बढ़ती गरीबी और बेरोजगारी के बीच अर्थव्यवस्था के रंगीन सपने बेचती सरकार, 5 प्रतिशत अमीर हैं देश की 60 फीसदी संपदा पर काबिज
पिछले दशक के दौरान दुनिया में अरबपतियों की संख्या दुगुनी से अधिक बढ़ गयी तो दूसरी तरफ वैश्विक स्तर पर अत्यधिक गरीबी में जिन्दा रहने वाली आबादी भी तेजी से बढी। अमीरों के कर माफ़ किये जाते रहे और गरीबों को करों के बोझ से लाद दिया गया....
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
Despite tall claims on economic rise of India, two new reports tell its flaws. भारत की अध्यक्षता में जी20 नई दिल्ली घोषणापत्र में कहा गया है, “हम ऐसे विकास मॉडल अपनाएंगे जिससे वैश्विक स्तर पर सतत, समावेशी और न्यायसंगत बदलाव देखने को मिलेंगें, और कोई भी इससे वंचित नहीं रहेगा।” इस घोषणा पत्र की सत्ता के गलियारों और मीडिया में खूब तारीफ़ की गयी और अब तो इसे चुनावी तमाशों में भी सुनाया जा रहा है। इन सुनहरे और रंगीन दावों के बीच देश की बर्बादी का आलम तो देखिये - वर्ष 2022 में देश के अरबपतियों की अर्थव्यवस्था में 46 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज की गयी, तो दूसरी तरफ देश में परिवारों की बचत पिछले 50 वर्षों के सबसे निचले स्तर पर पहुँच गयी और 25 वर्ष तक की उम्र के स्नातकों के बीच बेरोजगारी दर 42.3 प्रतिशत पहुँच गयी।
प्रधानमंत्री जी के तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था और 5 ख़रब वाली अर्थव्यवस्था के दावों के बीच आर्थिक असमानता का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा कि देश की आबादी में सबसे अमीर लोगों की महज 5 प्रतिशत आबादी के पास देश की 60 प्रतिशत सम्पदा है, तो दूसरी तरफ सामान्य आबादी वाले घरों की बचत वर्ष 2022-2023 में देश की कुल जीडीपी के 5.1 प्रतिशत तक सिमट गयी है, जो वर्ष 2021-2022 में 7.2 प्रतिशत और वर्ष 2020-2021 में 11.5 प्रतिशत थी।
रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया के अनुसार घरेलू बचत के कम होने के साथ ही घरेलू वित्तीय भार भी बढ़ रहा है। वर्ष 2022-2023 में यह जीडीपी का 5.8 प्रतिशत था, जबकि इससे पिछले वर्ष यह 3.8 प्रतिशत ही था। यह वित्तीय भार आजादी के बाद से दूसरी बार सबसे अधिक रहा है। इससे पहले वर्ष 2006-2007 में यह 6.7 प्रतिशत रहा था। परिवारों पर लोन का बोझ बढ़ता जा रहा है। स्वीकृत लोन वर्ष 2022-2023 में कुल जीडीपी का 37.6 प्रतिशत था, जबकि इससे पिछले वर्ष यह 36.9 प्रतिशत ही था। एक तरफ बचत में कमी तो दूसरी तरफ महंगाई और वित्तीय बोझ ने देश के माध्यम वर्ग और गरीबों की कमर तोड़ दी है, तभी सत्ता और मीडिया अर्थव्यवस्था के सुनहरे भविष्य को गढ़ने में लगी है।
जाहिर है रिज़र्व बैंक की इस रिपोर्ट के बाद जब मीडिया में यह खबर आने लगी तभी वित्त मंत्रालय ने आनन-फानन में एक वक्तव्य जारी कर बताया कि अर्थव्यवस्था की स्थिति ऐसी नहीं है जैसा रिपोर्ट में बताया गया है। वित्त मंत्रालय के अनुसार अब मध्यम वर्गीय परिवार कारों और घरों में निवेश कर रहा है, तभी ऐसे आंकड़े सामने आये हैं। इतने के बाद वित्त मंत्रालय ने सबूत के तौर पर एक आंकड़ा प्रकाशित किया है, जिससे उसके अनुसार स्पष्ट होता है कि माध्यम वर्गीय परिवार पहले से अधिक समृद्ध और खुशहाल है, पर यह आंकड़ा मध्ययम वर्गीय परिवारों की बढ़ती बदहाली की ओर ही इशारा कर रहा है। मंत्रालय के अनुसार वर्ष 2021 में परिवारों ने 22.8 लाख करोड़ रूपए की वित्तीय संपत्तियां जोड़ी थीं, जो वर्ष 2022 में घटकर 17 लाख करोड़ रूपए की रह गईं और वर्ष 2023 आते-आते ये 13.8 लाख करोड़ रूपए पर सिमट गईं।
