किसान आंदोलन: मटर-धान की खेती का फर्क मालूम नहीं, 'जीरे की खेती' का बताया जा रहा फ़ॉर्मूला

किसानों की समस्याओं को मुंशी प्रेमचंद का गोदान और पूस की रात पढ़कर एक ना आंकिए, देशकाल अब बदल गया है, आजादी के बाद गोदान और पूस की रात के इलाके भी बदल गए हैं....

Update: 2020-12-18 07:33 GMT

वरिष्ठ पत्रकार अनुज शुक्ला का विश्लेषण

किसान आंदोलन। दो मोर्चे। दोनों आमने-सामने। हर कोई मददगार और हर कोई सवाल उठाने वाला। लेकिन असल मुद्दे तक कोई पहुंच नहीं पा रहा। कोशिश ही नहीं कर रहा। इसलिए कि पहुंचना ही नहीं चाहता। किसान आंदोलन के पक्ष की बात हो या विपक्ष की, किसानों के लिए दोनों ओर दयावानों की कोई कमी फिलहाल नहीं है। दयावानों की दुहाइयों से तो अब भ्रम यकीन में बदल रहा है कि 'नए क़ानून आने' और "नए कानूनों के खात्मे" से कुछ कम पर किसानों का भला नहीं होने वाला। कुछ वरिष्ठ पत्रकार जो अपने स्वर्णिम 'टीवीकाल' में किसानों की तकलीफ पर सेकेंड भर के लिए भी स्टूडियो से बाहर नहीं निकले थे वो भी आजकल सोशल मीडिया पर फोटो लाइक्स और यूट्यूब रेवेन्यू के लिए आंदोलनकारी पत्रकार बन चुके हैं। मसीहा पत्रकार। अच्छी बात है। नकारात्मकता का भी अपना एक बाजार है। डिमांड-सप्लाई का चक्र।

मैं खुद को किसान नहीं कहता। हूं भी नहीं। और मेरे यहां अभी खेती जिस हालत में है भविष्य में भी किसान बनकर जीवनयापन की कल्पना तक करने की नहीं सोच पाता लेकिन एक किसान परिवार से ताल्लुक रखता हूं। धान और मटर की खेती का फर्क जानता हूं और ये पता है कि आलू-मूली-गाजर जमीन के अंदर उगने वाली सब्जियां हैं और गेहूं, दालें जमीन के ऊपर। बथुआ-पुदीना पानी के किनारे। सिंघाड़ा पानी में। मैंने खेती तो नहीं की लेकिन अपने घरवालों को खेत में हल खींचते देखा है, बिजली का इंतज़ार करते देखा है, खराब ट्रांसफार्मर बनवाने के लिए निजी खर्चे पर शहर की बिना वजह भागदौड़ करते देखा है। बेमौसम बारिश से परेशान होते देखा है और हाड़ कंपा देने वाली पूस की रातों में नंगे हाथ-पैर, गेहूं के खेत में पानी संभालते देखा है। हमारे यहां का भूगोल और कृषि तंत्र ऐसा नहीं है कि किसान पाइप से फसलों पर पानी के छींटे मार सके। लाखों करोड़ों की मशीनों से धान-गेहूं की कटाई-मड़ाई कर सके।

आपने कभी देखा है किसी शहरवाले को बिजली का ट्रांसफार्मर लेकर दौड़ते हुए? शहरवालों को तो यह भी पता नहीं होगा कि उनके घर की बिजली का कनेक्शन किस ट्रासफार्मर से जुड़ा है। एक बार घर से अपना ट्रांसफार्मर खोजने निकलिए कभी। मैं जिस इलाके से हूं वहां के लोगों को अभी भी सरकार के कई सारे काम खुद करने पड़ते हैं। ट्रांसफार्मर की मरम्मत और उसे बदलवाना भी उसमें शामिल है। बेमौसम की बारिश में जब आप अपनी बालकनी से इन्स्टाग्राम रील का कंटेंट बना रहे होते हैं उसी वक्त हमारे यहां (अवध, पूर्वांचल, बुंदेलखंड) जिनके परिवारों का भरण-पोषण खेती से हो रहा होता है- मातम मनाते हैं। नींद से उठकर चारपाई पर बैठ जाते हैं। पाला जितना तेज, कोहरा जितना घना और ओसारे (आप पोर्च कहते होंगे) से पानी जितना तेज बहता है बड़े बुजुर्ग का अनाम देवताओं के लिए आह्वान उतना ही तेज हो जाता है। इस आह्वान में मैंने ऐसे-ऐसे देवताओं के नाम सुने हैं जिनके जिक्र मुझे कहीं और सुनने को नहीं मिले।

कुछ लोग कह रहे हैं कि हरियाणा और पंजाब के किसान देशभर के किसानों के हक़ की आवाज उठा रहे हैं। देशभर के किसानों का हक मगर कैसे? किसानों की समस्याओं को मुंशी प्रेमचंद का गोदान और पूस की रात पढ़कर एक ना आंकिए। देशकाल अब बदल गया है। आजादी के बाद गोदान और पूस की रात के इलाके भी बदल गए हैं। इस देशकाल में मैं पंजाब और हरियाणा की खेती और किसानी को देखता हूं तो अपने यहां (समूचे अवध, पूर्वांचल और बुंदेलखंड) की खेती से तुलना करने पर दोनों को चाहकर भी एक नहीं कर पाता। किसी भी विंदु पर एक नहीं दिखते। इसका मतलब ये नहीं है कि मैं पंजाब और हरियाणा के किसानों की मांग को नाजायज मानता हूं। और ये भी नहीं कह रहा कि पंजाब हरियाणा के आंदोलनकारी किसानों की मांग से अन्य किसानों को फायदा नहीं मिलेगा।

