घोषित तौर पर निरंकुश देश अल्जीरिया में मॉब लिंचिंग के 49 दोषियों को मृत्युदंड और हमारे प्रजातांत्रिक देश में होता है फूल मालाओं से स्वागत
हमारे देश में मॉब लिंचिंग के गुनाहगारों को आसानी से बचाया जा सकता है, और प्रशासन, पुलिस, न्यायालय की मदद से पीड़ितों को ही दोषी ठहरा कर आजीवन जेलों में बंद किया जा सकता है...
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
The Court sentenced death penalty to 49 convicts in mob lynching case in Algeria. हमारे देश में वर्ष 2014 के बाद से मॉब लिंचिंग एक सामान्य घटना बन गयी है, जिसके तहत सत्ता, प्रशासन और पुलिस के संरक्षण में एक विशेष भीड़ भरे चौराहे पर दिन-दहाड़े किसी की भी हत्या कर सकती है, और करती भी है। ऐसे हत्यारे सत्ता पक्ष में नायक का दर्जा पाते हैं, और फिर जल्दी ही राज्यों की विधानसभा या फिर संसद में पहुँच जाते हैं। प्रशासन और पुलिस इन हत्यारों की इस कदर हमदर्द बन जाती है कि जिसकी हत्या होती है, उसके परिवार वाले ही गुनाहगार करार दिए जाते हैं।
मॉब लिंचिंग का व्यापक प्रयोग सत्ता ने वर्ष 2002 के गुजरात दंगों के दौरान किया था – यह प्रयोग सफल रहा और इससे यह भी स्पष्ट हो गया कि मॉब लिंचिंग के गुनाहगारों को आसानी से बचाया जा सकता है, और प्रशासन, पुलिस और न्यायालय की मदद से पीड़ितों को ही दोषी ठहरा कर आजीवन जेलों में बंद किया जा सकता है।
गुजरात दंगों ने यह भी साबित कर दिया कि देश की जनता का मौलिक रुझान हिंसक है, और वह मतदान करते समय ऐसे ही लोगों का समर्थन करती है। इन सबके बाद भी सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग बेशर्मी से भारत को प्राचीनतम और सबसे बड़ा प्रजातंत्र बताते हैं। हमारे देश में मॉब लिंचिंग के लिए अलग से कोई क़ानून नहीं है, पर न्यायालयों के ऐसे मामलों में दिशानिर्देश हैं, जिनकी लगातार अवमानना की जाती है। ऐसे मामलों में शायद ही कभी असली दोषियों को कभी भी सजा हुई होगी। कुछ मामलों में जनता के दबाव में दोषियों को अगर सजा भी होती है, तो वे कुछ दिनों बाद ही बेल पर बाहर आ जाते हैं, और उनका स्वागत करने सत्ता पक्ष के प्रतिनिधि मीडिया के कैमरे के सामने ढोल-नगाड़े, लड्डुओं और फूल-माला के साथ करते हैं।
दूसरी तरफ अफ्रीकी देश अल्जीरिया, घोषित तौर पर एक निरंकुश शासन वाला देश है, पर वहां मॉब लिंचिंग के एक मामले में 49 दोषियों को मृत्युदंड की सजा सुनाई गयी है और अन्य 38 दोषियों को 2 से 12 वर्ष तक कारावास की सजा दी गयी है। फ्रीडम हाउस के अनुसार प्रजातंत्र के सन्दर्भ में यह स्वतंत्र देश नहीं है। यह पूरा मामला उत्तर-पूर्व अल्जीरिया के कबाईल क्षेत्र का है, जहां के जंगलों में अगस्त 2021 में भीषण आग लगी थी। यह पूरा क्षेत्र पहाडी और घने जंगलों से भरा है। जंगलों में लगी इस आग में लगभग 100 स्थानीय निवासियों और आग पर काबू करने में लगे सेना के जवानों की मृत्यु हो गयी थी, और हजारों घर तबाह हो गए थे।
