सड़क दुर्घटना के शिकार पीड़ित पत्रकार से सबूतों के बावजूद सरकारी वसूली क्यों हुई, वकील-एसीपी-एसएचओ किसी को नहीं ज्ञान

पीड़ित को पैसे क्यों देने हैं इसका ज्ञान वकील, एसीपी, एसएचओ किसी को नहीं है। केवल आईओ बिरेन्दर और प्राइवेट व्यक्ति सिद्दकी ही इस बारे में जानकारी रखते हैं। कमाल की बात यह है कि एसएचओ को कहने के बाद भी दोनों बार दिए गए एक-एक हजार रुपयों की कोई रसीद अब तक मुझे नहीं दी गई है, जिसे देने का वादा एसआई बीरेंदर मेरे याद दिलाने पर रोज फोन पर कर रहे हैं......

Update: 2023-12-24 15:51 GMT

पेशे से पत्रकार विवेक कुमार से जानिये उनकी आपबीती कि सड़क दुर्घटना के बाद न्याय व्यवस्था और कानूनी प्रक्रिया के दौरान उन्हें क्या-क्या झेलना पड़ा, और बिना किसी कसूर के पैसे ही नहीं देने पड़े बल्कि दिल्ली पुलिस ने एक तरह से धमकी देने का भी काम किया....

“भाई साहब मैं अभी बॉम्बे में हूँ। कल आपकी गाड़ी का वैल्यूएशन कर पाऊंगा। आप एक काम करो, 3000 रुपये एसआई बीरेन्दर सिंह जी को दे दो”। तस्नीम-ऊ-दीन सिद्की ने मुझसे कहा। सिद्दीकी अपना परिचय गर्वनमेंट अप्रूवड इंस्पैक्शनर, सर्वेयर, वैल्युयर, इनवेस्टिगेटर, रिकवर बताते हैं। साथ ही दिल्ली पुलिस और सीबीआई के पैनल सर्वेयर भी। यह वार्तालाप मेरे साथ हुई दुर्घटना के 9 दिन बाद हो रहा था।

बीते 8 दिसम्बर की रात मैं अपनी स्विफ्ट कार से दिल्ली के अकबर रोड होता हुआ मोती नगर जा रहा था। ट्रैफिक जाम होने के कारण् गाड़ियों की टेल लाइट से सड़क लाल सी हो गई थी। अचानक बारातियों से भरी बस मेरे दाहिने तरफ के हिस्से को रगड़ती हुई शीशे, बम्पर इत्यादि को तोड़ते हुए निकल गयी। तुगलक रोड गोल मेथी के गोलचक्कर पर खड़े ट्रैफिक के सिपाही ने टक्कर मारकर भागने वाले ड्राइवर को रुकने तक का इशारा नहीं किया। मेरे नाराज़ होने पर मुझे बस वाले का पीछा करने का इशारा कर सिपाही वापस अपने फोन में व्यस्त हो गया।

आगे तीन मूर्ति गोल चक्कर पर मेरे आग्रह पर एक बूढ़े ट्रैफिक वाले सिपाही ने तेज़ दौड़ लगाई, पर असफल रहा। अंततः मैने बस को चाणक्यपुरी कौटिल्य मार्ग पर आकर किसी तरह रोक लिया। ड्राइवर ने उतरते ही अपने मालिक को फोन कर दिया। शाम के आठ बजे शायद इस घटना ने मालिक के रंग में भंग डाल दिया इसलिए मुझे जितने अपशब्द बन पड़े बोलते हुए मालिक ने कहा 5 हजार लेने हैं तो ले ले, वरना जो बन पड़े कर ले। थोड़ी देर के लिए माथा चकराया कि माफी मांगने की बजाय इतनी अकड़, वो भी तब जब स्वयं उसका बस ड्राइवर गलती पर है। क्यों? बतौर आम आदमी मुझसे बन भी क्या सकता है। सो ठाना कि देखा जाए इस कानून व्यवस्था की दुनिया को भी।

