मुंबई में रहने वाले पत्रकार-कवि फिरोज खान की कविताएं
डर की कविताएं
(1) पुलिस
सपनों में अक्सर पुलिस आती है
महीनों से
नहीं, नहीं... शायद सालों से
घसीट कर ले जा रही होती है पुलिस
धकेल देती है एक संकरी कोठरी में
और जैसे ही फटकारती है डंडा
मैं चीख पड़ता हूं
जाग कर उठते हुए
कब से जारी है यह सिलसिला
मां के खुरदरे और ठंडे हाथ
हथकड़ी से लगते थे उस वक्त माथे पर
सर्दियों में भी माथे की नमी से जान गया था कि
डर का रंग गीला और गरम होता है
जलता हुआ चिपचिपा रंग
सपना देखा कोई?
मां पूछती तो अनसुना कर
टेबुल पर रखी घड़ी की ओर लपकता
दादी कहती थीं कि भोर के सपने सच होते हैं
मां से कहता था कि मेरे ऊपर हाथ रखके सोया करो
रथ परेशान करते हैं मुझे
मां कहती थी कि टीवी पर महाभारत मत देखा करो
अब मैं मां को कैसे समझाता कि
रथ में मुझे अर्जुन नहीं दिखते
कृष्ण के हाथ लगाम नहीं होती रथ की
पुलिस दिखती है
जहां-जहां से गुजरता है रथ
पुलिस ही पुलिस होती है चारों ओर
मेरी तरफ दौड़ती है
नाम पूछती है और दबोच लेती है मुझे
(2)
रीना को भ्रम हो गया है कि
बहुत प्यार करता हूं मैं उन्हें
हमेशा सोता हूं उन्हें बाहों में समेटकर
अब कैसे बताऊं कि डरता हूं मैं
इस डर में कोई कैसे प्यार कर सकता है
(3)
अकेला हूं इन दिनों
नहीं, नहीं
सपनों के डर के साथ हूं
घर के दरवाजे से नेम प्लेट हटा दी है मैंने
घर में कोई कैलेंडर भी नहीं
सारे निशान मिटा दिए हैं
मेरे नाम को साबित करने वाले
फिर भी आती है पुलिस
सपनों में बार-बार
कई रोज हुए, मैं सोया नहीं हूं
(4)
डर का रंग सफेद होता हैं
नहीं, नहीं! भूरा होता है
बड़े-बूढ़ों से यही सुना था मैंने
लेकिन मेरे घर में तो कई रंगों में मौजूद है डर
कल रात की बात है
जब किसी ने जोर-जोर से पीटा था दरवाजा
मैं समझ गया था
डर खाकी रंग में आया है
फासिस्ट
(1)
जब बच्चे दम तोड़ रहे थे सरकारी अस्पतालों में
या कि मसला जा रहा था उनका बचपन वातानुकूलित स्कूलों में
स्कूल तिजारत की मंडियों में तब्दील हो रहे थे जब
जब माएं रो रही थीं जार-जार
अपने फूल से बच्चों के लिए
तब वो अट्टाहास कर रहा था
जब वो मुस्कुराता था
तो डर जाते थे कितने ही लोग
सहम जाते थे अपने ही घरों में घुसते हुए
सहमे हुए ये लोग इन दिनों
बदल रहे हैं अपना जायका
ये लोग जिनकी रसोइयों में घुस गया है कोई दादरी
जिनके सीनों पर जम गई है मनों बर्फ
और जिनके घरों के ऊपर सदियों नहीं उगता कोई सूरज
ये लोग इन दिनों
आपस में भी कम बोलते हैं
(2)
वो बोलता है तो कमल खिलते हैं
हाथ हिलाता है तो हिल जाती हैं दिशाओं की कोरें
वो चलता है तो चल पड़ते हैं मुल्क तमाम
उसे गुमान है कि ऐसा हो रहा है
उसे गुमान है कि वो खुदा होने को है
वो अपने भाषणों में अक्सर रोता भी है
जहां गिरते हैं उसके आंसू
वहां फिर कभी घास नहीं उगती
(3)
युद्ध के खिलाफ एक कविता
भले मुझे निष्कासित कर दो
इस मुल्क, इस दुनिया-जहान से
लेकिन मैं एक अपराध करना चाहता हूं
मैं चाहता हूं
बगैर हथियारों वाली एक दुनिया
मैं चाहता हूं
हजरत नूह की तरह मैं भी एक नाव बनाऊं
दुनिया के तमाम हथियार भर दूं उसमें
और बहा दूं किसी बरमूड़ा ट्राइंगल की जानिब
मैं बेदखल कर देना चाहता हूं
दुनियाभर की तमाम पुलिस फोर्स को
छीन लेना चाहता हूं फौजियों के मेडल
