यूपी में जो भी जीता पंचायत अध्यक्ष चुनाव, वह विधानसभा में बुरी तरह हारा
त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में जिला पंचायत सदस्य के 3050 पदों के लिए चुनाव हुआ था। इसमें से सपा को 747, बीजेपी को 666, बसपा को 322, कांग्रेस को 77 और आम आदमी पार्टी को 64 सीटें मिली। 1100 से ज्यादा सीटें निर्दलीयों व अन्य के खाते में आई हैं....
जितेंद्र उपाध्याय की रिपोर्ट
जनज्वार। उत्तर प्रदेश में शनिवार को जिला पंचायत अध्यक्ष पद के चुनाव में भाजपा ने अपना परचम लहरा दिया है। भाजपा के 21 प्रत्याशी पहले ही निर्विरोध जीते थे और 53 पदों पर मतदान के बाद आए परिणाम में बीजेपी को 44 जिलों में जीत मिली है। यह परिणाम भाजपा के लिए भले ही उत्साहजनक हो पर इस जीत हार का अब तक एक निराशाजनक पहलू भी रहा है। सत्ताधारी दल का हर बार जहां तक दबा रहा उसके बाद विधानसभा चुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ा है। सात माह बाद यूपी में विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में एक बार फिर क्या पुरानी परंपराएं दोहराई जाएंगी या भाजपा इस मिथक को तोड़ने में कामयाब रहेगी यह चर्चा का विषय बना हुआ है।
भाजपा ने 53 जिलों में हुए मतदान में बेहतरीन जीत दर्ज की। भाजपा को एटा, संतकबीरनगर, आजमगढ़, बलिया, बागपत, जौनपुर और प्रतापगढ़ में छोड़कर अन्य 44 जिलों में जीत मिली है। 75 जिलों में से भाजपा को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 14 जिलों में से 13 में, बृज क्षेत्र के 12 जिलों में 11, कानपुर क्षेत्र के 14 जिलों में 13, अवध क्षेत्र के 13 जिलों में 13, काशी क्षेत्र के 12 जिलों में दस तथा गोरखपुर क्षेत्र के 10 जिलों में से सात में जीत मिली है।
इसके साथ ही भाजपा के साथ गठबंधन करने वाली अपना दल (एस) को भी दो में से एक सीट पर जीत मिली है। जौनपुर में बाहुबली बसपा के पूर्व सांसद धनंजय सिंह की पत्नी श्रीकला सिंह को जीत मिली है। इसके साथ ही समाजवादी पार्टी ने बलिया व आजमगढ़, रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया का दबदबा प्रतापगढ़ में कायम है। उनकी पार्टी जनसत्ता दल ने खाता खोला तो बागपत में रालोद ने तमाम उठापटक के बाद भी जीत दर्ज करने में सफलता प्राप्त की।
जिला पंचायत सदस्य के चुनाव में भाजपा को मिली थी निराशा
त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में जिला पंचायत सदस्य के 3050 पदों के लिए चुनाव हुआ था। इसमें से सपा को 747, बीजेपी को 666, बसपा को 322, कांग्रेस को 77 और आम आदमी पार्टी को 64 सीटें मिली। 1100 से ज्यादा सीटें निर्दलीयों व अन्य के खाते में आई हैं। यूपी पंचायत चुनाव में सपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। बसपा और कांग्रेस क्रमश: तीसरे व चौथे नंबर पर रहे। प्रधानमंत्री के गढ़ वाराणसी में बीजेपी को बड़ा झटका लगा । जिला पंचायत की 40 सीटों में से बीजेपी के खाते में आए महज 8 सीटें आईं हैं। वहीं 14 सीटों पर समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी जीते हैं।
वहीं बसपा ने 5,अपना दल एस को 3 सुभासपा और आमआदमी पार्टी को 1 सीट मिली है। वहीं 3 निर्दल प्रत्याशी भी चुनाव जीते हैं। बुलंदशहर में हुए जिला पंचायत चुनाव में भाजपा के महज़ 10 प्रत्याशियों ने दर्ज कराई जीत। 52 जिला पंचायत के वार्डों में सिर्फ 10 वार्डों पर मिली भाजपा उम्मीदवारों को जीत। 42 जिला पंचायत वार्डों पर मिली भाजपा उमीदवारों को शिकस्त। भाजपा प्रत्याशियों को निर्दलीय, सपा, बसपा और रालोद कंडिडेट्स ने हराया।अयोध्या में समाजवादी पार्टी की शानदार जीत मिली थी। 40 में से 24 सीटें उनके खाते में गईं। बीजेपी को बस 6 सीटें मिली। मायावती की पार्टी ने 5 पर जीत दर्ज की।
सत्ताधारी दल के खाते में हर बार निर्विरोध जीत के साथ उसका रहा है दबदबा
अखिलेश यादव की सरकार में 2016 के पंचायत चुनाव के नतीजे पर गोर करें तो इन्हें सर्वाधिक सीटों पर जीत मिली थी। जिला पंचायतों की लिस्ट में फैजाबाद, फिरोजाबाद, गोंडा, कानपुर देहात, भदोही, संतकबीर नगर, जालौन, बस्ती, अमरोहा, इटावा, बाराबंकी, श्रावस्ती, एटा, महोबा, देवरिया, कानपुर नगर, बलिया, गाजीपुर, सिद्धार्थ नगर, सहारनपुर, अमेठी, ललितपुर, मऊ, चित्रकूट, बदायूं, हरदोई, बागपत, हमीरपुर, झांसी, मैनपुरी, बहराइच, गाजियाबाद, संभल, आजमगढ़, लखनऊ, लखीमपुर खीरी और बुलंदशहर की 36 सीट पर निर्विरोध सपा जीत मिली थी।सपा सत्ता में रहते हुए यूपी के 75 जिलों में से 63 जिलों में अपने जिला पंचायत अध्यक्ष जिताने में सफल रही थी। इसके बाद भी 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा।