100 नम्बर लगाया। आश्वासन मिला कि पुलिस आएगी। मेरे पास ही ड्यूटी पर खड़ी पीसीआर वैन के सिपाही ने कहा कि जब मेरे पास कॉल आएगी तभी मैं कोई एक्शन ले सकता हूँ। मैने सोचा कैसी पुलिस है सामने ही सब हो रहा है, पर जब तक कॉल नहीं आएगी हाथ पर हाथ धरे रहेंगे। थोड़ी देर बाद मेरे पास खड़े पुलिसवाले ने कलम निकालकर नाम-पते की कार्यवाही पूरी की और सम्बंधित थाने को सूचित किया। साथ ही मुझे कहा कि आप पुलिस थाने में कहना कि आपका एक्सीडेंट तीन मूर्ति वाले गोलचक्कर पर हुआ, जो कहने से मैंने इनकार कर दिया। लगभग एक घंटा इंतजार करने और आग्रह करने के बाद चाणक्यपुरी थाना से एस.आई विवेक आये। उन्हें ज्ञात हुआ कि घटना स्थल तो थाना तुगलक रोड क्षेत्र में शामिल है तो मुझे इंतजार करने को कहकर चले गए। दो घंटे तक कुछ न होने पर मैंने 100 नम्बर पर फिर से कॉल किया और वही प्रक्रिया मेरे सामने खड़े उसी पीसीआर कर्मी ने दोबारा शुरू की।


अबकी बार थाना तुगलक रोड से एस.आई. बीरेन्दर सिंह रात 11:30 बजे आए। मुझे और बस ड्राइवर को अपनी-अपनी गाड़ी समेत थाने चलने को कहा। थाने आकर न जाने क्यों बीरेन्दर सिंह बस मालिक का इंतजार करने लगे और इंतजार में रात के एक बज गए। इस बीच बस ड्राइवर ने मुझ पर ही गलत तरह से गाड़ी चलाने का आरोप लगा दिया। एस.आई. ने इसकी पुष्टि के लिए जब CCTV कैमरा चैक किया तो साफ जाहिर हुआ कि गलती बस ड्राइवर की थी। 7:30 बजे शाम के हुए एक्सीडेंट की रिपोर्ट लिखाने में ही अगले दिन की तारीख (9 दिसंबर) आ गई। बहरहाल मालिक अपने 3 लग्गे-भागों के साथ अवतरित हुए और अपने लोकल लहजे का प्रभाव डालने के अंदाज में मुझे जताते रहे कि एक-आध बस बंद भी हो जाए तो उन्हें फ़र्क नहीं पड़ता।

इस बीच पास खड़े अन्य पुलिस वालों से लेकर एसआई बीरेन्दर सिंह तक ने मुझे यही समझाया कि इस मामले में होगा-जाना कुछ नहीं। इसलिए जो मिले उसे चुपचाप ले लो। बस वाले का तो कोर्ट में छोटा सा चालान होगा और इनका तो रोज़ का काम है। आप कहाँ कोर्ट के चक्कर काटते फिरोगे। इन बातों ने मुझे बस मालिक की अकड़ का कारण स्पष्ट किया।

आई.ओ. बीरेन्दर ने ले-देकर समझौता कराने का असफल प्रयास किया और इस प्रयास में मुझे चेताते रहे कि टेक्निकल इंसपैक्शन और वैल्युएशन के पैसे, फिर वकील का खर्च आपको भी वहन करना पड़ेगा। आपकी भी गाड़ी जब्त होगी, सो अलग। एक काउंसलर की सभी खूबियों वाले बीरेंदर आदर्श पुलिस के अलावा सब लगे।

