Harish Rawat Uttarakhand Election 2022 : कांग्रेस के वो दो नेता कौन हैं जिनकी वजह से हरीश रावत का मुख्यमंत्री पद पड़ा है संकट में

Harish Rawat Uttarakhand Election 2022 : कांग्रेस की आंतरिक गुटबाजी में कद के हिसाब से देखा जाए तो निःसंदेह हरीश रावत इस समय पार्टी में सत्तर के दशक के अमिताभ बच्चन जैसी स्थिति में हैं, इकलौता नेता उनकी बराबरी का नहीं है.......

Update: 2022-02-17 12:54 GMT

Harish Rawat : अब तपती दोपहर की धूप में उपवास की चेतावनी दी हरीश रावत ने

सलीम मलिक की रिपोर्ट

Harish Rawat Uttarakhand Election 2022 : "मुख्यमंत्री बनूंगा, या फिर घर बैठूंगा"। कांग्रेस के चुनावी अभियान के मुखिया व पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत (Harish Rawat) के बमुश्किल आधी लाइन के इस बयान की गूंज इन दिनों कांग्रेस में उत्तराखण्ड से लेकर दिल्ली दस जनपथ तक गूंजने लगी है। अभी जबकि ईवीएम (EVM) में कैद जनादेश का जिन्न बाहर आने में तीन हफ्ते से अधिक का समय है और पार्टी के नेता परिणाम की बाबत गुणा-भाग में ही उलझे हों तब ऐसे समय में कांग्रेस के दिग्गज नेता हरीश रावत की यह टिप्पणी उनकी मतगणना के तुरंत बाद की तैयारी बताती है।

लेकिन बड़ा सवाल है कि क्या कांग्रेस (Congress) की राजनीति में सबकुछ इतना आसान हो सकता है, जितना धरातल पर दिखता है। इस सवाल का जवाब कांग्रेस के साथ ही हरीश रावत की राजनीति को समझने से ही मिल सकता है।

हरीश रावत का राजनैतिक चरित्रj

बात हरीश रावत (Harish Rawat) के राजनीतिक चरित्र से शुरू करें तो सत्ता के लिए उनका जुझारूपन जगजाहिर है। राज्य बनने के बाद यत्र-तत्र-सवर्त्र बिखरी पड़ी मृतप्रायः कांग्रेस को सैंकड़ो किमी. की पदयात्राओं के बल पर जिंदा कर उत्साहित कांग्रेस कार्यकर्ताओं के दम से 2002 के चुनाव परिणाम पार्टी के अनुकूल आने पर हरीश रावत मुख्यमंत्री पद के खुद दावेदार थे। लेकिन यहां उनकी राह का रोड़ा बने स्व. पण्डित नारायणदत्त तिवारी।

दस जनपथ तक पूरा दखल रखने वाले नारायण दत्त तिवारी से उस समय हरीश मात भले ही खा गए हों लेकिन वावजूद इसके कि बसपा-सपा-उक्रांद सभी दलों से तिवारी की मित्रता थी, हरीश ने उन्हें कभी सुकून से सरकार नहीं चलाने दी। लेकिन विजय बहुगुणा, स्व. इंदिरा ह्रदयेश, सतपाल महाराज, यशपाल आर्य, हरक सिंह रावत जैसे नेताओं के सहारे तिवारी ने अपना कार्यकाल पूरा कर ही लिया।

इस सरकार के पूरे कार्यकाल में हरीश को यह दर्द सालता रहा कि उनका हक़ मारकर पार्टी ने मुख्यमंत्री पद की सौगात तिवारी को सौंप दी है। कुल मिलाकर कई कोशिशों के बाद भी हरीश की दाल तिवारी के विराट व्यक्तित्व के सामने नहीं गल पाई तो मजबूरन हरीश रावत ने 'देखो और इंतज़ार करो' की रणनीति अपनाई।

इसके बाद हरीश रावत के सामने प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का दूसरा अवसर साल 2012 में आया लेकिन यहां भी हरीश रावत गुलाम नबी आजाद की भरसक पैरवी के बाद केवल इसलिए हार गए कि बेशक पूर्व मुख्यमंत्री पण्डित नारायणदत्त तिवारी की उम्र मुख्यमंत्री बनने की न रही हो, लेकिन उनकी दस जनपथ से की गई पैरवी और प्रदेश के अन्य कांग्रेस क्षत्रपों (सतपाल महाराज, इंदिरा ह्रदयेश, हरक सिंह रावत, यशपाल आर्य) के सहयोग से मुख्यमंत्री बनने में विजय बहुगुणा को सफलता मिली।