प्रदेश की सत्ता में मायावती साल 2007 से 2012 तक कुर्सी पर रही। मायावती सरकार के दौरान 2010 में जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव हुए थे। जिनमें कुल 72 जिलों में से 20 जिला पंचायत अध्यक्ष निर्विरोध जीत दर्ज किए थे। निर्विरोध जीत दर्ज करने वाले ज्यादातर बसपा के समर्थक थे। बसपा सरकार के दौरान मेरठ, नोएडा, बुलंदशहर, बिजनौर, अमरोहा, रामपुर, गाजियाबाद, कासगंज, महोबा, हमीरपुर, बांदा, कौशांबी, उन्नाव, लखनऊ, सीतापुर, लखीमपुर खीरी, श्रावस्ती, बलरामपुर, चंदौली और वाराणसी में निर्विरोध जिला पंचायत अध्यक्ष चुने गए थे।
इतना ही नहीं बसपा ने 2010 के जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव में करीब 50 जिलों में अपना कब्जा जमाया था। बीएसपी को 20 सीटों पर निर्विरोध जीत मिली थी।इन सबके बावजूद 2012 में मायावती को हार का सामना करना पड़ा। 1995 में सपा और बसपा के गठबंधन भी जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव के चलते ही टूटा था।
उत्तर प्रदेश की सत्ता में जो भी पार्टी रहती है, उसके समर्थकों का जिला पंचायत अध्यक्ष बनना आसान होता है। यह सियासी खेल जब से सूबे में जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव हो रहा है तब से हो रहा है। सपा से लेकर बसपा तक मौजूदा योगी सरकार पर जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव में बीजेपी के जीत हासिल करने के लिए साम-दाम-दंड-भेद अपनाने का आरोप लगा रहे थे। हालांकि, तीनों ही सरकारों में सत्ताधारी पार्टियों ने अपने समर्थकों को निर्विरोध चुनाव जीताने के लिए हरसंभव कोशिश किए है।
दूसरी तरफ हाल यह कि पिछले तीन चुनाव में इसे जीतने वाली पार्टियों को विधानसभा के चुनाव में मुंह की खानी पड़ी। साल 2010 में मायावती के नेतृत्व वाली बसपा की सरकार यूपी में थी। 20 सीटों पर निर्विरोध जीत के साथ करीब 60 सीटों पर बसपा के अध्यक्ष जीते थे। दो साल के भीतर 2012 में विधानसभा के चुनाव हुए और पहली बार पूर्ण बहुमत की बनी बसपा सरकार धराशायी हो गयी। सरकार बनी सपा की जिसके सबसे कम अध्यक्ष जीते थे।
अब अखिलेश सरकार का हाल देखिये। 2016 में 37 निर्विरोध के साथ कुल 60 सीटों पर सपा के अध्यक्ष जीते थे। अगले ही साल 2017 में विधानसभा के चुनाव हुए। पूर्ण बहुमत की बनी अखिलेश सरकार भी सत्ता से बाहर हो गयी। सरकार बनी भाजपा की जिसके सबसे कम अध्यक्ष जीते थे। इस बार भाजपा सत्ता में है और उसे प्रचण्ड बहुमत हासिल है। अब सवाल ये उठता है कि क्या पंचायत में जीत के बाद विधानसभा में हार का मिथक भाजपा तोड़ पायेगी? इसका जवाब तो अगले साल होने वाले चुनाव के बाद ही पता चलेगा, लेकिन इसकी चर्चा अभी से शुरु हो गई है। पार्टियों का लक्ष्य जिला पंचायत अध्यक्ष ज्यादा से ज्यादा बनवाना तो रहता नहीं है। उनका का लक्ष्य तो सूबे की सत्ता पर काबिज होना होता है।
विधानसभा चुनाव से ठिक पहले किसी दूसरे चुनाव में जीत का ढ़िंढ़ोरा पीटकर अपने पक्ष में माहौल बनाना आसान हो जाता है। किसी भी दो चुनाव के नतीजे एक जैसे नहीं हो सकते।अलग- अलग चुनाव में न सिर्फ मुद्दे अलग – अलग होते हैं बल्कि वोटिंग पैटर्न भी अलग होता है। विधानसभा में बंपर जीतकर आने वाली पार्टी लोकसभा के उपचुनाव हार जाती है।इसलिए पंचायत चुनाव के नतीजे विधानसभा के नतीजों को प्रभावित करेंगे, ऐसा दिखता नहीं है।
कोरोना लहर के चलते पूर्वांचल व मध्य यूपी में तो किसान आंदोलन की वजह से पश्चिमी यूपी में भाजपा को उम्मीद से विपरीत रिजल्ट देखने पड़े हैं। वाराणसी में भी उसे समाजवादी पार्टी ने पीछे छोड़ दिया है।काशी, मथुरा और अयोध्या में भी भाजपा को हार झेलनी पड़ी है। अब भाजपा भले विधानसभा चुनाव के पूर्व जिला पंचायत अध्यक्षों की कुर्सी पर कब्जा कर सेमीफाइनल में जीत बता रही हो पर अब तक की पर परीपाटी अगर दोहराई गई तो आने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा के लिए जीत की बारी को बरकरार रखना मुश्किल होगा।