सड़कें खाली कर संसद में इज्जत से नहीं रह पाएगा विपक्ष, दानिश अली के साथ जो हुआ उससे भी ज्यादा की संभावना

दिल्ली से भाजपा के सांसद रमेश बिधूड़ी ने जो बदतमीजी की, जिस तरह की बेगैरत भाषा बोली और असंदीय भाषा की सभी सीमाएं लांघ दीं, उसको सुनकर सिर्फ शर्मिंदा और गुस्सा होने की बात नहीं है, बल्कि इस तरह की भाषा बोलते वक्त चौराहे पर लोग एक दूसरे को भयंकर तरीके से कूट देते हैं गोलियां मार देते हैं, जान ले लेते हैं....

Update: 2023-09-23 04:45 GMT

संसद में भाजपा सांसद रमेश बिधूड़ी ने जिस तरह की अमर्यादित भाषा का प्रयोग मुस्लिम सांसद दानिश अली के लिए किया वह शर्मनाक है, घटना के बाद राहुल गांधी ने की दानिश से मुलाकात

अजय प्रकाश की त्वरित टिप्पणी

संसद में जो कुछ भी हुआ, वह लड़ाई मूलतः विचार की लड़ाई है। विचार की ताकत जैसे-जैसे कमजोर होगी, सड़क और संसद दोनों खाली होते जाएंगे। इसकी भरपाई का तरीका वैचारिक मजबूती और राजनीतिक तैयारी के साथ सत्ता हासिल करना ही है। हो सकता है कि आने वाले दिनों में कोई सांसद किसी दूसरे सांसद को पटक कर संसद में पीट दे। यह कोई नई बात नहीं होगी, सिर्फ इतना ही होगा कि विपक्ष के लोग और समर्थक जनता हाय तौबा मचाएगी और वह संसद की परंपराओं उसके चलन और उसके इतिहास के दुहाई देंगे।

लेकिन वह भी अंतरात्मा की गहराई में जब झांकेंगे तो उन्हें भी एहसास होगा कि राजनीतिक लड़ाइयों में नैतिकता का कोई भी स्थान नहीं होता है। नैतिकताएं परिवार और रिश्तेदारी मित्रता दोस्ती में होती हैं, राजनीति में हमेशा ही ताकत और सत्ता के मद में मदमस्त जुबान होती है।

दानिश अली के साथ संसद में जो हुआ उस पर वह कहते हैं, 'क्या RSS की शाखाओं और नरेंद्र मोदी जी की प्रयोगशाला में यही सिखाया जाता है? आपका कैडर जब एक चुने हुए सांसद को भरी संसद में आतंकवादी, उग्रवादी, मुल्ले…जैसे शब्दों से अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ता तो वो आम मुसलमानों के साथ क्या करता होगा? यह सोच कर भी रूह काँप जाती है।'

दिल्ली से भाजपा के सांसद रमेश बिधूड़ी ने जो बदतमीजी की, जिस तरह की बेगैरत भाषा बोली और असंदीय भाषा की सभी सीमाएं लांघ दीं, उसको सुनकर सिर्फ शर्मिंदा और गुस्सा होने की बात नहीं है, बल्कि इस तरह की भाषा बोलते वक्त चौराहे पर लोग एक दूसरे को भयंकर तरीके से कूट देते हैं गोलियां मार देते हैं, जान ले लेते हैं।

संसद में रमेश बिधूड़ी बसपा के मुस्लिम सांसद के लिए अमर्यादित भाषा प्रयोग करते हुए बोल रहे थे, 'ओए! ओए उग्रवादी, ऐ उग्रवादी बीच में मत बोलना, ये आतंकवादी-उग्रवादी है, ये मुल्ला आतंकवादी है... इसकी बात नोट करते रहना अभी बाहर देखूंगा इस मुल्ले को।'

अगर संसद में ऐसी भाषा पर कत्ल नहीं किया जा सकता तो इसका मतलब होता है कि संसद में ऐसी भाषा बोली भी नहीं जा सकती, लेकिन आज के दौर में जब प्रधानमंत्री के इशारे पर गृह मंत्री की हंसी के बीच, इस तरह की भाषा, किसी मुस्लिम अल्पसंख्यक संसद के लिए बोली जाती है तो इसका मतलब है कि उन्होंने मानसिक और वैचारिक रूप से तय कर लिया है कि हर स्तर पर वह अल्पसंख्यक समुदाय को दूसरे स्तर का नागरिक साबित करेंगे।

ऐसे में यह वक्त सिर्फ अफसोस करने का नहीं है, वैसे भी राजनीति में अफसोस क्या कोई स्थान नहीं है! राजनीति में जनता की संगठित ताकत होती है और उसी की तूती बोलती है। आज के समय में गांधी के नारे के अनुसार करो या मरो की स्थिति है, डू और डाई के राजनीतिक हालात हमारे सामने हैं।

जो पार्टियां और जिनके नेता इस मानसिक स्थिति में नहीं हैं, वह राजनीतिक वितान के पूरे परिदृश्य से आने वाले वर्षों में गायब हो जाएंगे। वही बचेंगे जो रीढ़ के साथ राजनीतिक और वैचारिक दुश्मनों से टक्कर लेने को तैयार होंगे। भारतीय राजनीति का इतिहास देखें तो अलग-अलग वक्त में अलग-अलग राजनीतिक रणनीतियां रही हैं।

1974 से 77 के बीच अगर समाजवादी और वामपंथी सोच के लोगों ने कांग्रेस से आर-पार की टक्कर का संकल्प नहीं लिया होता तो आज भारत संभव है तानाशाही के किसी युग में जी रहा होता। ठीक उसी तरह आज 2023 में यह वक्त है, जब आपको गांठ बांधनी होगी कि विचारधारा की लड़ाई को जन-जन तक ले जाना होगा और सरकार द्वारा भ्रमित किए जाने वाले मसलों का खुलासा करना होगा। लोगों को आंदोलन के इतिहास और संघर्षों के वर्तमान से जोड़ना होगा।

बेतहाशा महंगाई, न्यूनतम रोजगार, स्वास्थ्य का अभाव, प्रशासनिक अराजकता और पुलिसिया गुंडागर्दी के खिलाफ और व्यापक स्तर पर जनता में संदेश पहुंचाना होगा कि देश में आसन्न संकट पैदा हो गया है। और सबसे बड़ी बात इसके लिए खुद को आहूत करने की मानसिक तैयारी रखनी होगी, क्योंकि व्यापक समाज उसी विचारधारा और पार्टी के साथ खड़ा होता है जिसके नेता आज के संकट के समय खुद आगे बढ़कर कुर्बानी देने का जज्बा रखते हों, लोगों की लाठियां-गोलियां खाने को तैयार हों।

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