Music Protects Life And Environment : इस मशहूर गीतकार के एक गीत ने सैकड़ों लोगों को आत्महत्या से रोका, अब संगीत से पर्यावरण बचाने की मुहीम

Music Protects Life And Environment : संगीत में इस समय पर्यावरण को बचाने की मुहिम चल रही है, पर संगीत का जन्म ही प्रकृति की आवाजों से हुआ है। संगीत उद्योग पर्यावरण से पूरी तरह से दूर हो चुका था, पर अब यह प्रकृति की आवाजों पर वापस ध्यान देने लगा है....

Update: 2021-12-21 12:43 GMT

महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण

Music Protects Life And Environment : ब्रिटिश मेडिकल जर्नल (British Medical Journal) में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार अमेरिका में एक गाने ने सैकड़ों लोगों को आत्महत्या करने से रोका, और साथ ही आत्महत्या रोकने से सम्बंधित हेल्पलाइन पर मदद माँगने वालों की संख्या भी कई गुना बढ़ गयी। अमेरिका (USA) के एक मशहूर रैप गायक और गीतकार हैं- लॉजिक (Logic)। वर्ष 2017 में इनका एक रैप गाना आया था, जिसका शीर्षक था- 1-800-273-2255। दरअसल यह कोई बेतुका नंबर नहीं है, बल्कि अमेरिका में आत्महत्या निवारण के लिए जारी किया गया हेल्पलाइन नम्बर (Helpline Number of Suicide Prevention Agency of USA) है।

ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित शोधपत्र के अनुसार लॉजिक ने यह गाना 28 अप्रैल 2017 को रिलीज़ किया था, और इसके दो महीने बाद तक गूगल पर हेल्पलाइन की जानकारी लेने वालों की संख्या 10 प्रतिशत तक बढ़ गयी थी। इसी अवधि के दौरान अमेरिका में हेल्पलाइन पर फोन करने वालों की संख्या 7 प्रतिशत बढ़ गयी थी, और आत्महत्या की दर में 6 प्रतिशत की कमी आ गयी थी।

लॉजिक का पहला म्यूजिक एल्बम वर्ष 2014 में रिलीज़ किया गया था, और अबतक उनके 7 एल्बम रिलीज़ किये जा चुके हैं। वे काफी लोकप्रिय गायक हैं और दो बार ग्रैमी पुरस्कारों के लिए नामित किये गया हैं। उनके गाने रिलीज़ होने के बाद कई हफ्ते तक म्यूजिक चार्ट में पहले 10 गानों में शामिल रहते हैं। जुलाई 2020 में पारिवारिक कारणों से वे संगीत से दूर चले गए थे, पर इस वर्ष फिर से उनकी वापसी हो गयी है।

उन्होंने अपने चर्चित गाने, 1-800-273-2255 को एमटीवी पर 27 अगस्त 2017 को और ग्रैमी पुरस्कार समारोह में 28 जनवरी 2018 को गाया था। लॉजिक से जब इस गाने के बारे में पूछा गया, तब उनका जवाब था – इससे पहले बहुत सारे श्रोता मुझसे कहते थे, तुमने आपने गाने से मेरी जान बचा ली, तब मुझे एहसास हुआ कि क्यों न श्रोताओं के लिए सही में एक जान बचाने वाला गाना करूँ, और यह उसी के लिए एक प्रयास था।

संगीत केवल लोगों की जिंदगियां नहीं बचा रहा, पर संगीत उद्योग अब जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि को कम करने के लिए प्रतिबद्ध है। दुनिया की तीन सबसे बड़ी संगीत कम्पनियां – सोनी म्यूजिक एंटरटेनमेंट, यूनिवर्सल म्यूजिक ग्रुप और वार्नर म्यूजिक ग्रुप – ने अन्य कई संगीत कंपनियों के साथ एक म्यूजिक क्लाइमेट समझौता (Music Climate Pact) किया है और पूरे विश्व में इसकी सराहना की जा रही है। इसके अंतर्गत शामिल म्यूजिक कम्पनियां वर्ष 2030 तक कार्बन उत्सर्जन को आधा और वर्ष 2050 तक शून्य (Carbon Nutral) करने को प्रतिबद्ध हैं।

