हजारों जिंदगियां बचा चुका गोताखोर शासन-प्रशासन की अनदेखी से पहुंचा भुखमरी के कगार पर

नफीस कहता है, उसने अब तक हजारों लोगों को डूबते हुए जिंदा बचाया है और हजारों की तादाद में गंगा में डूबी हुई लाशें बाहर निकाली हैं। लोग जिंदा या मुर्दा निकाले गए अपने लोगों को लेकर चले तो जाते हैं, पर दुबारा उसकी तरफ मुड़कर देखते भी नहीं हैं...

Update: 2020-08-12 14:55 GMT

हजारों जिंदगियां बचा चुका गोताखोर नफीस दो वक्त की रोटी के लिए भी है बेहाल

मनीष दुबे की रिपोर्ट

जनज्वार, कानपुर। कानपुर और उन्नाव के बीच स्थित शुक्लागंज गंगाघाट पर हजारों की तादाद में लोग अपनी गुजर बसर करते हैं। यहां बहुतायत आबादी ऐसी है जिसकी दो जून की रोटी गंगा के सहारे चलती है।

किसान, पंडित, मल्लाह समेत ऐसे हजारों लोग गंगा के सहारे जीवन यापन करते हैं। गंगा से ही रोजी-रोटी चलाने वाला एक ऐसा ही शख्स है गोताखोर नफीस। नफीस अपनी जिंदगी के उन तमाम पहलुओं से रू-ब-रू कराता है, जो उसकी जिंदगी का हिस्सा हैं। यह भी कि इतनी कठिन जिंदगी में दो जून की रोटी जुटा पाना कितना मुश्किल काम है।

नफीस महज 14 साल की उम्र से गोताखोरी करने लगा था। उसके पिता भी गोताखोर थे, जिन्होंने उसे तैराकी सिखाई थी। नफीस के पिता का इंतकाल हो चुका है और अब वह खुद 55 वर्ष का हो चुका है। नफीस तब से अब तक गोताखोरी से ही बाल-बच्चे और खुद का जीवन चला रहा है।

नफीस कहता है, उसने अब तक हजारों लोगों को डूबते हुए जिंदा बचाया है और हजारों की तादाद में गंगा में डूबी हुई लाशें बाहर निकाली हैं। लोग जिंदा या मुर्दा निकाले गए अपने लोगों को लेकर चले तो जाते हैं, पर दुबारा उसकी तरफ मुड़कर देखते भी नहीं हैं।

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नफीस से बात करते हुए अहसास हुआ कि वह बेहद संवेदनशील व्यक्ति है। जब हम नफीस के पास पहुंचे तब दिन के ग्यारह साढ़े 11 बज रहे थे। उससे बातचीत के दौरान जब पूछा कि क्या तुमने खाना खाया है। उसने हाथ जोड़कर कहा बाबूजी अभी बिटिया लेकर आएगी। अपनी कहानी बताते हुए वह आधा-पौना घण्टे अपनी नाव में बिठाकर हमें घुमाता रहा।

लगभग एक घंटे बाद हमने उससे बात करने के बाद नाव किनारे लगवाई, मगर सवा 12 बजने के बाद भी न उसकी बेटी आई और न ही उसका खाना ही पहुंचा। जब हमने अपने बैग से उसे खाना निकालकर दिया तो वह फिर हाथ जोड़ लेता है, कहता है बाबूजी आप खाओ। हमारे जोर देने पर नफीस खाना ले लेता है, पर उसकी आंखें छलक जाती हैं।

नफीस कुछ साल पहले के दिनों को याद करते हुए बताता है, लगभग 3 साल पहले एक एक्सीडेंट हुआ था, बस और ट्रक का। सैकड़ों लोग पानी में गिरकर डूब रहे थे। तब स्थानीय प्रशासन ने उसकी मदद मांगी थी। उसने तमाम लोगों को अकेले ही अपनी नाव के सहारे जिंदा बचाया था। ऐसा ही एक एक्सीडेंट रामादेवी में भी हुआ था। उसमें भी नफीस कई जिंदगियों को मौत के मुंह से निकालकर बाहर लाया था। इस सबके बाद वह लखनऊ से लेकर दिल्ली तक दौड़ा, कि उसे किसी घाट पर सरकारी नौकरी दे दी जाए। बावजूद इसके कभी सेटिंग हावी रही तो कभी घूस।