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लेकिन जिस किसान को सालों बाद खेत के पास नहर मिली और उसमें तीस साल से पानी ही नहीं आ रहा है, जिस किसान के गांव में सरकारी ट्यूबवेल सालभर में 6 महीने बंद पड़े रहते हैं, जहां ट्रांसफार्मर खराब रहने पर 15 दिन का इंतज़ार करना पड़ता है, जहां दिन में सिंचाई के लिए पर्याप्त बिजली भी नहीं मिलती, जहां फसलों के भंडारण की व्यवस्था ही नहीं है, जहां की सरकार स्थानीय भूगोल के आधार पर किसानों को संसाधन नहीं देती, जहां के किसानों की असंख्य दिक्कतों को अनंतकाल से सुनने की कोशिश तक नहीं हुई भला वो कैसे खुद को पंजाब और हरियाणा के किसानों के साथ कतार में खड़ा देख सकता है? अगर वो देख रहा है तो निश्चित ही एक खुशनुमा भ्रम पाले बैठा है।

मैं जहां के किसानों की बात कर रहा हूं MSP तो उनके लिए बहुत आगे का प्रश्न है, MSP तक पहुंचने से बहुत-बहुत-बहुत पहले ही उनकी उम्मीदों का दम टूट जाता है। भला पौड़ी गढ़वाल के किसानों की समस्या शिमला के किसानों की समस्या कैसे हो सकती है? उत्तराखंड के गांव के गांव शहरी मजदूर बन गए और किसी ने गौर नहीं किया। मैं जहां की बात कर रहा हूं ऐसा नहीं है कि वहां के किसान नाकारा हैं और वहां की मृदा-जलवायु किसी काम की नहीं। यहां बर्फीले इलाके की फसल को छोड़कर अधिकांशत: फसलें उगाई जा सकती हैं।

ऐसा भी नहीं है कि पारंपरिक खेती से निकलने की यहां कोशिश भी नहीं की गई। चाहे महुआ कोंदो रामदाने से निकलकर गेहू धान उपजाने की कोशिश, गेहू धान से निकलकर केला बंडा हल्दी उपजाने की कोशिश हो, कपास से निकलकर सोयाबीन उपजाने की कोशिश, पपीते में उम्मीदें पाली, टमाटर, मिर्च पता नहीं क्या-क्या किया। लेकिन संसाधन और सिस्टम की कमी ने उसे हर बार पहले के मुकाबले बर्बाद किया। डंकल के बाद तो बीज पर किसान का अधिकार ही नहीं रहा। डंकल के बाद उपज तो बढ़ी मगर फायदे के मुकाबले लागत का चक्र भी कई गुना बढ़ गया। उसके हालत पहले जैसी ही। मैं जहाँ की बात कर रहा हूं (दुर्भाग्य से ज्यादातर जगहें इसमें शामिल हैं) वहां के किसान खेती इसलिए करते हैं कि भोजन के लिए अनाज ना खरीदना पड़े। बहन-बेटी की विदाई में बोरी भरकर चावल दे सकें। खेत 'परती' (ऐसा खेत जिसमें उपजाने के लिए बीज जी नहीं डाले गए) ना रहे। फायदे का तो वो सपने में भी नहीं सोचता।

उसकी दिक्कतें सुनी ही नहीं गई। उसे शहरी जरूरतों को पूरा करने में आपने शहर का मजदूर बना लिया। हो सकता है कि इसके पहले जो आंदोलन (सरकारी कर्मियों के भत्ते और वेतन की मांगों को लेकर आंदोलन) हुआ हो उसकी वजह से भी ऐसे कई किसान परिवारों का दम निकला हो। दरअसल, आप ना तो किसानों के लिए नया क़ानून ला रहे हैं और ना ही देशभर के किसानों के लिए नए क़ानून के खात्मे की मांग कर रहे हैं। आप देशभर के किसानों के लिए ईमानदार भी नहीं हैं। फ़ार्म पॉलिटिक्स पर पंजाब हरियाणा का नियंत्रण है और मजबूत फ़ार्म पॉलिटिक्स का उन्हें फायदा भी मिला है। वो जिस चीज के लड़ रहे हैं उससे उन्हें आगे भी फायदा मिलेगा। लेकिन इस बात को हमेशा याद रखिए कि जैसे इस देश में भाषा के साथ भूगोल भिन्न है वैसे ही किसानों की समस्याएं भी। उन्हें एकजैसा देखने के साथ ही एक जैसा बनाने की कोशिश से बचना चाहिए।

अलग क्लाइमेट के बावजूद नासिक का किसान जालंधर अमृतसर की बराबरी कर सकता है मगर यूपी के इलाहाबाद-मिर्जापुर जिले का किसान भला कैसे कर्नाटक के डीके डिस्ट्रिक में काजू रबड़ उगाने वाले किसानों की बराबरी में कहां आ सकता है। कसीं कर्जमाफी नहीं है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक सबको लाभ मिलेगा। इस फर्क और इसके पीछे की वजहों को समझना चाहिए। पंजाब हरियाणा के आंदोलनकारियों को केंद्र सरकार से अगली बातचीत या अपनी मांगों के दायरे में उन बिंदुओं को भी रखना चाहिए जिसकी वजह से किसान पैदा करने वाले इलाके मजदूरों के इलाके में तब्दील हो गएं। पंजाब, हरियाणा और वेस्ट महाराष्ट्र को अपने लालची और गैरजरूरी हिस्से का बलिदान भी करना पड़ेगा। 

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