मैं शिकायत देने पर अड़ा रहा तो एसआई बीरेन्दर ने शिकायत लिखने के लिए मुझे कागज पैन दे दिया। मेरी शिकायत पढ़ने के बाद बीरेन्दर ने कहा कि आपने गलत लिख दिया है, जैसे मैं बताऊं आप वैसे लिखो। उन्होंने कहा कि मैं थोड़ा और खोलकर लिखवाऊँगा जिस पर मैंने उनसे जानना चाहा कि क्या नहीं खोल हुआ है वे मुझे बता दें क्योंकि लिखने का थोड़ा अभ्यास मेरा भी है। थोड़ा झिड़कते हुए एसआई बीरेंदेर ने कहा कि मुकदमे की भाषा ऐसी नहीं होती वो मैं बताता हूं आपको। इस पर मैंने भी दृढ़ स्वर में उनको बताया कि मैं अपनी शिकायत अपनी भाषा में दे रहा हूँ। आप अपना मुकद्दमा जिस भाषा में चाहें लिख लें। रात के तीन बजे अपनी शिकायत बीरेन्दर को देकर मैनें एक नागरिक फ़र्ज़ अदा किया, पर एफ.आई.आर मुझे अगले दिन मिलेगी कहकर जाने को कहा गया। मेरी गाड़ी इम्पाउंड करने के बाद मुझे उसका सीज़र मेमो की कॉपी भी अगले दिन शाम को मेरे मांगने पर दी गई, जिस पर मोहर लगाने के लिए भी एसआई से बहसों का दौर चला।

पुलिस स्टेशन की कवायद के बाद अगला नम्बर पटियाला कोर्ट के दर्शन का था। एक जानकार के मार्फत सुप्रीम कोर्ट की एक वकील से मिलना हुआ। पहली मुलाकात में ही उनके सवालों और सुपरदारी जैसे मामले को कत्ल के मामले सा माहौल बनाने के प्रयास ने मुझे उनकी समझदारी पर शक करने को मजबूर कर दिया। पुलिस का बर्ताव कानूनपरक न होकर पीड़ित के प्रति असंवेदनशील है, जानकर वे कई दफा चौंकी। उनके इस चौंकने की क्रिया ने मुझे हरिशंकर परसाई की लिखी बात याद दिलाई कि एक बार कचहरी चढ़ने पर आपका असली काम अपने वकील से अपनी रक्षा करना है याद आया। मोहतरमा ने एहसान जताते हुए कहा कि फीस तो आपसे क्या लें, पर पटियाला हाउस कोर्ट में एक एप्लिकेशन लगाने के लिए मैं दस हजार रुपये लेती हूँ। बाकी आपको मेरे सीनियर ने भेजा है तो आप जो दे दें। मुझे तुरंत पुलिस वालों की दी सलाह याद आई और इस प्रक्रिया में जाना बेवकूफ होना है पर थोड़ा यकीन होने लगा।

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सुप्रीम कोर्ट की फैन्सी वकील से पीछा छुड़ाकर पटियाला कोर्ट के दूसरे वकील से मिलने पर जी कुछ संभला, जिसने 2000 रुपये बतौर फीस लेकर कोर्ट में मजिस्ट्रेट ईशा सिंह के सामने मेरी सुपरदादी की अर्जी लगा दी। अगले दिन की तारीख देकर मैडम ने हमें वापस कर दिया। 12 दिसम्बर की सुबह वकील ने बताया कि 15 दिसम्बर को गाड़ी छोड़ने का आर्डर हो जाएगा, पर इसके लिए तीन दिन गाड़ी खड़ी रखने की क्या जरूरत है। वकील साहब से पूछने पर उनके पास इसका जवाब नहीं था। अलबत्ता यह जरूर कहा कि यह तो बहुत जल्दी है, वरना जज तो अब भगवान है, 10 दिन बाद दे तो भी क्या कर लेते।

इस बीच पुलिस स्टेशन से एसआई बीरेंदेर सिंह का फोन आया कि गाड़ी का टैक्निकल इंस्पैक्शन करवाना है, जिसकी फीस 1000 रुपये मुझे ही देनी होगी। मैने कहा दे देंगे, पर फीस की सरकारी रसीद चाहिए। इस पर पुलिस ने कहा कि रसीद तो प्राइवेट आदमी की ही मिलेगी। पुलिस रसीद नहीं देती। हालांकि यह सच था कि भारत की पुलिस ने आजतक जो पैसे जनता से लिए उसकी कोई रसीद तो नहीं ही दी। खैर, मैं अड़ गया और थाने में लगे मुफ़्त कानूनी सलाह के नंबर 1516 पर कॉल करके पता किया तो ऐसी कोई फीस नहीं देने की बात ही मुझे बताई गई। मेरे अपने वकील ने कहा कि फिलहाल यह काम करवा लो, बाकी 15 दिसम्बर को देखते हैं।

