अँधेरे हो तुम तो उजाले हैं हम भी, कभी न कभी तो मुलाक़ात होगी

Update: 2018-06-22 03:24 GMT

सप्ताह की कविता में आज जनकवि बल्ली सिंह चीमा की कविताएं

‘ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के’ जैसे जन-जन की जुबान पर चढ़े गीतों के रचनाकार बल्‍ली सिंह चीमा की कविताओं में समय की पीड़ा और संघर्ष उसकी गहनता और बहुस्तरीयता में अभिव्यक्त होते हैं- 'ये कहानियां, ये लफ्फाजियां, तेरे मुंह से मुझको जंची नहीं/ मेरे गांव में ये रिवाज है, कहा जो भी करके दिखा दिया।'

कथनी और करनी के मेल की जो मिसालें अब भी गांवों में शेष हैं, चीमा उन्हें स्वर देते हैं। ‘नये जमीनों, नये आसमानों’ की इस शायरी की शिनाख्त करते वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना सही कहते हैं- ‘दरअसल कविता न छंद की मोहताज है न गद्य की। सूक्ष्मता, संगीतात्मकता, संवेदना और बिंबात्मकता के साथ कवि दृष्टि यानी कथ्य का चुनाव, वे तत्व हैं, जो यह तय करते हैं कि कविता संभव हुई या नहीं और यह भी कि उसमें कवि का समय प्रतिध्वनित होता है या नहीं।’

चीमा पेशे से किसान हैं और उनकी चेतना अपनी सहजता में पर्यावरण के विनाश से पैदा संकटों को स्वर देती है- 'जब से बेच दिए हैं उसने घर के सारे पेड़/ बैठ मुंडेरों पर सारा दिन गुर्राती है धूप।' चीमा अन्न उपजाने वालों के प्रतिनिधि हैं इसलिए उनका स्वर अन्न खाने वाले कवियों से जुदा है। उनके लिए जीवन-दिन-रात के निहितार्थ भी अलग हैं- 'दिन तो हमें थका देता है, करती है रात तरो-ताजा/रब मिलता तो कहते उससे तूने खूब बनाई रात।' श्रमसिक्त जीवन अलग होता है परजीवियों के जीवन से, इसलिए वहां हम एक सहज आत्माभिमान और संतोष पा सकते हैं-'अच्छे काम किए हैं, ‘बल्ली’ शायद इसीलिए /नींद की गोली खाये बिना ही आ जाती है नींद।'

इस आत्माभिमान को इस सरलता से अभिव्यक्त करने की कुव्वत हिंदी के कितने कवियों में आज शेष है? शहर और गांव की टकराहटों के स्वर चीमा की कविता में बारहा मिलते हैं। गांव और शहर की सुंदरता के भेद को भी चीमा खूब समझते हैं कि जहां गांव का सौंदर्यबोध श्रम से जुड़ा होता है वहीं शहर का सौंदर्यबोध उस श्रम के शोषण से पैदा पैसे से जुड़ा होता है-'पीपलों की छांव में ठंढी हवाओं से मिलो/रुकूलरों को क्या पता बहती हवा क्या चीज है।' कभी शमशेर ने लिखा था- ‘वाम वाम वाम दिशा समय साम्यवादी’। इतिहास के अंत और निरूत्तराधुनिकतावादी पचड़ों के बाद जिस तरह ‘अक्युपायी वाल स्ट्रीट’ जैसे नारे बुलंद हुए और हो रहे, उसकी पृष्ठभूमि में चीमा की पंक्तियां प्रासंगिक लगती हैं-'बाएं चलिए जिंदगी से प्यार करना सीखिए/ हर सफर हर राह में बाईं दिशा मौजूद है।'

कुछ भी कर गुजरने का जज्बा और संयम का द्वंद्व और जीवन के अंतर्विरोधों का संतुलन चीमा अपनी कविताओं में साधते चलते हैं। खुद को आदर्श बनाने में चीमा का विश्वास नहीं है। आम आदमी बने रहना ही उन्हें सहज लगता है क्योंकि वहां उन्हें अपने सरीखे दुखी लोग मिल जाते हैं, साथ देने वाले। रूढि़यों की गुलामी चीमा को बर्दाश्त नहीं-

