ज़हर पीने को मजबूर समाज जहरीले पानी के लिए मुसलमानों को ज़िम्मेदार ठहराने के फ़ासिस्ट दुष्प्रचार से ख़ुश !
उत्तराखंड में तो बरसों से यही प्रचार है कि मुसलमानों के अलावा कोई समस्या ही नहीं है। ठीक-ठाक पढ़े-लिखे पत्रकारों ने भी कई बार हमारे सामने यह दोहराया। हल्द्वानी में मुसलमानों की बस्ती उजाड़ दी जाए, इस पर बहुसंख्यकों का बहुमत ही मिलेगा। जोशीमठ को सत्ता ही देश की सत्ताधारी क्लास की ख़ुशी के लिए तबाह कर दे तो क्या ग़म? देवताओं का राज्य कहे जाने वाले देवताओं के वंशज़ों को इस धरती से कैसा लगाव.....
धीरेश सैनी की टिप्पणी
हमारा गाँव गंगा-जमुना के बीच में है। एक छोटी सी नदी कृष्णा तीन-चार किलोमीटर दूर से ही गुज़रती है। गंगा-जमुना के बीच के साठेक किलोमीटर के दायरे में कृष्णा, काली, हिंडन, सोलानी आदि कई छोटी नदियाँ हैं। मुज़फ़्फ़रनगर शहर के किनारे पर एक छोटी सी प्राकृतिक झील भी है; मोती झील। हम शिवालिक के तुरंत बाद गंगा-जमुना के जो महान मैदान बताए गए हैं, वहाँ हैं। देखते-देखते इन मैदानों की प्रचुर प्राकृतिक विविधता की छटा लुप्त हुई है। फिर भी, मोहंड से हमारी तरफ़ बढ़ते हुए या बेहट से आगे या इधर-उधर, इन मैदानों की ख़ूबसूरती की एक झलक तो अब भी मुग्ध करती है।
जिस जगह हमारा गाँव है, जिस दोआबे में है और जितनी नदियों से सिंचित भूभाग पर है, पानी की कमी ही नहीं होनी चाहिए थी। थी भी नहीं। पाँव मारो तो पानी निकल आए, जैसी स्थिति बरसात में रहती ही थी। मतलब यह कि बरसात में चोया ऊपर आ जाता था। क्वेटी के नलके धड़ल्ले से मीठा पानी देते थे। ट्यूबवेल के बोरिंग का पंखा लगभग ऊपर ही रखा रहता था और पानी इतना मीठा कि कहीं जाओ तो अपने नलके की याद आई। नलके तो हमारे बचपन में ही आए होंगे। कुएं ही थे जिनमें से एकाध का पानी हमने भी पिया।
हमारे सामने ही यह हुआ कि नल के पानी से बदबू आने लगी। फिर यह कि कपड़ा पानी में भिगो दो तो लाल हो जाए। अब जो सरकारी नलके हैं, बड़ी मशीन वाले, वही कामयाब रह गए हैं। ऐसा संकट पैदा कर देने के बावजूद लोगों में न तो इस संकट के लिए ज़िम्मेदार फैक्ट्रियों के मालिकों और उनकी संरक्षक सत्ताओं पर कोई गुस्सा है कि दूषित पानी नदियों में बहाया जाता रहा, या रिवर्स बोरिंग कर ज़मीन में उतारा जाता रहा और न ही ख़ुद कोई ज़िम्मेदारी का भाव है। पानी की टंकी आ गई है तो पानी छूटने पर नालियों में खुला पानी बहता है।
हाँ, जब टंकी नहीं आई थी और जो समर्सिबल पम्प लगवा सकते थे, उनके अलावा लोग बहुत परेशान थे तो यह प्रचार ज़ोरों पर था कि मुसलमान जानवर काटते हैं, जानवरों का खून धरती के भीतर जाता है और उससे पानी गंदा हो गया है। और ऐसा ठीक-ठाक लोग कहते थे। तो ऐसा समाज जो ज़हर पीने की हालत में आ गया हो और उस ज़हर पिलाने वालों के बजाय उसके लिए मुसलमानों को ज़िम्मेदार ठहराने के फ़ासिस्ट प्रचार को फ़ैलाने से ख़ुश हो लेता हो, उसका भविष्य ज़हर से बचाना बहुत मुश्किल है।
इसी साल जब देहरादून में जंगल काटे जा रहे थे तो गाड़ी का ड्राइवर इस बात से ख़ुश था कि गाड़ियाँ और तेज़ी से निकलेंगी। कुछ तर्क किया तो गुस्से में बोला कि यह राजीव के लमड़े (लड़के) ने ही पास करवाया था। मतलब, यह कि अब कमज़ोर लोग वॉट्सएप यूनिवर्सिटी से भी आगे बढ़कर ख़ुद ही विनाश के बचाव में तर्क तलाश कर लेते हैं। वह ड्राइवर कभी-कभार काम मिल पाने से दुखी था, लगभग भुखमरी के कगार पर चल रहे परिवार के मुखिया की बेबसी को रोता हुआ। महंगाई से बेहाल। इस बात पर उसका ज़ोर था कि मोदीजी ने बहुत विकास करा दिया है, योगीजी ने गुंडागर्दी ख़त्म कर दी है।
उत्तराखंड में तो बरसों से यही प्रचार है कि मुसलमानों के अलावा कोई समस्या ही नहीं है। ठीक-ठाक पढ़े-लिखे पत्रकारों ने भी कई बार हमारे सामने यह दोहराया। हल्द्वानी में मुसलमानों की बस्ती उजाड़ दी जाए, इस पर बहुसंख्यकों का बहुमत ही मिलेगा। जोशीमठ को सत्ता ही देश की सत्ताधारी क्लास की ख़ुशी के लिए तबाह कर दे तो क्या ग़म? देवताओं का राज्य कहे जाने वाले देवताओं के वंशज़ों को इस धरती से कैसा लगाव! दक्षिणपंथ के प्रभाव में रहने वाले, उसके संचालक, उसके टूल लोगों की बात छोड़ दीजिए, प्रगतिशीलों के मसीहा कवि रहे लीलाधर जगूड़ी जैसे लोग खुलकर विनाशकारी परियोजनाओं पर सवाल उठाने वालों पर हमला कराने में शामिल रहे हैं। पूरा उत्तराखंड बिजली परियाजनाओं के लिए क़ुर्बान होना है। और वो बिजली किसकी क़ीमत पर और किसके लिए? गाड़ियों वाले तो इसी बात से ख़ुश हैं कि फलां जगह तक इतने घंटे में सफ़र हो जाता है।
केदारनाथ आपदा के बाद भी सही सवालों पर केंद्रित होने के बजाय उमा भारती वगैरह इसके देवताओं की नाराज़गी वाले झांसे फैलाने में लगे थे। जोशीमठ की तबाही की भूमिका भी पहले ही लिख ली गई थी। अतुल सती जैसे एक्टिविस्ट इसे रोकने में जी-जान लगाए हुए थे। लगभग अकेले।
अब जैसे ग़रीबों की, दलितों की बस्तियां उजाड़ने में बाधा नहीं आती। मुसलमानों को बेघर करने में आनंद मिलता है, बड़ी जातियों के लोगों को पता होना चाहिए कि उनकी आबादियों को हाँका लगाए बिना इस तरह भी नष्ट किया जा सकता है। नफ़रत का नशा रहा तो यह गति बढ़नी है।
(इस टिप्पणी को धीरेश सैनी की एफबी वॉल पर भी पढ़ा जा सकता है।)