चुनाव धनबल और शक्तिबल का प्रदर्शन मात्र है | Hindi Poems on Elections

Hindi Poems on Elections | दुनिया के बहुत से देश हैं, जो अपने लोकतंत्र या प्रजातंत्र का ढिंढोरा नहीं पीटते, फिर भी उनका प्रजातंत्र जीवंत है और चुनाव जनता के लिए सत्ता के बदलाव का एक बड़ा मौका होता है.

Update: 2022-01-23 08:41 GMT

महेंद्र पाण्डेय की कविता

Hindi Poems on Elections | दुनिया के बहुत से देश हैं, जो अपने लोकतंत्र या प्रजातंत्र का ढिंढोरा नहीं पीटते, फिर भी उनका प्रजातंत्र जीवंत है और चुनाव जनता के लिए सत्ता के बदलाव का एक बड़ा मौका होता है. दूसरी तरफ हमारे देश में बार-बार सत्ता को अपने भाषणों में शामिल कर बताना पड़ता है की हमारे देश में लोकतंत्र है और चुनाव जनता की लाचारगी का एक नमूना है. हरेक चुनाव में जनता के सामने 8-10 अपराधी खड़े होते हैं और सबसे बड़ा अपराधी अंत में चुनाव जीतता है. हमारे देश में चुनाव के लिए किसी राजनैतिक दल का कोई मुद्दा नहीं रहते, सिवाय एक दूसरे पर फब्तियां कसने और जहर उगलने के. यहाँ खून से सने हाथ लिए नेता सबसे तेजी से क़ानून व्यवस्था की बातें करते हैं. किसी प्रजातंत्र में चुनाव किस तरीके से व्यंग में तब्दील किया जा सकता है, उसका उदाहरण हमारे देश में हरेक चुनाव के समय देखाई देता है.

उमाशंकर सिंह परमार की एक छोटी कविता है, चुनाव – जिसमें वे चुनाव के समय को भूख से बिलबिलाने का वक्त बताते हैं|

चुनाव/उमाशंकर सिंह परमार

आदमी

लाश मे तब्दील

जल उठे

सियासती चूल्हे

पक रही हैं रोटियाँ फरेब की

भूख से बिलबिलाने का

वक़्त आ गया ....

सखि ! चुनाव आ गया

राजीव रंजन ने अपनी कविता, चुनाव, में चुनाव के मौसम को साम्प्रदायिकता के घाव हरे करने का समय बताया है|

चुनाव/राजीव रंजन

फिर से आया मौसम चुनाव का।

गिरगिट सा रंग बदलते दाव का।

गधों के भी बढते बाजार भाव का।

फिर हरे होते संप्रदायिकता के घाव का।

जात-पात के नाम पर बिखराव का।

फिर से आय मौसम चुनाव का।

लक्जरी गाड़ी से भ्रमण गाँव-गाँव का।

उजने कौओं के फिर काँव-काँव का।

मगरमच्छी आँसू ले जनता से जुड़ाव का।

नैतिकता और सुचिता से अलगाव का।

झूठ और फरेब से फिर लगाव का।

मक्कारों के हाथों सत्ता बदलाव का।

फिर से आया मौसम चुनाव का।

उलझाते रंग-बिरंगे नारों के जाल में।

फँसाने को फिर झूठे वादों के चाल में।

काली दाल परोसते हर बार चुनावी थाल में।

तिकड़म ही ढाल होता उनका हर हाल में।

शर्म-हया रखते अन्दर मोटी खाल में।

भोली जनता ही ठगी गयी है हर काल में।

खेवनहार बनना है, डुबने नाली नाव का।

फिर से आया मौसम चुनाव का।

जलज कुमार अनुपम ने अपनी कविता, चुनाव, में बताया है कि जबतक चुनाव का समय रहेगा, बुधन जैसे गरीब लोग भूखे नहीं रहेंगें|

चुनाव/जलज कुमार अनुपम

बुधन ना जात जानता है

ना पंगत पात जानता है

वह भूखा है

भात जानता है

वह ना पंथ जानता है

नाही वाद जानता है

वह दुख से ग्रसित है

अवसाद जानता है

वह चाहता है

निजामो का चुनाव

पाँच साल के बदले

हर साल हो

जिसमें आधे साल प्रचार

और आधे साल सरकार चले

जब तक प्रचार चलेगा

वह भूखा नही रहेगा

जात-पात ,धर्म -पंथ के नाम पर

उसके जैसे करोड़ो का पेट

असानी से भर जाएगा

चुनाव तक वह खुद को भी

निजाम समझ सकता है ।

चुनावों के बाद वादों की दुनिया में धोखा खाने के लिए कुछ भी नहीं होगा, ऐसा धूमिल ने अपनी कविता, चुनाव, में कहा है|

चुनाव/धूमिल

यह आखिरी भ्रम है

दस्ते पर हाथ फेरते हुए मैंने कहा

तब तक इसी तरह

बातों में चलते रहो

इसके बाद...

वादों की दुनिया में

धोखा खाने के लिए

कुछ भी नहीं होगा

और कल जब भाषा...

भूख का हाथ छुड़ाकर

चमत्कारों की ओर वापस चली जाएगी

मैं तुम्हें बातों से उठाकर

आँतों में फेंक दूँगा

वहाँ तुम...