म्यूजिक कम्पनियां और दूसरी सम्बंधित कंपनियों पर भी कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए दबाव बना रही हैं। स्पोटीफाई जैसे स्टीमिंग कंपनियों पर भी यह दबाव बढ़ रहा है। बड़े संगीत कंसर्ट आयोजन जो पूरे दुनिया का दौरा करते हैं, भी लगातार अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन के कारण चर्चा में रहे हैं। अब, ऐसे दौरों में भी कार्बन उत्सर्जन में कटौती के प्रयास किये जा रहे हैं, और अनेक कलाकार इसके लिए तैयार हो गए हैं।

संगीत में इस समय पर्यावरण को बचाने की मुहिम चल रही है, पर संगीत का जन्म ही प्रकृति की आवाजों से हुआ है। संगीत उद्योग पर्यावरण से पूरी तरह से दूर हो चुका था, पर अब यह प्रकृति की आवाजों पर वापस ध्यान देने लगा है। पिछले तीन वर्षों से उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों पर तेजी से पिघलते ग्लेशियर से टकराने वाली हवा की आवाजों, ग्लेशियर के टूटने और चटखने की आवाजों और इनसे गिरती पानी की बूंदों की आवाजों का उपयोग कर अनेक म्यूजिक विडियो तैयार किये गए और ये बहुत पसंद भी किये गए।

अब ऑस्ट्रेलिया में एक नए म्यूजिक एल्बम में 53 ऐसे पक्षियों का कलरव है, जो विलुप्तीकरण के कगार पर हैं। यह म्यूजिक एल्बम इसी महीने लांच किया गया है और सबसे अंत के म्यूजिक पॉपुलैरिटी चार्ट में पांचवे स्थान पर पहुँच गया है। आबा और मारिया कैरी जैसे विश्विख्यात बैंड और गायक भी इस चार्ट में पक्षियों की आवाजों से पीछे हैं। बोवेरबर्ड (Bowerbird Collective) नामक संस्था जो ऑस्ट्रेलिया के पक्षियों पर कई दशकों से अध्ययन कर रही है, ने डेविड स्टीवर्ट (David Stewart) के साथ मिलकर इस अल्बम को तैयार किया है, और इसे तैयार करने में चार दशक लगे। यह समय पक्षियों की आवाजों को रिकॉर्ड करने में लगा। इ

स म्यूजिक अल्बम का नाम है, सोंग्स ऑफ़ डिसएपीयरेंस (Songs of Disappearance)। इसके पहले ट्रैक में वायलिन वादक सिमोने स्लात्तेरी की धुनों के साथ सभी 53 पक्षियों की आवाज का कोलाज़ है, और शेष ट्रैक पक्षियों की अलग-अलग आवाजें हैं। बर्डलाइफ ऑस्ट्रेलिया (Birdlife Australia) नामक संस्था ने कुछ महीनों पहले ही एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसके अनुसार ऑस्ट्रेलिया के लगभग 17 प्रतिशत पक्षियों की प्रजातियाँ विलुप्तीकरण की तरफ बढ़ रही हैं। इस अल्बम में कुछ ऐसे भी पक्षियों की आवाजें हैं, जो पिछले 4 दशकों के भीतर ही विलुप्त हो गए। इस अल्बम से होने वाली आमदनी बर्डलाइफ ऑस्ट्रेलिया को दी जायेगी।