जो सरहदों पर किन्हीं के खून का हिसाब हैं
मैं सरहदों को मिटा देना चाहता हूं
या कि वहां बिठा देना चाहता हूं
फौजियों की जगह दीवानों को
मीरा को, सूर, कबीर, खुसरो, फरीद, मीर, गालिब, फैज, जालिब और निदा को
इतिहास की किताबों से पोंछ देना चाहता हूं
जीत की गाथाएं
हार की बेचैनियां
ध्वस्त कर देना चाहता हूं
किलों, महलों में टंके जंग के प्रतीक चिन्ह
संग्रहालयों में रखे हथियारों की जगह रख देना चाहता हूं
दुनियाभर के प्रेमपत्र
मैं लौट जाना चाहता हूं हजारों साल पीछे
और मिटा देना चाहता हूं
तमाम धर्मग्रंथों से युद्ध के किस्से
छीन लेना चाहता हूं राम के हाथ से धनुष
राजाओं, शहंशाहों के हाथ से तलवार
मिटा देना चाहता हूं
कर्बला की इबारत
मैं कुरुक्षेत्र, कर्बला और तमाम युद्धस्थलों को लिख देना चाहता हूं
खेल के मैदान
मैं कविताओं से सोख लेना चाहता हूं वीर रस
एक कप चाय के बदले सूरज की तपिश को दे देना चाहता हूं
तमाम डिक्शनरियों के हिंसक शब्द
हिंसा के खिलाफ कहे और लिखे गए मैं अपने हिंसक शब्दों के लिए माफी चाहता हूं
राजेन्द्र यादव की याद में मर्सिया
जो अब चला गया तो अफसोस क्यों है
किसलिए ये मर्सिये
गमज़दा हो किसलिए
तुम्हारी महफिल में था जो बैठा
शाम ढलते, रात होते
तुम्हारे ताने, तुम्हारे फिकरे
सुन रहा था वो सब मुस्कुराके
हजार उंगलियां थीं उसकी जानिब
काले चश्मे की जिल्द से वो
यूं देखता था कि कुछ कहेगा
उतरते चांद तक जो था साथ तुम्हारे
भोर होने से पहले उठा अचानक
सोचा कि कहे 'ये सभा बर्खास्त होती है'
फिर ये सोचकर चुपचाप चल दिया होगा
कि फैसले हाकिम सुनाते हैं
इस बीच टूटा होगा कोई तारा
और टूटती सांसों के बीच शायद कहा होगा उसने
'इस महफिल को रखना आबाद साथी'
या फिर
कहते-कहते वो रुक गया होगा
क्योंकि फैसले हाकिम सुनाते हैं
एक कविता बेटी शीरीं के नाम
(1)
मेरी आंखों का अधूरा ख्वाब हो तुम
आंधी नींद का टूटा हुआ सा ख्वाब
मेरे लिए तो तुम वैसे ही आई
जैसे मजलूमों की दुआएं सुनकर
सदियों के बाद आए
पैगम्बर
या कि मथुरा की उस जेल में
एक बेबस मां की कोख
में पलता एक सपना
पैवस्त हुआ हो
मुक्ति के इंतजार में
मैं जानता हूं कि
तुम्हारे पास न कोई छड़ी है पैगम्बरी
और न ही कोई सुदर्शन चक्र
दुनिया के लिए
तुम होगी सिर्फ एक औरत
एक देह
और होंगी
नि्शाना साधतीं कुछ नजरें
तुम्हारे आने की खुशी है बहुत
दुख नहीं, डर है
कि पैगम्बर के बंदे अब
ठंडा गोश्त नहीं खाते
(2)
मैंने देखा
तुम आई हो
आई हो तो खुशआमदीद
आधी दुनिया तुम्हारी है
जबकि मैं जानता हूं कि
इस आधी दुनिया के लिए
तुम्हें लड़ना होगी पूरी एक लड़ाई
तुम्हारी इस आधी दुनिया
और मेरी आधी दुनिया का सच
नहीं हो सकता एक
तुम आई हो तब
जबकि खतों के अल्फाज़
दिखते हैं कुछ उदास
कागज पर नहीं दिखता
चेहरा
हंसता, उदास, गमगीन या कि इंतजार में
पथराई हुई आंखें लिए
आई हो तो खुशआमदीद
लेकिन तब आई हो
जबकि नहीं खुलते दरवाजे कई
एक आंगन में
नहीं लौटते परिंदे किसी पेड़ पर
पेड़ इंतजार में हुआ जाता है बूढ़ा
मेरा समय
तुम्हारे समय से बेहतर है
यह न मैं जानता हूं
और न तुम बता पाओगी लेकिन
मैंने सुना है
जमीन पर
तीन हिस्सा पानी है और
सुना तो यह भी है कि
आदमी भी
तीन हिस्सा पानी ही तो है
अपनी आंखों का पानी
बचाए रखना तुम
तुम आई हो तो खुशआमदीद