टेक्निकल इंस्पैकशन के लिए पुलिस के भी बाप से दिखने वाले तस्नीम-उ-दीन आये और गाड़ी को दायें से देखा बाएं से देखा और हो गया इंस्पैक्शन, लाओ रुपये एक हज़ार। इस पुलिसिया लुटाई से फारिग होकर 15 दिसम्बर को कोर्ट पहुंचा तो ठीक 12:30 बजे मेरा मामला मजिस्ट्रेट ईशा सिंह के आगे पेश हुआ। सेट फॉर्मेट में उन्होने कागज उलटे-पलटे और गाड़ी रिलीज़ के आर्डर कर दिए, जिसका लिखित आदेश शाम 5 बजे मिलना था। उत्सुकतावकश मैंने जज साहिबा से पूछा कि मैडम एक आदमी अपने काम से जा रहा है और बस वाले की गलती से अब कोर्ट में खड़ा है। बतौर विक्टिम मेरी गाड़ी 7 दिन से क्यों बंद है, ये कैसी न्याय प्रक्रिया है। जवाब में मैडम ने मुस्कुरा कर कहा कि अब छूट जाएगी।

शाम को मुझे बम्बई के लिए निकलना था, सो आज के रिलीज आईर का मुझे खास फायदा नहीं था। 17 दिसम्बर को बम्बई से वापस आकर अपने वकील से सुपरदारी का ऑर्डर प्राप्त करते हुए मैने पूछा कि अब तो कोई टेक्नीकैलिटी बाकी नहीं, जिसके बहाने से पुलिस वाला पैसे मांगेगा। वकील ने गुर्राते हुए कहा, जेल जाएगा अगर अब कुछ किया तो। वकील का आश्वासन पाकर मैं पुलिस स्टेशन एस.आई बीरेंदेर सिंह से तय हुए समय पर पहुंच गया। दो घंटे के इंतजार के बाद आई-ओ. बीरेंदर ने कहा कि मुझे थोड़ा वक्त कोर्ट में लग रहा है तब तक आप वैल्युएशन करवा लो जिसके के लिए फिर वही सिद्दकी का फोन नम्बर दिया। सिद्की ने बम्बई में होने का हवाला देकर बीरेन्दर सिंह को 3000 रुपये देने की बात कही। इस बात को लेकर मैंने थाना इंचार्ज और साथ ही एसीपी ऑफिस का रुख किया। कमाल की बात यह थी कि एसएचओ और एसीपी आफिस को भी इस बात की खबर नहीं कि यह क्या प्रक्रिया है और क्यों इसमें इतने पैसे पीड़ित देगा। एसीपी के रीडर ने तपाक से कहा, साहब जी यही नियम है, मैंने भी अपने मोबाइल फोन के गुम होने पर एक हजार रुपये बतौर वैल्युशन जमा किया।

एसीपी आफिस से मुझे कहा गया कि जो प्रक्रिया है वह तो निभानी ही होगी। मैंने कहा बिल्कुल, पर आप लिए गए रुपयों की सरकारी रसीद दें या मुझे कोर्ट का आदेश व सर्कुलर दिखा दें, जिसमें मुझसे पैसे लेना लिखा गया है।

सख्त लहजे में एसएचओ रावत ने बिरेन्दर से आदेश दिखाने को कहा तो एस.आई.बिरेन्दर एक प्रिंट जिसमें किसी कोर्ट ने किसी मामले में किसी व्यक्ति विशेष को ऐसा करने का आदेश दिया था। ऐसा एसएचओ ने वह आदेश पढ़कर बताया। बमुश्किल पढे जा सकने वाले उस पेपर को मैं नहीं पढ़ सका। बावजूद इसके एसएचओ ने आई.ओ. बिरेन्दर को यह खर्च खुद की जेब से देकर रिम्बर्स कराने की सलाह दी, जिसे बिरेन्दर ने मना कर दिया।