'वो जो रूढि़यों का गुलाम है उसे क्या पता कि नया है क्या?/ जिसे टोटकों पे यकीन हो, उसे क्या खबर कि दवा है क्या?' आइए पढ़ते हैं बल्‍ली सिंह चीमा की कुछ कविताएं - कुमार मुकुल

चलो कि मंजिल दूर नहीं

चलो कि मंज़िल दूर नहीं, चलो कि मंज़िल दूर नहीं

आगे बढ़कर पीछे हटना वीरों का दस्तूर नहीं

चलो कि मंज़िल दूर नहीं ...

चिड़ियों की चूँ-चूँ को देखो जीवन संगीत सुनाती

कलकल करती नदिया धारा चलने का अंदाज़ बताती

ज़िस्म तरोताज़ा हैं अपने कोई थकन से चूर नहीं

चलो कि मंज़िल दूर नहीं ..

बनते-बनते बात बनेगी बूँद-बूँद सागर होगा

रोटी कपड़ा सब पाएँगे सबका सुंदर घर होगा

आशाओं का ज़ख़्मी चेहरा इतना भी बेनूर नहीं

चलो कि मंज़िल दूर नहीं....

हक़ मांगेंगे लड़ कर लेंगे मिल जाएगा उत्तराखंड

पहले यह भी सोचना होगा कैसा होगा उत्तराखंड

हर सीने में आग दबी है चेहरा भी मज़बूर नहीं

चलो कि मंज़िल दूर नहीं ..

पथरीली राहें हैं साथी संभल-संभल चलना होगा

काली रात ढलेगी एक दिन सूरज को उगना होगा

राहें कहती हैं राही से आ जा मंज़िल दूर नहीं

चलो कि मंज़िल दूर नहीं .. चलो कि मंज़िल दूर नहीं

ये किसको ख़बर थी कि ये बात होगी

ये किसको ख़बर थी कि ये बात होगी

पकी खेतियों पर भी बरसात होगी

ये सूखे हुए खेत कहते हैं मुझसे

सुना था कि सावन में बरसात होगी

ये सावन भी जब सावनों-सा नहीं है

तो फिर कैसे कह दूँ कि बरसात होगी

उमड़ते हुए बादलो! ये बताओ

कि रिमझिम की भाषा में कब बात होगी

उसूलों को जीवन में शामिल भी रखना

कभी बेअसूलों से फिर बात होगी

अँधेरे हो तुम तो उजाले हैं हम भी

कभी न कभी तो मुलाक़ात होगी

हिलाओ पूँछ तो करता है प्यार अमरीका

हिलाओ पूँछ तो करता है प्यार अमरीका।

झुकाओ सिर को तो देगा उधार अमरीका।

बड़ी हसीन हो बाज़ारियत को अपनाओ,

तुम्हारे हुस्न को देगा निखार अमरीका।

बराबरी की या रोटी की बात मत करना,

समाजवाद से खाता है ख़ार अमरीका।

आतंकवाद बताता है जनसंघर्षों को,

मुशर्रफ़ों से तो करता है प्यार अमरीका।

ये लोकतंत्र बहाली तो इक तमाशा है,

बना हुआ है हक़ीक़त में ज़ार अमरीका।

विरोधियों को तो लेता है आड़े हाथों वह,

पर मिट्ठूओं पे करे जाँ निसार अमरीका।

प्रचण्ड क्रान्ति का योद्धा या उग्रवादी है,

सच्चाई क्या है करेगा विचार अमरीका।

तेरे वुजूद से दुनिया को बहुत ख़तरा है,

यह बात बोल के करता है वार अमरीका।

स्वाभिमान गँवाकर उदार हाथों से,

जो एक माँगो तो देता है चार अमरीका।

हरेक देश को निर्देश रोज़ देता है,

ख़ुदा कहो या कहो थानेदार अमरीका।

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