इस बार भी मुख्यमंत्री की कुर्सी से दूर रह जाना हरीश रावत के लिए किसी आघात से कम नहीं था। जो हरीश मुख्यमंत्री न बन पाने के कारण तिवारी जैसे दिग्गज नेता के लिए आये दिन मुसीबत खड़ी करते रहते थे, उनके लिए विजय बहुगुणा जैसे कम धैर्यवान नेता को हिलाना कोई मुश्किल काम नहीं था। हरीश रावत अब पूरी ताक़त से विजय बहुगुणा की कुर्सी के पैरों को हिलाने की कोशिश में जुटे रहे। इस बार एक नई बात यह थी कि किस्मत हरीश रावत के तो दुर्भाग्य विजय बहुगुणा के साथ था।

2014 की केदारनाथ आपदा आई। जिसे संभालने में विजय बहुगुणा कितने सफल-कितने असफल हुए, यह सकल नेपथ्य में चला गया। आपदा के शोर ने पूरी दुनियां का ध्यान अपनी ओर खींचा तो हर छोटी-मोटी कमी राज्य सरकार की गम्भीर चूक के रूप में प्रचारित होती। ऐसे में विजय बहुगुणा की कुर्सी जानी ही थी 3और गयी भी। इस आपदाकाल में कांग्रेस ने अंततः इस बार हरीश रावत पर ही भरोसा करना मुनासिब समझा। गुलामनबी आज़ाद और अम्बिका सोनी की जोरदार पैरवी से हरीश रावत 1 फरवरी 2014 को उस समय मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन हुए जब वह केंद्र में सांसद थे।

अब विरोधियों को ठिकाने लगाने की बारी मुख्यमंत्री बनने के बाद हरीश रावत के सामने केदारनाथ पुनर्निर्माण का घोषित लक्ष्य था तो अघोषित लक्ष्य यह भी था कि वह कांग्रेस में अपने विरोधियों को निपटाते भी चलें। इसीलिए जब दिन के उजाले में केदारनाथ पुनर्निर्माण के लिए कोई ईंट रखी जाती थी तो रात के अंधेरे में प्रदेश कांग्रेस के किसी क्षत्रप की बुनियाद की ईंट भी साथ-साथ खिसकाई जाती थी। इसका नतीजा यह हुआ कि क्षत्रपों को अपनी ही सरकार गिराने पर मजबूर होना पड़ा। सत्ताच्युक्त हुए विजय बहुगुणा सेनापति बनने के लिए तैयार ही थे। प्रदेश में राष्ट्रपति शासन, हाई कोर्ट का दखल, स्टिंग ऑपरेशन जैसे कई पड़ाव के बाद 2017 के विधानसभा चुनाव में हरीश रावत को मुख्यमंत्री रहते दो-दो विधानसभाओं से हारने का कलंक भी अपने माथे लेना पड़ा।

2022 का अंतिम अवसर, जिसके लिए हरीश की है पूरी तैयारी कांग्रेस में अपने समक्ष विरोधियों को ठिकाने लगा चुके हरीश रावत की उम्र के लिहाज से यह चुनाव उनकी सक्रियता के लिहाज से अंतिम चुनाव समझा जा सकता है। चुनाव से दो साल पहले ही हरीश रावत ने कांग्रेस के सत्ता में आने पर अपने मुख्यमंत्री बनने का ताना-बाना बुनना शुरू कर दिया था। हरीश के मुकाबले में प्रदेश भर में केवल नेता-प्रतिपक्ष इंदिरा ह्रदयेश ही थीं जो हरीश रावत की राह कठिन कर सकती थीं। उनके निधन के बाद कांग्रेस में उनका स्थान तो खाली हुआ। लेकिन बड़ा संकट कांग्रेस के नेताविहीन होने का भी बना।

