पहाड़ी राज्य उत्तराखण्ड में मुख्यमंत्रियों का ढेर बढ़ते-बढ़ते पहाड़ बनने वाला है!
उत्तराखंड में राजनीति शास्त्र की नयी परिभाषा गढ़ी गयी है कि मुख्यमंत्री के विफल सिद्ध होने पर भी मंत्री विफल नहीं माने जाते! इसलिए मुख्यमंत्री हटते रहते हैं, मंत्री जमे रहते हैं...
सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता इंद्रेश मैखुरी की टिप्पणी
तो साहिबान उत्तराखंड में मंत्रालयों का साढ़े चार साल में तीसरी बार बंटवारा हो गया है। अखबार बता रहे हैं कि कुछ मंत्री भारी हो गए हैं। सालोंसाल मंत्री रहते हुए शारीरिक भार तो उन सबों का पहले ही बहुत है। उत्तराखंड पर जो भार है, सो अलग!
अखबार वाले लिख रहे हैं कि असंतुष्टों को अहम महकमे दिये गए हैं यानी असंतुष्टों का अहम तुष्ट करने की कोशिश है। यह भी कमाल है कि व्यक्ति साढ़े चार साल में तीसरी बार मंत्री पद की शपथ ले रहा है और फिर भी असंतुष्ट है! वैसे अहम विभाग से ऐसा लगता है कि कुछ मंत्रालय ऐसे हैं कि जो अहम नहीं हैं ! जब वो अहम नहीं हैं तो वे हैं क्यों?
दरअसल, यह शब्दावली का हेरफेर है। पहले इन्हें कहा जाता था-मलाईदार विभाग यानी खाने-कमाने के विभाग! जो मंत्री हैं, उनकी असंतुष्टि को तुष्ट करने के लिए विभागों की यह मलाई अर्पित करनी पड़ती है। सालोंसाल मंत्री रहने के बाद इनको मलाई भी कम पड़ रही है और आम उत्तराखंडी के हिस्से तो छांच भी नहीं है! वह मलाईदार विभाग पाने वालों को मलाई की बधाई देने में ही अपना पेट भरा समझ रहा है- अलाने जी को पुनः कैबिनेट मंत्री बनने की बधाई, फलाने जी को फलाने विभाग का मंत्री बनने की बधाई!
मंत्रालय की इस मलाई प्राप्ति के बाद करना क्या है, मलाई उड़ानी है, माला पहननी है, फोटो खिंचवानी है और क्या! अभी कुछ दिन पहले तो एक मंत्री जी अफसरों को धमका रहे थे कि अवैध वसूली हो रही है, रुकवाइए। अफसर कह रहे हैं- हाँ सर हो रही है! बेचारे अफसर ये तो कह नहीं सकते थे कि किसकी खातिर हो रही है?
एक मंत्री हैं, जो अपने विभाग के अफसरों से लड़ना ही अपना प्राथमिक उत्तरदायित्व समझती हैं, इसलिए आए दिन वे यहां-वहां-जहां-तहां अफसरों से भिड़ी रहती हैं।
एक मंत्री जी के बारे में कहा जाता है कि वे महीनों तक विभाग के सचिव से नहीं मिले, क्योंकि सचिव अंग्रेजी बोलता था और मंत्री जी के लिए तो अंग्रेजी का काला अक्षर भैंस बराबर है!उत्तराखंड की राजनीति क्या कमाल है। सरकार चाहे प्रचंड बहुमत की है या कम बहुमत की, एक बात की यहां गारंटी है कि मुख्यमंत्री पाँच साल नहीं चलेगा। चार साल में बदलना पड़े या चार महीने में, लेकिन बदलेगा जरूर! मुख्यमंत्री रोज भी बदलें पर मंत्री वही रहेंगे! दो-चार बढ़ ही जाएँगे पर कम न होंगे! अब तो यह हालत हो गयी है कि इस पार्टी की सरकार में भी वही और उस पार्टी की सरकार में भी वही! मुख्यमंत्री की कुर्सी हमेशा अस्थिर और मंत्रियो की कुर्सी मजाल है कि कोई हिला दे!
कर-धरते मंत्री क्या हैं, वह तो ऊपर बताया ही जा चुका है। पाँच साल में कई बार शपथ लेते रहते हैं, समय-समय पर असंतुष्ट होते रहते हैं, उस अनुपात में बढ़ी हुई मलाई पाते रहते हैं! इसके बावजूद कुर्सी पर फेविकोल के मजबूत जोड़ की तरह चिपके रहते हैं! मुख्यमंत्री मलाई बांटता रहता है, अंसतुष्टों को भी, हाइकमान को भी और जिसकी मलाई का हिस्सा जरा कम हुआ या समय पर नहीं पहुंचा, वो उसकी कुर्सी हिला देता है।
राजनीति शास्त्र कहता है कि मंत्रिमंडल सामूहिक उत्तरदायित्व से चलता है यानी सफलता-असफलता मुख्यमंत्री और अन्य मंत्रियों की सामूहिक ज़िम्मेदारी है। उत्तराखंड में राजनीति शास्त्र की नयी परिभाषा गढ़ी गयी है कि मुख्यमंत्री के विफल सिद्ध होने पर भी मंत्री विफल नहीं माने जाते! इसलिए मुख्यमंत्री हटते रहते हैं, मंत्री जमे रहते हैं।
चूंकि सब कुछ दिल्ली वाला आलाकमान तय कर रहा है तो सवाल तो उस आलाकमान के सही व्यक्ति चुनने की क्षमता पर भी है। उस आलाकमान के कमान से जो भी मुख्यमंत्री रूपी तीर निकलता है, वह कुछ ही दिन में भोथरा सिद्ध होता है, लेकिन मंत्री बिल्कुल पैने, धारधार बने रहते हैं। ऐसा लगता है कि उनको लेकर कहीं कोई शिकायत नहीं, कोई असंतोष नहीं!
तो भाई आलाकमान, तुम ये मुख्यमंत्री बनाते ही क्यूँ हो! ऐसा करो कि केवल मंत्री बनाओ, चलाना जब दिल्ली के रिमोट कंट्रोल से ही है तो फिर तुम ही इन मंत्रियों को चलाओ। जरा चूँ-चपड़ करने लगें तो इनको विजिलेंस, ईडी, सीबीआई का भय दिखाकर इनका मुंह बंद करो। तब कम से कम मुख्यमंत्रियों का ढेर तो इतना बड़ा नहीं होगा! वरना तो इस पहाड़ी राज्य में मुख्यमंत्रियों का ढेर बढ़ते-बढ़ते पहाड़ बनने वाला है!
(इंद्रेश मैखुरी का यह लेख पहले नुक्ता-ए-नजर पर प्रकाशित)