पक्षियों की आवाजों के महत्त्व पर भी अनेक अध्ययन किये गए हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ़ एक्सटर और ब्रिटिश ट्रस्ट फॉर ओर्निथोलोजी (University of Exter & British Trust for Ornithology) द्वारा संयुक्त तौर पर किये गए एक अध्ययन के अनुसार शहरी क्षेत्रों में, विशेष तौर पर गरीब इलाकों में, मधुर आवाज वाले पक्षी कम होते हैं और परेशान करने वाले पक्षी अधिक। यह अध्ययन जर्नल ऑफ़ एप्लाइड इकोलॉजी (Journal of Applied Ecology) के अंक में प्रकाशित किया गया है। अध्ययन के अनुसार, शहरों में प्रतिव्यक्ति पक्षियों की संख्या ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा कम होती है, इनमे भी जो पक्षी अच्छे लगते हैं वे बहुत कम होते हैं। हरेभरे स्थानों पर पक्षियों की संख्या शहरों की अपेक्षा 3.5 गुना अधिक होती है। वैज्ञानिकों के अनुसार जब आपके सामने तरह तरह की चिड़िया होती हैं या आप उनका कलरव सुनते है, तब आपका तनाव, उदासी और अवसाद ख़त्म हो जाता है। डॉ डेनियल कॉक्स (Dr Daniel Cox), जो यूनिवर्सिटी ऑफ़ एक्सटर में वैज्ञानिक हैं, के अनुसार यदि मीठा बोलने वाली चिड़ियों की संख्या प्रतिव्यक्ति 1.1 से अधिक होती है तब लोग तनाव कम महसूस करते हैं। वैसे भी प्राकृतिक आवास में वन्य जीव तो हम देख नहीं पाते, पर पक्षियों के देखकर यह अहसास जरूर होता है।

मानव जीवन में संगीत और गाना हरेक काल और हरेक संस्कृति में रहा है। इसके बाद भी संगीत कभी एक जैसा नहीं रहा और ना ही हरेक उद्देश्य के लिए संगीत का एक ही स्वरुप रहा है। थिरकने, बच्चों को शांत कराने या फिर प्यार का इजहार करने जैसे विभिन्न उद्देश्यों के लिए संगीत और गाने भी बदल जाते हैं। ऐसा हरेक संस्कृति और समुदाय में होता है और हरेक काल में होता आया है। जन-जातियों या फिर दुनियाभर के ग्रामीण क्षेत्रों में, जहां संगीत का स्वाभाविक विकास होता रहा है और अभी तक तकनीक और प्रोद्योगिकी से अछूता है, लोक-गीतों के माध्यम से उनके विकास को समझा जा सकता है, उनके आपसी सम्बन्ध को समझा जा सकता है और फिर उनसे प्रकृति के सम्बन्ध को समझा जा सकता है। जर्नल ऑफ़ एथनोबायोलॉजी (Journal of Ethnobiology) तो इस विषय पर एक पूरा संस्करण प्रकाशित कर चुका है। इसके सम्पादन का जिम्मा यूनिवर्सिटी ऑफ़ हेलसिंकी के डॉ अल्वेरो फेर्नान्देज़ ल्लामज़रेस ने उठाया था।

डॉ अल्वेरो फेर्नान्देज़ ल्लामज़रेस के अनुसार लोकगीत जनजातियों की भावनाओं को प्रकट करने का सबसे मुख्य माध्यम रहा है। यह माध्यम इतना सशक्त रहा है कि इससे ही दूसरी जनजातियों से संवाद स्थापित किया जा सकता था और यहाँ तक कि अनेक बार पशुओं और वृक्षों से भी लोकगीतों के माध्यम से संवाद किया जाता था। यह सब संवाद या ज्ञान मानव इतिहास की एक दुर्लभ धरोहर हैं और डॉ अल्वेरो फेर्नान्देज़ ल्लामज़रेस के अनुसार इन्हें सहेजकर रखना आवश्यक है।

संगीत और लोक-गीतों का असर क्या किसी संस्कृति या समुदाय तक सीमित रहता है, या फिर इनका असर सार्वभौमिक है – इस प्रश्न का उत्तर हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के सैमुएल मैहर और मानवीर सिंह ने खोजने का प्रयास किया है। करंट बायोलॉजी नामक जर्नल के वर्ष 2018 के जनवरी अंक में प्रकाशित शोधपत्र के अनुसार लोकगीतों का प्रभाव सार्वभौमिक है और भाषा से परे है।

जाहिर है, संगीत हमारे जीवन का और समाज का अभिन्न अंग है, पर तथाकथित विकास ने इसका दायरा संकुचित कर दिया है – अंधे विकास के साथ ही संगीत का मौलिक स्वरुप गौंड हो गया है, और अब तो शोर में तब्दील हो चूका है। हाल के वर्षों में अनेक वैज्ञानिक और समाजशास्त्री प्रकृति के संगीत को जीवंत करने का प्रयास कर रहे हैं।

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