Harish Rawat : पथरीली डगर के सृजनकर्ता को अब चुभने लगे पांव में पत्थर
Harish Rawat : हरीश रावत ने अपनी ही पार्टी के संगठन पर सहयोग न करने का आरोप लगाकर कहा कि संगठन सहयोग की बजाय नकारात्मक भूमिका निभा रहा है.....
सलीम मलिक की रिपोर्ट
Harish Rawat : कांग्रेस चुनाव संचालन समिति के मुखिया के तौर पर कांग्रेस के चुनाव अभियान (Election Campaign) की बागडोर संभाल रहे दिग्गज नेता हरीश रावत (Harish Rawat) ने बुधवार को फिर देहरादून से लेकर दिल्ली तक कांग्रेस पार्टी (Congress) को सांसत में डाल दिया। आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी की ओर से उन्हें मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित न किये जाने से निराश रावत ने अपने फेसबुक पोस्ट पर अपनों का साथ न मिलने का हवाला दिया है। उनकी इस पोस्ट ने कांग्रेस की राजनीति में भूचाल आ गया है। आगामी विधानसभा चुनाव की चौखट पर खड़े उत्तराखंड में जब सभी पार्टियां चुनाव की तैयारियों में जुटी हुई हैं तो कांग्रेस के सेनापति समझे जा रहे हरीश रावत का सन्यास लेने का अनुमान लगाने वाला यह बयान आया है।
हरीश रावत ने अपनी ही पार्टी के संगठन पर सहयोग न करने का आरोप लगाकर कहा कि संगठन सहयोग की बजाय नकारात्मक भूमिका निभा रहा है। निराशा जाहिर करते हुए उन्होंने ये तक कह दिया कि उन्हें महसूस हो रहा है कि अब विश्राम का वक्त आ गया है।
उन्होंने लिखा कि "है न अजीब सी बात, चुनाव रूपी समुद्र को तैरना है, सहयोग के लिए संगठन का ढांचा अधिकांश स्थानों पर सहयोग का हाथ आगे बढ़ाने के बजाए या तो मुंह फेर करके खड़ा हो जा रहा है या नकारात्मक भूमिका निभा रहा है। जिस समुद्र में तैरना है, सत्ता ने वहां कई मगरमच्छ छोड़ रखे हैं। जिनके आदेश पर तैरना है, उनके नुमाइंदे मेरे हाथ-पांव बांध रहे हैं। मन में बहुत बार विचार आ रहा है कि हरीश रावत अब बहुत हो गया, बहुत तैर लिये, अब विश्राम का समय है! फिर चुपके से मन के एक कोने से आवाज उठ रही है "न दैन्यं न पलायनम्" बड़ी उपापोह की स्थिति में हूं, नया वर्ष शायद रास्ता दिखा दे। मुझे विश्वास है कि भगवान केदारनाथ जी इस स्थिति में मेरा मार्गदर्शन करेंगे।
अपनी इस पोस्ट के माध्यम से रावत ने प्रदेश कांग्रेस के अन्य नेताओं पर सहयोग न किये जाने का आरोप लगाया है।
दरअसल हरीश रावत के सामने आसन्न विधानसभा चुनाव करो या मरो की स्थिति वाला है। परिस्थितियां कुछ ऐसी हैं कि भाजपा से त्रस्त मतदाता इस हद तक कांग्रेस के साथ हैं कि कांग्रेस सत्ता की चौखट छूती दिख रही है। इसके साथ हरीश रावत की लोकप्रियता भी बनी हुई है। मगर कांग्रेस पार्टी ने उम्र और अनुभव को देखते हुए हरीश रावत को चुनाव अभियान समिति का मुखिया भले ही बनाया हो, इस चुनाव को बजाए किसी एक नेता के चेहरे पर लड़ने के सामूहिक तौर पर लड़ने की घोषणा की है। यही दर्द हरीश रावत को साल रहा है कि कहीं इस बार भी प्रदेश के पहले विधानसभा चुनाव की तरह इस बार भी मुख्यमंत्री बनने की राह में कोई रोड़ा न अटक जाए। इसीलिए रावत बार-बार केंद्रीय नेतृत्व से मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने की गुहार लगा रहे थे, जिस पर पार्टी कोई तवज्जो नहीं दे रही है।
