनका लक्ष्य सिर्फ चुनाव जीतने तक सीमित नहीं होता है।दिल्ली चुनाव में अपने पार्टी की हार के बाद अमित शाह ने कहा था कि 'भाजपा विचारधारा पर आधारित पार्टी है और वह सिर्फ जीत के लिए चुनाव नहीं लड़ती बल्कि चुनाव उसके लिए विचारधारा को आगे बढ़ाने का माध्यम भी होता है।'

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ह इसी प्लानिंग का नतीजा है कि आज देश में चुनावी राजनीति का धरातल बदल दिया गया है। आज संघ द्वारा प्रस्तावित की गयी हिंदुत्व की राजनीति मुख्यधारा की राजनीति बन चुकी है। किसी भी विचारधारा के लिये इससे बड़ी सफलता और क्या हो सकती है कि देश के सभी चुनावी दल ख़ुशी- ख़ुशी या मजबूरी में ही उसके द्वारा प्रस्तुत किये गये पिच पर प्रतिस्पर्धा करने लगें।

हरहाल दिल्ली की हिंसा किसी फौरी घटना की कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया नहीं है। खाई बहुत गहरी हो चुकी है और अब यह राजधानी दिल्ली में अपना तांडव दिखा रही है। इसलिये इस खाई को पाटने के लिये दीर्घकालिक प्रोजेक्ट की जरूरत पड़ेगी। ऐसा लगता है कि साल 2014 के बाद से भारत में दूसरी राजनीतिक विचारधारायें भी लम्बी छुट्टी पर चली गयी है जबकि यही समय है जब उनकी सबसे ज्यादा जरूरत है। इन विपरीत परिस्थितियों में राजनीति और समाज दोनों से समझदारी सिरे से ही गायब दिख रहे हैं और ना ही देश में कोई एक ऐसा शख्स ही नजर आता है जिसे पूरा देश एक सुर में सुनने को तैयार हो।

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