UP : विधानसभा की 110 सीटों पर किसान आंदोलन का कितना होगा असर, परेशान क्यों हैं मोदी-योगी?

पश्चिमी उत्तर प्रदेश को किसानों का गढ़ माना जाता है। वेस्ट यूपी की 110 से ज्यादा विधानसभा सीटों पर किसानों का प्रभाव जगजाहिर है। जानकार मानते हैं कि यूपी चुनाव की वजह से ही केंद्र सरकार तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने पर राजी हुई है। तय है इसका असर तो विधानसभा चुनावों पर दिखेगा ही।

Update: 2021-12-09 10:07 GMT

किसान आंदोलन का सियासी असर पर धीरेंद्र मिश्र का विश्लेषण 


नई दिल्ली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ( PM Narendra Modi ) ने 19 नवंबर की सुबह गुरु पर्व और कार्तिक पूर्णिमा के दिन कृषि कानूनों के वापसी की घोषणा की थी। ठीक 20 दिन बाद संयुक्त किसान मोर्चा ( SKM ) ने किसान आंदोलन ( Kisan Andolan ) वापसी की आज घोषणा कर दी। लेकिन इसका सियासी असर ( Political Impact ) काफी गहरा होगा। अब इस बात को लेकर सरगर्मी तेज है, कि किसानों यूपी सहित पांच राज्यों के चुनावों में किसके पक्ष में वोट करेंगे। क्या कृषि कानूनों की वापसी का लाभ भाजपा उठा पाएगी। हम आपको बतातें हैं वेस्ट यूपी की 110 विधानसभा सीटों ( West UP 110 assembly seats ) पर क्या है चुनावी जोड़-तोड़।

सबसे ज्यादा 403 विधानसभा सीट वाले उत्तर प्रदेश ( Uttar Pradesh ) के लिहाज से ये फैसला कितना बड़ा है?  क्या सच में आगामी विधानसभा चुनाव ( UP Election 2022 ) हो देखते हुए केंद्र सरकार ने कृषि कानून वापस लेने का फैसला लिया? चुनाव तो पांच राज्यों में है, फिर इस फैसले को उत्तर प्रदेश के चुनाव से ही जोड़कर क्यों देखा जा रहा? आखिर मोदी-योगी ( Why modi-Yogi upset ) इस बात को लेकर अपसेट क्यों हैं।

उत्तर प्रदेश की राजनीति में किसानों की भूमिका

बदल गई तस्वीर

उत्तर प्रदेश विधानसभा सीट और आबादी के हिसाब से देश का सबसे बड़ा राज्य है। इस राज्य की राजनीति के बारे में कहा जाता है कि यहां सत्ता का सूर्योदय पश्चिम से होता है। वही पश्चिम जो किसानों का गढ़ कहा जाता है। मजेदार बात यह भी है कि प्रदेश में आम चुनावों की शुरुआत अक्सर इसी पश्चिमी उत्तर प्रदेश होती है, जिसका असर पूरे प्रदेश में देखने को मिलता है। 2012 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने पश्चिमी यूपी की 110 में से केवल 38 सीटें हासिल की थीं और साल 2017 में उसकी सीटों की संख्या बढ़कर 88 तक पहुंच गई। जाहिर सी बात है कि बात जब 110 सीटों की हो तो कोई भी पार्टी उसे जीतने के लिए कोई भी दांव खेल सकती है। वर्ष 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों भी भाजपा ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में शानदार जीत दर्ज की थी। अब तस्वीर दूसरी है।

यूं ही नहीं मिला लिया अखिलेश ने जयंत से हाथ

वैसे भी, किसान आंदोलन का असर उत्तर प्रदेश में शुरू से ही कहीं दिखा तो वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश है। इसकी वजह यह भी है कि इस इलाके में ज्यादातर गन्ना किसान हैं। वे कृषि कानून के खिलाफ चल रहे आंदोलनों में शुरू से शामिल रहे। राजधानी दिल्ली में आंदोलन का नेतृत्व करने वाली भारतीय किसान यूनियन के नेत राकेश टिकैत और रालोद नेता जयंत चौधरी इस इलाके में ज्यादा प्रभावी हैं। इस वक्त राकेश टिकैत ने फ्रंट पर आकर तो जयंत ने पर्दे के पीछे से किसान आंदोलन का नेतृत्व भी किया है। इसी का जीता जागता सबूत है कि सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने आरएलडी से चुनावी गठबंधन किया है।

60 से 70 सीटों पर किसान करते हैं हार-जीत का फैसला

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कुछ नहीं तो 60 से 70 ऐसी विधानसभा सीटें हैं जिन पर गन्ना किसान हार-जीत तय करते हैं। चुनाव से ठीक पहले प्रदेश की योगी सरकार ने गन्ना की कीमतों में 25 रुपए प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी की दी। योगी सरकार में ये पहली बार ऐसा हुआ।

