कौन लेगा इन मासूम मौतों का जिम्मा?

Update: 2017-08-15 18:05 GMT

आॅक्सीजन बंद होने से मौतें हुईं हों या किसी अन्य वजह से, यह तो जांच का विषय है, मगर हर रोज होने वाली इन मौतों की असल दोषी यह मुनाफाखोर व्यवस्था है, जो पैसों की खातिर गरीबों—मासूमों की जान लेने तक में संकोच नहीं करती...

चक्रपाणि ओझा

आज देश आजादी की 70वीं सालगिरह मना रहा है। ऐसे समय में गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में दर्जनों मासूमों की मौत ने इस दमघोटू हो चुके सिस्टम और 70 वर्ष बाद भी आम आदमी की बुनियादी सुबिधाओं की असलियत को सबके सामने ला दिया है। शिक्षा, चिकित्सा और रोजगार जैसे बुनियादी सवाल आज भी मुंह बाये खडे हैं। गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में घटी इस घटना ने संवेदनहीनता ही हद पार कर दी है। हालांकि अभी भी वहां हो रही मौतों का सिलसिला थमा नहीं है।

मेडिकल कॉलेज में दर्जनों मासूमों की एक साथ हुई मौत ने जहां संवेदनहीन व्यवस्था की असलियत का बेपर्दा कर दिया, वहीं हर संवेदनशील इंसान को झकझोर कर रख्र दिया। आॅक्सीजन की सप्लाई ठप होने की वजह से 30 से अधिक मासूमों की जान चली गई, फिर भी कॉलेज प्रशासन और प्रदेश सरकार इसको पूरी तरह स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं, जबकि जिलाधिकारी आॅक्सीजन की अनुपलब्धता लाखों रुपए बकाया होने के कारण सप्लाई ठप होने की बात स्वीकार कर चुके हैं।

गोरखपुर में आॅक्सीजन की कमी के चलते दर्जनों मासूमों की मौत देश की यह सबसे बड़ी हृदय विदारक घटना है, जिस पर राजनीतिक दलों ने अपनी—अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकनी शुरू कर दी हैं। हालांकि एक सच यह भी है कि गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में इंसेफ्लाइटिस व अन्य बीमारियों से पहले भी नौनिहालों की मौत होती रहती है, पर इस बार अंतर सिर्फ यह है कि व्यवस्था की लापरवाही के कारण इतनी बड़ी संख्या में अब तक की सर्वाधिक मौतें हुई हैं।

गौरतलब है कि पिछले तीस वर्षों से जारी इस कहर ने पचास हजार से अधिक मासूमों को अपने चपेट में ले लिया है तथा यह क्रम अभी अंतहीन है। लेकिन पिछले दो दिनों में हुई इन मौतों के लिए उस बीमारी से ज्यादा जिम्मेदार व्यवस्था और संचालक हैं। इसके बावजूद सरकार व कॉलेज प्रशासन इसे मानने को तैयार नहीं है।

यह वही देश है जहां बर्ड फ्लू और स्वाइन फ्लू का एक मरीज मिलते ही पूरी सरकार व स्वास्थ्य महकमा हरकत में आ जाता है। लेकिन पूर्वांचल के हजारों मासूम जापानी कहर से हर साल दम तोड़ देते हैं इन पर कोई फरमान जारी नहीं होता, वजह साफ है स्वाइन फ्लू व बर्ड फ्लू से प्रभावित होने वाला देश का धनाढ्य यानी बड़ा वर्ग होता है, वहीं जापानी इंसेफ्लाइटिस से मरने वाला देश के अंतिम आदमी का नौनिहाल।

पूर्वांचल, बिहार व पड़ोसी मुल्क नेपाल के नागरिक इस बीमारी का इलाज कराने को बीआरडी कॉलेज का रुख करते हैं। लेकिन खस्ताहाल व्यवस्था के चलते मौत की भेंट मासूम चढ़ जाते हैं। जो बच भी जाते हैं वे या तो अपंग हो जाते हैं या फिर दवा के अभाव में आगे चलकर दम तोड़ देते हैं।

मासूमों की मौत किसी भी सरकार के लिए कभी भी अहम मुददा नहीं रहा है। देश के पीएम और राज्य के सीएम अपने भाषणों में कहते हैं कि इलाज के अभाव में किसी बच्चे को मरने नहीं देंगे, मगर यह घटना उनके दावों की पोल खोलकर रख देती है।

गौरतलब है कि 11 अगस्त को घटी इस हृदयविदारक घटना से एक दिन पूर्व ही मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इसी मेडिकल कॉलेज का जायजा लेकर लौटे थे। यानी कि उनके सामने सबकुछ ठीकठाक दिखाने की कोशिश की गई थी, लेकिन उनके जाने के घंटों बाद ही सच्चाई सामने आ गई।