अभी इस खबर पर चर्चा चल ही रही थी, तभी बेरोजगारी से सम्बंधित अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट “स्टेट ऑफ़ वर्किंग इंडिया” मीडिया तक पहुँच गयी। इसके अनुसार 25 वर्ष तक की उम्र के स्नातकों में बेरोजगारी दर 42.3 प्रतिशत है, 25 से 29 वर्ष के बीच के स्नातकों और उच्च शिक्षा प्राप्त आबादी में बेरोजगारी दर 22.8 प्रतिशत और 25 वर्ष से कम उम्र वाले माध्यमिक शिक्षा प्राप्त युवाओं में यह दर 21.4 प्रतिशत है। रिपोर्ट में कहा गया है देश में बेरोजगारी कम हो रही है, पर आमदनी स्थिर है। इससे इतना तो स्पष्ट है कि राजगार के बाद अब वेतन में कमी आ रही है। शहरी महिलाओं और पुरुषों के बीच बेरोजगारी दर क्रमशः 9.9 प्रतिशत और 7.8 प्रतिशत है। इसी तरह ग्रामीण महिलाओं और पुरुषों में बेरोजगारी दर क्रमशः 4.5 प्रतिशत और 6.5 प्रतिशत है। इन आंकड़ों से इतना तो पता चलता है कि देश में रोजगार के सन्दर्भ में अब शिक्षा और कौशल का कोई महत्त्व नहीं है। कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी कम हो रही है – 2022 में कृषि क्षेत्र में 69.1 प्रतिशत महिला कामगार थीं जबकि वर्ष 2021 में इनकी भागीदारी 72.4 प्रतिशत थी।
जी20 सम्मेलन से पहले दुनिया के 300 से अधिक अरबपतियों, अर्थशास्त्रियों और प्रबुद्ध व्यक्तियों ने जी20 देशों के राष्ट्राध्यक्षों के नाम एक खुला पत्र लिखा था, जिसमें कहा गया था कि दुनिया में आर्थिक समानता, पारिस्थिकीतंत्र संरक्षण, मानवाधिकार और राजनैतिक स्थिरता के लिए आवश्यक है कि अमीरों पर करों का दायरा बढाया जाए और उनसे संपत्ति कर वसूला जाए। इससे वैश्विक स्तर पर अत्यधिक गरीबों की संख्या में कमी और खतरनाक स्तर तक पहुँच चुकी असमानता को कम करने में मदद मिलेगी।
ऑक्सफेम की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले दशक के दौरान दुनिया में अरबपतियों की संख्या दुगुनी से अधिक बढ़ गयी तो दूसरी तरफ वैश्विक स्तर पर अत्यधिक गरीबी में जिन्दा रहने वाली आबादी भी तेजी से बढी। अमीरों के कर माफ़ किये जाते रहे और गरीबों को करों के बोझ से लाद दिया गया। इस पत्र के अनुसार अमीरों पर करों का बोझ डाल कर वैश्विक असमानता को कम किया जा सकता है, जिससे दुनिया में शांति और सुरक्षा बढ़ेगी। पर, अरबपतियों के बल पर चलती भारत समेत दूसरे अमीर देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने इस पत्र को कचरे में फेंक दिया।
हाल में ही जर्मनी में किये गए एक अध्ययन में कहा गया है कि लोकलुभावनवादी सत्ता देश की अर्थव्यवस्था को कमजोर करती है। इस अध्ययन में वर्ष 1900 से 2020 तक 50 देशों के सत्ता पर काबिज 51 राष्ट्रपतियों या प्रधानमंत्रियों के अर्थव्यवस्था सम्बंधित नीतियों का बारीकी से अध्ययन किया गया। इस अध्ययन से इतना स्पष्ट होता है कि लोकलुभावनवादी सत्ता भले ही राजनीतिक तौर पर सफल हो पर 15 वर्षों के भीतर ही देश की अर्थव्यवस्था और जीवन स्तर को 10 प्रतिशत से अधिक पीछे धकेल देती है।
अध्ययन का दुखद पहलू यह है कि इस समय पूरी दुनिया के 25 प्रतिशत से अधिक देशों में ऐसी सत्ता है और यह संख्या इतिहास के किसी भी दौर की तुलना में अधिक है। दूसरा निष्कर्ष यह भी है कि ऐसी सत्ता सामान्य सत्ता की तुलना में दुगुने समय तक शासन पर काबिज रहती है। लोकलुभावनवादी सत्ता हमेशा संवैधानिक और वित्तीय संस्थाओं की उपेक्षा करती है।
इस अध्ययन के अनुसार ऐसी सत्ता जनता के लिए सिगरेट की तरह काम करती है – शुरू में यह लत अच्छी लगती है, जोश भरती है, पर बाद में यही लत जान ले लेती है। दुखद यह है कि हमारे देश में यही हो रहा है।