पंचायत चुनाव में बीजेपी केवल जीत पाई एक चौथाई सीटें

किसान आंदोलन शुरू होने के बाद यूपी में केवल जिला पंचायत चुनाव ही हुए हैं। प्रदेश में जिला पंचायत सदस्य की 3050 सीटें हैं। मई में हुए चुनाव में 759 सीटें सपा, 768 सीटें बीजेपी, 319 सीटें बसपा, 125 सीटें कांग्रेस, 69 सीटें रालोद और 64 सीटें आप ने जीती थीं। 944 सीटें निर्दलियों ने जीतीं। यानी कि बीजेपी केवल एक चौथाई सीटें ही जीत पाई थी। वेस्ट यूपी में हुए पंचायत चुनावों पर नजर डालेंगे तो किसान आंदोलन के असर को समझा जा सकता है। पश्चिम क्षेत्र में भाजपा के 14 जिला पंचायत अध्यक्ष हैं। इनमें 445 पंचायत सदस्य चुने जा सकते हैं, जिनमें भाजपा के महज 99 सदस्य ही हैं। पंचायत चुनावों के समय भाजपा के प्रत्याशियों को भारी विरोध का भी सामना करना पड़ा था। 14 सीटोंं में से से 7 सीटें मेरठ, बुलन्दशहर, गाजियाबाद, गौतमबुद्धनगर, मुरादाबाद, अमरोहा, सहारनपुर में निर्विरोध जीत हुई हैं। इन नतीजों को देखते हुए ही किसान संगठनों ने मिशन यूपी का ऐलान कर दिया था।

रालोद को मिला ​भारतीय किसान यूनियन का साथ

पंचायत चुनावों में सीधे मतदाताओं की ओर से चुने जाने वाले जिला पंचायत सदस्यों में राष्ट्रीय लोकदल को अच्छी खासी जीत मिली। इसकी वजह यह भी थी कि भारतीय किसान यूनियन का राष्ट्रीय लोकदल को समर्थन हासिल था। इस गठजोड़ पर भी भाजपा की नजर तो रही ही होगा। तय है कि केंद्र सरकार ने चुनाव को ध्यान में रखते हुए कृषि कानून भले ही वापस ले लिया, लेकिन इससे उन्हें बहुत ज्यादा फायदा नहीं होगा।

2013 में मुजफ्फरनगर दंगे का लाभ उठा ले गए थे मोदी

इसी तरह एक महापंचायत का आयोजन 2013 में 7 सितंबर को नंगला मंदौड़ इंटर कॉलेज के मैदान में आयोजित किया गया था। इस महापंचायत का भी आयोजन भारतीय किसान यूनियन ने किया था। तब पंचायत में भाजपा नेता भी शामिल थे। पंचायत से वापस लौटने वाले लोगों पर हमला हुआ, जिसके बाद पूरा मुजफ्फरनगर दंगे की चपेट में आ गया। कई लोगों को जान गई तो कई लोग बेघर हो गए। इस दंगे ने प्रदेश की राजनीति की दिशा और दशा को बदलकर दख दिया। इसका लाभ भाजपा मिला था। इसके कुछ महीनों बाद ही लोकसभा चुनाव थे। नरेंद्र मोदी ने 2 फरवरी 2014 को मेरठ में विजय शंखनाद रैली की जिसमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हजारों लोग शामिल हुए। तब मोदी के भाषण में केंद्र मुजफ्फरनगर दंगा ही था।

याद कीजिए राकेश टिकैत ने क्या कहा था?

भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत ने कहा था कि किसानों ने ही मिलकर उत्तर प्रदेश केंद्र में भाजपा की सरकार की बनवाई थी। अब उन्हीं की बात नहीं सुनी जा रही। ऐसे में प्रदेश से भाजपा की उल्टी गिनती पश्चिमी उत्तर प्रदेश से ही शुरू होगी। किसान अगर वोट देकर सरकार बनवा सकता है तो वोट के चोट से हरवा भी सकता है।

विपक्ष का दावा - चुनावों की वजह से झुकी मोदी सरकार

वहीं विपक्ष दलों के नेताओं का दावा है कि कृषि कानून वापस लेने का फैसला केंद्र सरकार ने आगामी विधानसभा चुनावों को देखते हुए लिया है। कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी ने कहा कि अब चुनाव में हार दिखने लगी तो सरकार को अचानक इस देश की सच्चाई समझ में आने लगी है। यह देश किसानों ने बनाया है, यह देश किसानों का है, किसान ही इस देश का सच्चा रखवाला है। कोई सरकार किसानों के हित को कुचलकर इस देश को नहीं चला सकती।

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