किसी सही शब्द की बगल में

कविता का समकालीन बनकर

खड़े रहना

दस्ते पर हाथ फेरते हुए

मैंने चाकू से कहा

वंदना गुप्ता ने अपनी कविता, चुनावी मौसम की बरसातों में, लिखा है - न केवल तोड़े जायेंगे दूसरे दलों के शीर्ष नेता, बल्कि जरूरी है आज के समय में मीडिया पर भी शिकंजा|

चुनावी मौसम की बरसातों में/वंदना गुप्ता

सुना है एक बार फिर

चुनाव का मौसम लहलहा रहा है

निकल पड़े हैं सब दल बल सहित

अपने अपने हथियारों के साथ

शब्दबाणों का करके भयंकर वार

करना चाहते हैं पूरी सेना को धराशायी

भूलकर इस सत्य को

चुनाव है भाई

यहाँ साम दाम दंड भेद की नीतियां अपनाकर ही

जीती जा सकती है लड़ाई

जी हाँ

न केवल तोड़े जायेंगे दूसरे दलों के शीर्ष नेता

बल्कि जरूरी है आज के समय में

मीडिया पर भी शिकंजा

जिसकी जितनी चादर होगी

उतने पाँव पसारेगा

मगर जिसका होगा शासन

वो ही कमान संभालेगा

करेगा मनमाने जोड़ तोड़

विरोधियों को करने को ख़ारिज

जरूरी है आज

अपनी जय जयकार स्वयं करनी

और सबसे करवानी

बस यही है सुशासन

यही है अच्छे दिन की चाशनी

जिसमे जनता को एक बार फिर ठगने का मौका हाथ लगा है

फिर क्या फर्क पड़ता है

बात पांच साल की है

भूल जाती है जनता

याद रहता है उसे सिर्फ

अंतिम समय किया काम

चुनावी मौसम की बरसातों में भीगने को

कुछ ख़ास मुखौटों की जरूरत होती है

जो बदले जा सकें हर घात प्रतिघात पर

जहाँ बदला जा सके ईमान भी बेईमान भी

और चल जाए खोटा सिक्का भी टंच सोने के भाव

बस यही है अंतिम मौका

करो शब्दों से प्रहार

करो भीतरघात

येन केन प्रकारेण जरूरी है आज

बस चुनाव जीतनाऔर कुर्सी हथियाना

भरोसा शब्द टूटने के लिए ही बना है सभी जानते हैं हा हा हा

रघुवीर सहाय ने अपनी कविता, लोकतंत्र का संकट, में लिखा है - सब व्यवस्थाएँ अपने को और अधिक संकट के लिए तैयार करती रहती हैं और लोगों को बताती रहती हैं कि यह व्यवस्था बिगड़ रही है|

लोकतंत्र का संकट/रघुवीर सहाय

पुरुष जो सोच नहीं पा रहे

किन्तु अपने पदों पर आसीन हैं और चुप हैं

तानाशाह क्या तुम्हें इनकी भी ज़रूरत होगी

जैसे तुम्हें उनकी है जो कुछ न कुछ ऊटपटाँग विरोध करते रहते हैं

सब व्यवस्थाएँ अपने को और अधिक संकट के लिए

तैयार करती रहती हैं

और लोगों को बताती रहती हैं

कि यह व्यवस्था बिगड़ रही है

तब जो लोग सचमुच जानते हैं कि यह व्यवस्था बिगड़ रही है

वे उन लोगों के शोर में छिप जाते हैं

जो इस व्यवस्था को और अधिक बिगाड़ते रहना चाहते हैं

क्योंकि

उसी में उनका हित है

लोकतन्त्र का विकास राज्यहीन समाज की ओर होता है

इसलिए लोकतन्त्र को लोकतन्त्र में शासक बिगाड़कर राजतन्त्र बनाते हैं।

इस लेख के लेखक ने अपनी कविता, राजा मुस्कराता है और कहता है, में सत्ता के चरित्र का खाका खींचा है|

राजा मुस्कराता है और कहता है/महेंद्र पाण्डेय

रक्त-रंजित हाथ हवा में लहराकर

राजा मुस्कराता है और कहता है

हम क़ानून का राज देंगें|

भूखो का निवाला छीनकर

राजा मुस्कराता है और कहता है

हम ही भुखमरी ख़त्म करेंगें|

जनता के पैसे से महल बनवाकर

राजा मुस्कराता है और कहता है

हम सबको झोपडी देंगें|

पूंजीपतियों को सबकुछ सौपकर

राजा मुस्कराता है और कहता है

सबकुछ जनता का है|

खेतों को रौदकर

राजा मुस्कराता है और कहता है

किसानों की आय दुगुनी करेंगें|

अब तो राजा

मुर्दों के बीच जाकर

राजा मुस्कराता है और कहता है

हम सबको साँसें देंगें|

जनता खुश है

बेरोजगार और भूखे भी जश्न मना रहे हैं

राजा मुस्कराता है और कहता है

तुम सब मारे जाओगे|

सुनो, तालियों की आवाज

जनता खुश है, तालियाँ बजा रही है

राजा मुस्कराता है और कहता है

जीत हमारी है| 

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