क्योंकि सांप के फन उठाने पर मैं उसे कुचलना भी जानता हूं

Update: 2018-11-25 14:40 GMT

युवा कवि संदीप सिंह की कविता 'मैं भी किसान हूं'

मैं नहीं मारता सांप को

निकलने देता हूँ चुपचाप

यह जानते हुए भी

किसी दिन खड़ा हो सकता

फन तानकर रास्ते में

किसान का बेटा हूं ना

दयाभाव सीख लेता हूँ बचपन से

मैं परेशान भी होता हूं

मैं हैरान भी होता हूं

जब किसानों की बात होती है

मैं उसमें कहीं नहीं होता

जबकि मैं भी

रात बारह बजे उठकर

पानी लगाता हूं खेतों में

मैं भी फसलों की कटाई करता हूँ

मैं भी खाना छोड़कर भागता हूं खेतों की ओर

आवारा पशुओं के घूसने पर

पूस की रात में

मुझे भी सर्दी लगती है

मेरी भी नाक बहती है

इस सबके बाद

मुझे दो शब्दों से नवाजा जाता है

कोई मुझे दलित कहता है

कोई सर्वहारा कहकर पल्ला झाड़ लेता है

कोई नहीं पूछता

मैं क्या कहलाना पसंद करता हूँ।

जब सरकारें

किसानों के लिए घोषणा करती हैं

जब यूनियनें किसानों के लिए मांग रखती हैं

मैं दोनों जगह गायब रहता हूँ

बैंकों से मुझे कर्ज मिलता नहीं

जमीन जोतने वालों की हो

कोई मांग पर लड़ता नहीं

आखिर हूं तो मैं किसान ही

एक सच्चा किसान

जिसके पास आमदनी का

कोई दूसरा तरीका नहीं।

मैं गिड़गिड़ाता हूं

कर्ज के लिए

सूदखोरों के दरवाजे पर

बुखार जैसी छोटी बिमारी के लिए

मुझे जब भी कर्ज दिया

सूदखोरों ने अपनी शर्तों पर दिया

उन्हीं का परिणाम है

बही खातों में लगे अंगूठों के निशान

कभी नहीं मिट सके

मेरे भाई बंधुओं ने भी

कर्ज के जंजाल में फंसकर

आत्महत्याएं की हैं

जिन पर सरकार और यूनियनें चुप हैं।

मैं जानना चाहता हूँ

राम के पास दो एकड़ अपनी जमीन है

मैं चार एकड़ ठेके पर लेता हूँ

राम भी उसी सेठ का कर्जदार है

जिसकी उधारी मैं भी चुकाता हूं

फिर वह मुझसे नफरत क्यों करता है?

मैं हमेशा लडा हूं

भूख से, प्यास से

धूप से, छांव से

घृणित जातिव्यवस्था से

मेरा लडाकूपन मेरे पूर्वजों की देन है

मैं अब भी लडूंगा

घृणित जातीय मानसिकता के खिलाफ ही नहीं

अपनी जमीन के लिए भी लडूंगा

और इस लड़ाई को

एक निर्णायक

लड़ाई में तब्दील कर दूंगा

क्योंकि सांप के फन उठाने पर

मैं उसे कुचलना भी जानता हूँ।

इसे आप कट्टरता कह सकते हैं

लेकिन यह मेरा दयाभाव ही है

कि मैं

मेहनतकशों को

सम्मान और इज्जत के साथ

जिंदगी जीते देखना चाहता हूँ।

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