इस क्षेत्र से लगभग 320 किलोमीटर दूर एक चित्रकार और कलाकार, जमील बेन इस्माइल ने जब यह खबर सुनी, तो स्थानीय निवासियों की मदद करने का फैसला लिया। अगले दिन जमील बेन इस्माइल जब आग से सबसे अधिक प्रभावित लार्बा नाथ इरात्हें गाँव पहुंचे तब गाँव के स्थानीय निवासियों ने उन्हें जगलों में आग लगाने वाला समझ लिया, और स्थानीय निवासियों की एक भीड़ ने उनपर हमला कर दिया। वहां मौजूद सेना के जवानों ने बीच में हस्तक्षेप किया और फिर इस्माइल को सुरक्षित करने के लिए स्थानीय पुलिस स्टेशन पहुंचा दिया।
पुलिस स्टेशन से जब सेना के जवान दूर चले गए, तब लगभग 100 व्यक्तियों की स्थानीय भीड़ ने पुलिस स्टेशन पर हमला कर जमील बेन इस्माइल को घसीट कर बाहर निकाला और फिर भीड़ में पीट-पीटकर उनकी ह्त्या कर दी। इस मौब लिंचिंग की तस्वीरें सोशल मीडिया पर भी डाली गईं। जब ऐसी सोशल मीडिया पोस्ट पर कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की निगाह पड़ी, तब इन कार्यकर्ताओं ने इस पूरी घटना की जानकारी एकत्रित कर न्यायालय में इस मॉब लिंचिंग के विरुद्ध मुक़दमा दायर किया, जिसका फैसला हाल में ही आया है।
एक निरंकुश सत्ता वाले देश में होने वाली यह घटना और फिर न्यायालय का फैसला तथाकथित प्रजातांत्रिक देशों के मुंह पर एक करारा तमाचा है। स्थानीय निवासियों की मदद का सपना संजोये 320 किलोमीटर की दूरी तय कर पहुंचे जमील बेन इस्माइल को आग लगाने वाला मान कर उनकी मौब लिंचिंग एक झकझोर देने वाली घटना जरूर है, पर पूरी घटना को गौर पर देखने पर इसमें अनेक मानवीय पक्ष भी नजर आते हैं।
सेना के जवानों का हस्तक्षेप और पीड़ित को सुरक्षित कंरने का इरादा, पुलिस द्वारा भारी भीड़ के आगे बेबस होने तक पीड़ित की रक्षा करना, निरंकुश सत्ता में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का जज्बा, पूरी जांच में पुलिस की तत्परता और निष्पक्षता और फिर न्यायालय द्वारा एक निष्पक्ष फैसला – यह सब तो तथाकथित स्वस्थ्य प्रजातंत्र का दिखावा करने देशों में भी नहीं होता है। दूसरे देशों में जहां सत्ता और न्यायालय अपनी पीठ थपथपाते हुए तमाम प्रचार करते हुए फ़ास्ट-ट्रैक कोर्ट का गठन करने के बाद भी कई सालों तक किसी नतीजे पर नहीं पहुंचते, वहीं अल्जीरिया में एक वर्ष के भीतर ही सामान्य और नियमित न्यायालय ने एक निष्पक्ष फैसला सुना दिया।
यदि ऐसी ही घटना हमारे देश में होती तो 100 हमलावर और हत्यारे अब तक दुनिया के सबसे बड़े राजनीतिक दल के सदस्य बन चुके होते, पुलिस उन्हें तमाम सुरक्षा प्रदान करती और न्यायालयें जमील बेन इस्माइल के परिवार वालों को दोषी ठहरा रही होतीं और मीडिया उन्हें आतंकवादी साबित कर चुका होता। प्रधानमंत्री जी तो पहले ही जमील बेन इस्माइल जैसे लोगों को अर्बन नक्सल बता चुके हैं।