योगी ने साबुन इसलिए नहीं स्वीकार किया कि उसे दलितों ने बनाया था ?

Update: 2017-07-04 17:22 GMT

साबुन तो साबुन होता है, फिर सरकार का साबुन अच्छा और दलितों का साबुन गंदा कैसे? हां, दलितों का साबुन अछूत जरूर हो सकता है, क्या मुख्यमंत्री ने इसलिए स्वीकार करना जरूरी नहीं समझा...

झांसी से जीशान अख्तर की रिपोर्ट 

गाय, राष्ट्रवाद, आतंकवाद और राष्ट्रभक्ति के बीच धार्मिक हो चुकी पत्रकारिता के बीच साबुन एकाएक प्रासंगिक हो गया है. किसी ने सोचा भी नहीं होगा और घरों से बाथरूम से निकल साबुन ने देश-प्रदेश की राजनीति में जगह बना ली.

यूपी में सरकारी साबुन से दलितों को सफाई से रहने की हिदायत मिली. तो गुजरात के दलितों ने भी एक साबुन तैयार कर लिया. 125 किलो का यह साबुन सरकार के शरीर के लिए ही नहीं बनाया गया. दावा किया गया कि इससे मन भी साफ़ हो जाएगा. इसमें हल्दी चन्दन के साथ महात्मा बौद्ध का सन्देश भी था.

गुजरात के दलित मानवाधिकार कार्यकर्ता दिनेश सोलंकी कहते हैं, 'दलितों को साबुन बांटने वाली सरकार दलितों के साबुन से डर क्यों रही है?  ऐसे में सवाल यह है कि क्या सरकार ने दलितों का साबुन इसलिए नहीं स्वीकार किया कि उसे दलितों यानी अछूतों ने बनाया था?'

सरकार को साबुन भेंट करने की कोशिश कर रहे मोदी के गुजरात के दलितों को योगी के यूपी के झाँसी में अरेस्ट कर लिया गया. साबुन छीन लिया गया. दलितों को साबुन बांटने वाली सरकार दलितों के साबुन से डर क्यों रही है?

साबुन, साबुन होता है. ये साबुन सरकार के साबुन से महंगा था. बनवाने और सरकार तक पहुंचाने के लिए एक हज़ार दलित महिलाओं ने दस-दस रुपये दान में दिए. तीन हज़ार पच्चीस रुपये की लागत से दस दिन में बनकर तैयार हुआ. 125 किलो का यह साबुन शायद देश या दुनिया का सबसे महंगा साबुन था, जो आम लोगों ने तैयार करा लिया.

43 लोग गुजरात से चलकर लखनऊ तक लम्बा सफ़र कर इसे देने आ रहे थे. फिर भी लेने से इनकार कर दिया गया. ऐसा क्यों किया गया, लोग यह नहीं समझ पा रहे हैं. आखिर ऐसा क्या था इस साबुन में. गुजरात से चलकर दलित एक साबुन देने यहाँ तक क्यों आ गये? आखिर क्यों इतनी दूर सफ़र करने का सोच लिया वो भी एक साबुन के लिए?

झाँसी रेलवे स्टेशन पर हिरासत में लिए गये गुजरात के मानवाधिकार कार्यकर्ता. इनके लिए बड़ी संख्या में पुलिस पहुंची    

डॉ. अम्बेडकर बेचाण प्रतिबंध समिति गुजरात में दलित मानवाधिकारों के लिए लड़ती है. 30 मई को योगी सरकार द्वारा कुशीनगर में दलितों से मिलने से पहले नहाने के लिए साबुन बांटे गये. यह खबर गुजरात के अखबारों में भी प्रकाशित हुई. समिति के मार्टिन मैकवान बताते हैं कि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा यह दलितों का अपमान था. हम उत्तर प्रदेश सरकार को सन्देश देना चाहते थे. इसीलिए ‘गुजरात से चलकर आये हैं, समता का साबुन लाये हैं’ का हमारा नारा था.

जिस गुजरात में रामराज्य का दावा किया जाता है, वहाँ के दलित कहते हैं कि बीजेपी का हालिया रवैया ठीक नहीं रहा है. गुजरात में साबुन नहीं बांटे गये, लेकिन काफी कुछ ऐसा हो रहा है जो दलितों की अस्मिता पर हमला होता है. इसमें समाज की भूमिका अधिक होती है.