हरीश रावत की उम्र को देखते हुए यह विधानसभा चुनाव सक्रियता के लिहाज से उनके लिए आखिरी समझा जा रहा है। हरीश रावत और पार्टी, दोनो को ही इससे इत्तेफाक है। चुनाव बाद परिस्थितियां किस ओर हों, यह किसी को नही पता। इसीलिए पार्टी हरीश रावत की मुख्यमंत्री पद की चाहत 'निजी समस्या' को पार्टी की समस्या तो नहीं बनने देना चाहती। साथ ही चुनावी खेल न बिगड़े, इसके लिए रावत को भी साधकर रखना चाहती है। जबकि हरीश रावत हर हाल में पार्टी से चुनाव पूर्व ही अपने ही लिए अप्रूवल लेना चाहते हैं, जिससे चुनाव से पहले ही वह राजनैतिक तौर पर बढ़त ले सकें। ऐसी कोशिश रावत पहले भी कई बार कर चुके हैं, जिनकी असफलता के बाद उन्होंने अब यह संगठन का सहयोग न मिलने का नया पासा फेंका है।
वैसे आज जब हरीश रावत संगठन से सहयोग न मिलने की बात कर रहे हैं तो एक बारगी तो लगता है कि उनके जैसे वरिष्ठ नेता के साथ ज्यादती हो रही है।
लेकिन अतीत के झरोखें बताते हैं कि हरीश रावत ने भी अपनी तरफ से पार्टी में दूसरे नेताओं के साथ सहयोग का रिश्ता रखने में कंजूसी ही की है। अपने समकक्षों के साथ प्रतियोगिता की बात तो समझ में आती है। लेकिन प्रतियोगिता से आगे बढ़कर विरोधी के सम्पूर्ण विध्वंस के लिए हरीश रावत सदा ही लालायित रहे। उनकी इसी राजनैतिक कार्यशैली की वजह से प्रदेश कांग्रेस के दिग्गज नेता स्व. नारायणदत्त तिवारी रहे हों या स्व. इन्दिरा ह्रदयेश, कभी भी इनसे हरीश रावत के रिश्ते सामान्य नहीं रहे। वर्तमान समकक्षों में भी यदि उनकी पिछली ही सरकार में हुई बगावत की बात की जाए तो सभी लोग केवल और केवल 'हरीश रावत' से ही त्रस्त होकर भाजपा में गए थे। यहां तक कि राजनीति के इस सफर में वर्तमान कार्यकारी अध्यक्ष रणजीत सिंह रावत जैसे लोग भी उनका साथ छोड़ गए, जिनके बारे में कल्पना भी नहीं कि जा सकती थी कि वह और हरीश कभी अलग हो सकते हैं।
यूँ तो राजनीति में हरीश रावत शुरू से ही एक संघर्षशील व्यक्तित्व के तौर पर पहचाने जाते हैं तो कांग्रेस के प्रति उनकी निष्ठा भी अटूट है। आज भी सत्ताधारी भाजपा कांग्रेस पर जब हमला करती है तो उसे केवल हरीश रावत ही मिलते हैं। हरीश रावत राजनीति में कभी उत्तराखंडियत का कॉकटेल बना देते हैं तो कभी अपनी चतुराई से खेल का नक्शा तक बदल देते हैं। लेकिन विश्वसनीयता का अभाव धैर्य के बाद उनकी दूसरी बड़ी कमजोरी है। यही वह वजह है कि कभी वह मुख्यमंत्री पद के दावे से खुद को दूर रखने की बात करते हैं तो कभी दलित मुख्यमंत्री का शिगूफा छोड़ते हैं। फिर चुपके से मुख्यमंत्री बनने का आशीर्वाद लेने बाबा केदार की शरण में भी चले जाते हैं।
इसे विश्वसनीयता का अभाव न कहा जाए तो क्या कहें कि चालीस साल की राजनीति के बाद भी वह न तो आज तक अपनी राजनैतिक विरासत का कोई विकल्प खड़ा कर पाए हैं और न ही कोई ऐसा एक अदद सुरक्षित विधानसभा क्षेत्र, जिससे बतौर मुख्यमंत्री दो-दो विधानसभा क्षेत्रों से हारने का दाग न लगे। अभी भी उनके अविश्वास का यह आलम है कि एक ही विधानसभा क्षेत्र से वह कई लोगों को एक ही पद के लिए अपना ऐसा आशीर्वाद दे देते हैं कि संगठन में ही कई नए संगठन उदय हो उठते हैं। ऐसे में जब हरीश रावत खुद को ही संगठन से सहयोग न मिलने का आरोप लगा रहे हैं तो लोग इसे पथरीली डगर के सृजनकर्ता के पांव में पत्थर चुभने की शिकायत के तौर पर ही समझ रहे हैं।
कुल मिलाकर वर्तमान में हरीश रावत की स्थिति एक ऐसे बुजुर्ग शेर जैसी है कि उसके पंजे से शिकार धराशायी भी हो सकता है और पकड़ से छूटकर भाग भी सकता है। अब देखना होगा कि उनकी जिस ताज़ा पोस्ट ने जो राजनैतिक कोहराम मचा रखा है, उसका पटाक्षेप किस रूप में होगा। पार्टी आलाकमान उनका कद देखते हुए उन्हें वॉकओवर देगा या वह दूसरे कैप्टन अमरिंदर सिंह साबित होंगे, जिन्होंने अपने एक इंटरव्यू में हरीश रावत की विश्वसनीयता को ही घेरे में रखते हुए कहा था "ड्यूबीयस इंडिविडयूल"!