इसके पहले भी मुख्यमंत्री समय-समय पर कॉलेज को जायजा लेते रहते हैं। फिर भी आॅक्सीजन सप्लाई करने वाली एजेंसी का लाखों रुपया बकाया होना सवाल खड़े करता है, जिसके कारण सप्लाई बंद कर दी गई और इतने बड़े पैमाने पर मासूम एक साथ अकाल मौत के मुंह में समा गए।

घटी घटना को मौत कहें या हत्या, जिम्मेदार शासक वर्ग कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है। आॅक्सीजन बंद होने से मौतें हुईं हों या किसी अन्य वजह से, यह तो जांच के बाद ही शायद पता चले लेकिन हर रोज होने वाली इन मौतों का असली दोषी संभवतः यह मुनाफाखोर व्यवस्था है जो पैसों की खातिर गरीबों के मासूमों की जान लेने तक में संकोच नहीं करती।

आॅक्सीजन सप्लायर को भी इस हत्या के लिए कम दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जो मुनाफे की हवस में इतना अंधा हो गया था कि उसकों इन मासूमों की जान की चिंता तक न हुई और उसने सप्लाई रोक दी। कंपनी के बिल का भुगतान न होने का दोषी कॉलेज व सरकार है, न कि ये मासूम बच्चे जिनकी हत्या कर दी गई या मौत हो गई।

आश्चर्यजनक है कि बावजूद इसके हमारी सरकार यह मानने को तैयार नहीं है कि आॅक्सीजन खत्म हुआ था, जबकि सत्ताधारी दल के एक जनप्रतिनिधि ने खुद मेडिकल कॉलेज का दौरा किया और आॅक्सीजन न होने की बात स्वीकार की।

पूर्वांचल के लोगों को अब मेडिकल कॉलेज जाने से डर लगने लगा है कि कब उनकी सांसें रोक दी जायें। हर साल सैकड़ों की संख्या में बच्चे यहां मरते हैं। यह सिलसिला आम है। कितनी आसानी से प्रशासन यह कह देता है कि यह रूटीन मौतें हैं। ऐसे में जो अस्पताल जीवन बचाने के लिए खोले गए थे वे अब जीवन लेने के लिए चर्चित हो गए हैं।

कितना हास्यास्पद सा लगता है कि जिस व्यवस्था के पास एक मेडिकल कॉलेज सुव्यवस्थित ढंग से चलाने की क्षमता नहीं है, वह गोरखपुर में एम्स व देवरिया में मेडिकल कॉलेज बनाने की तैयारी में है। तर्क दिया जा रहा है कि इससे पूर्वांचल के लोगों को बेहतरीन स्वास्थ्य सेवा मिल सकेंगी।

सवाल यह है कि क्या एक और अस्पताल खोल देने भर से स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर हो जाएंगी? क्या बाहर से दवाएं खरीदने के लिए मरीजों को मजबूर नहीं होना पड़ेगा?

इंसेफ्लाइटिस के मरीजों के परिजन कहते हैं कि उन्हें बाहर से दवाएं खरीदनी पड़ती हैं। हद तो यह है कि वार्ड में न सिर्फ दवाओं का अभाव है, बल्कि वार्ड में पर्याप्त बेड व डॉक्टर भी नहीं हैं। बरसात के मौसम में इंसेफ्लाइटिस के मरीजों की संख्या काफी बढ़ जाती है, बावजूद इसके स्वास्थ्य महकमा व सरकारें इस जानलेवा बीमारी को अनदेखा करती हैं।

संवेदनशील मनुष्यों को झकझोर देने वाली मौतों पर हर आदमी सत्तासीन सरकारों व राजनीतिज्ञों से यह पूछना चाहता है कि मुनाफाखोर संवेदनहीन व्यवस्था के हाथों कब तक आम घरों के मासूम दम तोड़ते रहेंगे? सरकारें कब तक जांच कर कार्रवाई करने की बातें करती रहेंगी?

अस्सी के दशक से जारी इस भयावह बीमारी पर कब रोक लगेगी, यह तो समय ही बतायेगा लेकिन पूर्वांचल की जनता हर पांच साल पर वोट देकर अनेक दलों सदन में इस उम्मीद के साथ भेजती है कि इस त्रासदी से निपटने के लिए कुछ इंतजाम करेंगे।

गोरखपुर से लेकर लखनऊ व देश की राजधानी दिल्ली तक एक दल की सरकार है, सब जिम्मेदार हैं, संघर्षशील हैं व मनुष्यता में विश्वास करने वाले प्रतिनिधि हैं ऐसे में उम्मीद बनती है। अब देखना है कि इन नवजात व मासूम के मौतों का जिम्मा कौन लेता है?

(लेखक पतहर पत्रिका के सहायक संपादक हैं।)

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