वह कहते हैं- ‘हम कई जगह अछूत हैं. गुजरात इससे अलग नहीं. यूपी में आने के बाद भी हम अछूत हैं और हमारा साबुन भी अछूत हो गया। तभी तो मुख्यमंत्री ने हमें लखनऊ के धरती पर पैर नहीं रखने दिया।'

नट्टू परमार कहना जारी रखते हैं. वह कहते हैं कि सहारनपुर में घर जला दिए गये. अन्य जगहों पर दलितों पर हमले हुए. इसी तरह गुजरात में भी गौरक्षक अत्याचार करते हैं. यूपी-गुजरात या देश के दूसरे हिस्सों में इन्हें रोकने के लिए सरकार क्या करती है?

गुजरात में मानव अधिकार जैसी बात नहीं रही. खुलेआम हनन होता है. पूरी पुलिस को एक धर्म के पीछे लगा दिया है. सरकारी योजनाएं कम हो रही हैं. जैसी घटनाएं बुंदेलखंड या उत्तर प्रदेश में होती हैं. बरात के साथ खाना खाने पर दलित की नाक काटने की यहाँ की घटना हमने सुनी थी. वहां भी ऐसी घटनाएं होती हैं. धार्मिक स्थलों में नहीं घुसने देते. कई गांव हैं, जहां मिड-डे मील अलग देते हैं. पंचायत में कुर्सी पर नहीं बैठ सकते.

कई गांव हैं जहां दलित दूल्हे घोड़ी पर नहीं चढ़ सकते. (मध्य प्रदेश के मुरैना व राजस्थान में ऐसी घटनाएँ सामने आ चुकी हैं)

वह बताते हैं कि पुलिस हमारा सपोर्ट नहीं करती. एफआईआर सही ढंग से नहीं लिखी जाती. अक्सर आरोपी छोड़ दिये जाते हैं. कोर्ट में केस सही ढंग से नहीं चलती. वह याद करते हुए कहते हैं कि दस दिन पहले ही सुरेंद्र नगर ज़िले का बदुध गांव में एक दलित व्यक्ति के दोनों पैर तोड़ दिए गये. खेत से रास्ता निकालने को मना करने पर. कई दिन बाद रिपोर्ट नहीं हुई. हमने प्रोटेस्ट किया तब आरोपी अरेस्ट हुए.

वहाँ ओबीसी भी छुआछूत मानते हैं. (हालांकि उत्तर प्रदेश या उत्तर भारत में भी ओबीसी, इसमें मुस्लिम भी शामिल हैं, दलितों से छुआछूत मानते हैं). वो भी अत्याचार करते हैं.

सूरजनगर ज़िले के धौलीबाल गांव  के रहने वाले नट्टू मुझे बचपन की एक कहानी सुनाते हैं. वह कहते हैं- ‘जब मैं 16 साल का था तब माँ ने चाय की पत्ती लेने भेजा. मैंने चाय की पत्ती लेने के लिए दुकान की दहलीज़ पर पैर रख दिया. तो थप्पड़ मार दिया गया. यह थप्पड़ उनके मन में छप सा गया. इसके बाद संगठन में जुड़ा.

'तब मैं 16 साल का था, आज 40 का हूँ, लेकिन 24 साल में बहुत कुछ नहीं बदला.’

लखनऊ में जिस कार्यक्रम में इन दलितों को शामिल होना था, वहाँ से पूर्व आईजी एसआर दारापुरी को अरेस्ट कर लिया गया. उनके सहयोगी कुलदीप बौद्ध कई बार फ़ोन कर घटनाओं का अपडेट देने में लगे रहे. पुलिस द्वारा छोड़े जाने के बाद उन्होंने कहा कि हम मीडिया संवाद की योजना बना रहे थे और पकड़ लिए गये. क्या मीडिया से संवाद भी अपराध की श्रेणी में हैं?

गुजरात के दिनेश सोलंकी अरेस्ट किये जाने के सन्दर्भ में लगातार मुखातिब हैं. वह कहते हैं 'हमने क्या गुनाह किया है? हम सामाजिक कार्यकर्ता हैं. अन्याय के खिलाफ बोल रहे हैं. सरकार और पुलिस को तो क्राइम करने वाले लोगों को पकड़ना चाहिए. ऐसा ही रहा तो बीजेपी की सरकार आने वाले दिनों में उसी तरह साफ हो जाएगी जैसे साबुन से कपड़े साफ होते हैं.

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