बचपन से गोताखोरी का काम कर रहा नफीस का हमराह उमर बात बात में बताता है कि अभी कल ही हमने डूबते हुए तीन लोगों को बचाया है। 500 रुपये दे गए। आम आदमी की जिंदगी भी क्या 150 रुपये से कम है। लोगों को बचा लो तो मुंह छुपाकर भागते हैं। हमने कई बार कहा कि हमारी तनख्वाह लगा दो, पर कोई सुनता ही नहीं है।

हजारों बार हम लोगों ने नौकरी के लिए आवेदन किया, पर कहीं कोई सुनवाई नहीं की जाती है। जिसकी ऊंची जान पहचान है और लेन देन सेटिंग है उसका काम धड़ल्ले से हो जाता है और हम सब मन मारकर रह जाते हैं। गरीब हैं साहब। गरीब की कोई क्यों सुनेगा।

नफीस ने 14 साल की उम्र से अब 55 वर्ष की उम्र तक कई सरकारें आती जाती बदलती देखीं हैं, पर वह रोज एक जैसी चलती अपनी जिंदगी को कभी नहीं बदल पाया। अबकी बनी भाजपा सरकार में तो और भी सुनवाई नहीं हो रही।

नफीस कहता है, ये भाजपा सरकार तो अब तक की सबसे बेकार सरकार है। कोई सुनता ही नहीं है। लोगों ने बहुमंजिली इमारतें खड़ी कर लीं, लेकिन नफीस अपनी बेटियों की शादी करने तक का खर्च नहीं उठा सकता है। नफीस कहता है बहुत कोशिश करने पर पूरे दिन में 200-300 रुपये की कमाई हो पाती है तो कभी भीख मांगकर खाना पड़ता है।

स्थानीय प्रशासन और सरकार इन लोगों को आज तक नौकरी नहीं दे पाई है। इसका एक पेंच यहां ये भी फंसता समझ में आता है कि इन जैसे तमाम गोताखोरों पर सरकारी मुहर लगने के बाद सरकारी खजाने से रुपया खर्च करना पड़ेगा। वो रुपया जिसपर शायद सरकार, नेताओं और सरकारी कर्मचारियों का कॉपीराइट होता होगा।

किसी की जान माल की मदद करते हुए यदि इन पर कोई आंच आ भी जाये तो सरकार अपना पल्ला झाड़ सकती है। घर—परिवार मुहल्ले के लोग यदा-कदा धरना इत्यादि करेंगे भी तो ज्यादा से ज्यादा लाख 50 हजार ले-देकर मामला शांत करवा दिया जाएगा, जबकि सरकारी मुहर लगने के बाद इन्हें 50 या एक करोड़ रुपये देना पड़ सकता है। इसे सरकारी नीतियों वाली एक बड़ी जीत के नाम पर भी गिना जा सकता है।

रिटायरमेंट की उम्र के नजदीक पहुँच चुके नफीस को अपनी अंधेरी जिंदगी में अब भी उजाला होने की उम्मीद बाकी है। उसे लगता है एक दिन आएगा जब उसे एक अदद सरकारी नौकरी जरूर मिलेगी।

कहता है साहब सरकार से हमारा इत्ता भर काम करवा देव, तुम्हें गुलाब की माला पहनाकर कंधे में बिठाकर घुमाउंगा। उसकी बात सुनकर हम भी सरकार और उसकी कारगुजारियां याद कर ठंडी सांस छोड़ते हुए मन में कहा 'जय चांदी के श्री राम'। लेकिन इसके इतर इन लोगों का भला सरकार और इनके नुमाइंदों के रहते शायद प्रभु श्रीराम भी ना कर पाएं। 

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