बिरेन्दर ने कहा कि यह पैसा तो पीड़ित को ही देना है। इस पर मैंने जब एसएचओ व एसआई से पूछा कि कैसे तय किया गया कि कितना पैसा आप लेंगे और अगर निजी व्यक्ति तीन हज़ार मांग सकता है तो वो तीस हज़ार क्यों नहीं मांग लेता। इस पर एसएचओ ने सिद्की को फोन करके कहा कि तुझे एक हजार ही मिलेंगे। एसएचओ के सहयोग से फिलहाल मेरे गले की हड्डी एक हजार में निकली और 10 दिन बाद मुझे मेरी गाड़ी 17 दिसंबर की शाम को वापस मिली।

पूरे मामले में मजे की बात यह थी कि पीड़ित को पैसे क्यों देने हैं इसका ज्ञान वकील, एसीपी, एसएचओ किसी को नहीं है। केवल आईओ बिरेन्दर और प्राइवेट व्यक्ति सिद्दकी ही इस बारे में जानकारी रखते हैं। कमाल की बात यह है कि एसएचओ को कहने के बाद भी दोनों बार दिए गए एक-एक हजार रुपयों की कोई रसीद अब तक मुझे नहीं दी गई है, जिसे देने का वादा एसआई बीरेंदर मेरे याद दिलाने पर रोज फोन पर कर रहे हैं।

श्रीलाल शुक्ल द्वारा लिखी कालजयी रचना ‘रागदारबारी’ में एक झगड़े के मामले में एमए पास किए रंगनाथ का पुलिस के आगे नैतिक स्टैंड लेने पर प्रमुख किरदार सनीचर द्वारा उनका परिचय इस प्रकार दिलवाया गया है, "ये एमए पढ़ गए हैं इसलिए कभी-कभी पढ़े-लिखों सी बातें करने लगते हैं। आप बुरा न मानें”। मैंने सोचा एमए तो मैं भी कर गया, वो भी पत्रकारिता में पर शायद उतना नहीं पढ़ सका कि पुलिस व न्याय व्यवस्था को समझ सकूं। कुछ तो काबिलियत है ही पुलिस की अन्यथा हरिशंकर परसाई ने चांद पर बनी सरकार के बुलावे पर किसी भारतीय पुलिस के इंस्पैक्टर मतादीन को ही चांद पर क्यों भेजा?

अभी हालिया फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 370 को समाप्त करने की सरकार की सरसरी प्रक्रिया को संवैधानिक करार दिया। मेरा सवाल है कि अगर इसके उलट फैसला होता तो भी आमजन के जीवन में क्या बदल जाता? सदन से 143 सांसद निलंबित हो गए और अगर सभी हो जाएँ तो भी क्या बदल जाएगा? जो सरकार सदन में है उसके सांसदों ने ही कौन सा क्रांतिकारी काम कर देना है जिससे कि देश की कार्यपालिका और न्यायपालिका ये सुनिश्चित कर देंगी कि नागरिक के जीवन में कोई राहत हो।

क्या सीजेआई ने अपने फ़ैन्सी भाषणों के अलावा कभी यह सुनिश्चित किया कि जो नागरिक अपने और दूसरों के अधिकारों के लिए लड़ते हैं, उनको प्रक्रियारूपी दानव के चंगुल में न पड़ने दें? 370 के आने या जाने से मेरे जीवन में कुछ नहीं बदला, ठीक वैसे ही जैसे दलित मंत्री और आदिवासी राष्ट्रपति के आने से दलित-आदिवासी समाज में नहीं बदला। इसलिए अगर किसी को इतिहास पुरुष बनने का शौक है तो वे इन सड़ी प्रक्रियाओं को न केवल बदलने की कृपा 3करें बल्कि उठाकर प्रक्रिया से बाहर फेंक दें। तब कहीं आपके फ़ैन्सी भाषण और लंबे कार्यकाल के लिए लंबे समय तक गीत गाये जाएंगे अन्यथा एसआई बीरेंदर से कितने भी विवेक कुमार भिड़े कोई फ़र्क नहीं पड़ता।

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