इसके साथ ही प्रदेश प्रभारी देवेन्द्र यादव के साथ हरीश रावत के सम्बंध असहज होने लगे तो भाजपा में गए कांग्रेस गोत्र के नेताओं के भी भाजपा में असहज होने की खबरें आने लगीं। ऐसे में हरीश रावत को अपना पलड़ा भारी करने के लिए कुछ लोगों के साथ कि जरूरत बनी तो निर्विवाद दलित नेता यशपाल आर्य हरीश को अपने लिए मुफीद नजर आए। गुटबाजी की राजनीति में यशपाल के बूते अपना पलड़ा भारी कर चुके हरीश चुनाव से पहले प्रदेश प्रभारी देवेंद्र यादव पर सीधा हमला कर कांग्रेस के दूसरे गुट को आक्रामक की बजाए रक्षात्मक रुख अपनाए जाने को पहले ही मजबूर कर चुके हैं। लेकिन इसके बाद भी हरीश भविष्य की कब क्या हो जाये वाली राजनैतिक परिस्थितियों से सतर्क रहकर जनादेश का पिटारा खुलने से पहले ही 'राग मुख्यमंत्री' के बहाने ठहरे हुए पानी की गहराई नापने का काम कर चुके हैं।

कौन बनेगा कांग्रेस का मुख्यमंत्री ?

कांग्रेस में इस सवाल का साफ और स्पष्ट जवाब निःसंदेह हरीश रावत ही होता बशर्ते राजनीति की डगर पथरीली न होती। लेकिन हरीश रावत जानते हैं कि देखने में आसान लगने वाला यह लक्ष्य वास्तव में है कितना कठिन। नेता-प्रतिपक्ष प्रीतम सिंह भले ही उनके कद के सामने मकबूल न हों, लेकिन उन्हें नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता। इसी सच को जानते हुए हरीश रावत चुनाव से पहले ही पार्टी से मुख्यमंत्री का चेहरा (खुद को) घोषित किये जाने की मांग कर चुके हैं। लेकिन गुटबाजी का संतुलन साधे रखने के लिए पार्टी ने उन्हें सीधे चेहरा घोषित तो नहीं किया है, मगर उन्हें पर्याप्त तवज्जो देकर पार्टी ने महाभारत के 'अश्वथामा' सरीखी स्थिति जरूर बना दी। जिसकी कोई भी अपने हिसाब से कुछ भी व्याख्या करने को स्वतंत्र है। यह स्थिति जहां हरीश रावत को ताकत दे रही है तो दूसरी ओर दूसरे गुट के लिए उम्मीद बनी हुई है।

विवाद की स्थिति में किसके सिर बंधेगा ताज ?

कांग्रेस की आंतरिक गुटबाजी में कद के हिसाब से देखा जाए तो निःसंदेह हरीश रावत इस समय पार्टी में सत्तर के दशक के अमिताभ बच्चन जैसी स्थिति में हैं। जहां कोई इकलौता नेता उनकी बराबरी का नहीं है। लेकिन यदि उनसे कुछ कम कद के कई नेता हरीश रावत के खिलाफ खुलकर ही लामबंद हो जाएं तो हरीश रावत को खतरे की जद तक आने में भी समय नहीं लगेगा।

मतलब साफ है कि प्रदेश प्रभारी देवेन्द्र यादव, नेता-प्रतिपक्ष प्रीतम सिंह, प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल की तिकड़ी एकजुट होकर हरीश रावत के खिलाफ कैम्पेनिंग कर बैठी तो हरीश रावत का दुबारा मुख्यमंत्री बनने का सपना अधूरा भी रह सकता है। ऐसी सूरत में जब एक तरफ से हरीश रावत और दूसरी तरफ से प्रीतम सिंह मुख्यमंत्री पद के लिए दावेदार बने हो तो दोनो गुटों से संतुलन बनाकर चलने वाले कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल में भी कांग्रेस का नया पुष्कर धामी बनने की संभावनाएं नजर आती हैं।

उत्तराखण्ड राज्य में अपने जीवनकाल में दलित के बेटे को मुख्यमंत्री देखने का सपना कहने वाले हरीश रावत की नजर इस सत्ता संग्राम में यशपाल आर्य पर भी टिक जाए तो कोई बड़ी बात नहीं। लेकिन यह सारी संभावनाएं तब तक तो ठीक थी, जब हरीश रावत के लिए भविष्य में भी कोई संभावनाएं होतीं। अब ऐसे समय में जब हरीश रावत के लिए यह मुख्यमंत्री बनने का अंतिम अवसर हो तो वह इन संभावनाओं को शायद ही जिंदा रहने दें।

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