क्या भारत के संभ्रांत वर्ग ने आमजन के सुख-दुःख से मुंह मोड़ लिया है ?

ऐसे साक्ष्य बहुत अधिक नहीं हैं जो यह दिखाते हों कि कड़ा दंड उतना डर नहीं पैदा करता है जितना इसे करना चाहिए था। शोध में यह बात सामने आई है कि कठिन हालातों में जेल में डालना अक्सर अधिक हिंसक अपराध को जन्म देता है....

Update: 2021-06-16 04:10 GMT

  रोहिणी नीलेकणि का विश्लेषण

ये बहुत महत्वपूर्ण है कि सुप्रीम कोर्ट औपनिवेशिक काल के देशद्रोह क़ानूनों पर पुनर्विचार कर रहा है। ये क़ानून अपनी जन्मभूमि इंग्लैण्ड से तो रुखसत कर दिए गए थे लेकिन भारत की हर सरकार ने इन्हें ख़त्म करना तो दूर उल्टे असहमति का गला घोंटने के लिए इनका बढ़-चढ़ कर इस्तेमाल ही किया है। हालाँकि देशद्रोह का क़ानून उन क़ानूनों के पहाड़ की सबसे ऊंची चोटी पर विराजमान है जिन्हें नए सामाजिक नज़रिये से देखे जाने की ज़रुरत है।

हममें से बहुत से लोग इस मुग़ालते में रहते हैं कि हम अच्छे, क़ानून को मानने वाले लोगों में से हैं। हमारा यह विश्वास है कि क़ानूनों को बनाने के पीछे अव्वल दर्जे की निजी और जन कल्याण की भावना काम करती है। हम उन सभी क़ानूनों को पालन करने की कोशिश करते हैं जिन्हें हम जानते हैं। ऐसा करके हम एक ऐसे समाज में भागीदारी करते हैं जो क़ानून की सत्ता के माध्यम से अच्छी तरह चलाया जाता है। हम जेल जाने के लिए या अपने जेलों के हालात को ले कर बहुत चिंतित नहीं होते हैं। हम ऐसा कुछ करने की कल्पना भी नहीं कर सकते जो हमें जेल की सलाखों के पीछे डाल दे। अगर ग़लती से हम पकड़े भी गए तो निश्चय ही कोई ना कोई रास्ता तो निकल ही आएगा। जेल की सलाखें तो दूसरों के लिए हैं।

क्या समय आ गया है कि हम इन सभी पूर्व धारणाओं पर फिर से विचार करें ?

अगर सरसरी तौर से भी नज़र डालें तो हमारे बहुत से क़ानून अपराध के समानुपात में दंड या जेल की सज़ा का प्रावधान नहीं करते हैं। बहुत से क़ानून तो सार्वजानिक व्यवस्था बनाये रखने की ज़िम्मेदारी सरकार और इसकी मशीनरी के कन्धों से उतार कर नागरिक विशेष और उसकी गतिविधियों पर थोप देते हैं। एक ही मारक कदम के साथ इस तरह के क़ानून आम नागरिकों को अपराधियों में तब्दील कर देते हैं। दुःख होता है कि बहुत से क़ानून तो बिना संसदीय बहस के पास कर दिए गए हैं। ना ही उन मुद्दों पर जनता के बीच में व्यापक लम्बी बहसें हुयी हैं जिन्हें हमें रात भर जगाये रखना चाहिए।

उदाहरण के तौर पर क्या आपको पता था कि अगर आप अपने कुत्ते को ठीक तरह से नहीं टहलाते हो तो आपको गिरफ्तार भी किया जा सकता है। इसमें अधिकतम सज़ा 3 महीने की है। क्या आप समझ सकते हो कि प्रतिबंधित धागे से पतंग उड़ाना आपको 2 साल के लिए जेल की हवा खिला सकता है। यह भी कि बिना बीमा के गाड़ी चलाने पर 3 महीने तक जेल में सडना पड़ेगा ? ये तो बस थोड़े बहुत उदाहरण भर हैं फिर भी ज्यादातर नागरिकों को कानून निर्माण या अपराधिक न्याय से खुद को जोड़ना मुश्किल लगा है।

दशकों से या कहें कि सदियों से बहुत सारे कठोर कानून तो चले ही आ रहे हैं, साथ ही सरकार को असीमित ताकत देने वाले नए कानूनों और नियमों को भी गढ़ लिया गया है। गनीमत है कि बोलने की आजादी और निजता पर अंकुश लगाते हालिया कानूनों पर आम लोगों के बीच बहस छिड़ी हुई है। जनभावना की ऐसी ही एक जीत के चलते आई टी कानून की धारा 66 ए को गैर-संवैधानिक घोषित कर दिया गया। निस्संदेह बोलने की आजादी संबंधी बहुत से प्रतिगामी कानून अभी भी मौजूद हैं लेकिन कुछ हद तक सोशल मीडिया के देशव्यापी इस्तेमाल के चलते और ज्यादा नागरिक अपने जीवन में इन कानूनों के यंत्रणा दायक असर को महसूस कर रहे हैं।

चलिए एक और हालिया उदाहरण लेते हैं। महामारी के सुचारु प्रबंधन के लिए सरकार ने 2005 का आपदा प्रबंधन कानून लागू किया। लेकिन अगर सख्ती से लागू किए जाएँ तो कोविड-19 से जुड़े कई नियम लाखों नागरिकों को जेल भिजवाने की क्षमता रखते हैं। कोविड-19 को ले कर झूठी खबरें फैलाने पर एक साल की जेल हो सकती है, झूठी ख़बरों में व्हॉट्स ऐप के ज़रिये भेजे गए वे सन्देश भी शामिल हैं जो बाद में झूठे पाए गए। तकनीकी रूप से देखें तो ज़रूरी बना दिए गए फेस मास्क को बिना न्यायोचित कारण के नहीं पहनना भी आपको एक साल तक जेल में डाल सकता है।

हो सकता है कि इनमें से कुछ क़ानून लागू नहीं किये जा सकते हों या फिर उन सरकारी अधिकारियों की पैनी नज़र से बच जाते हों जिन्हें इन क़ानूनों के तहत गिरफ़्तार करने का अधिकार है। लेकिन महत्व की बात तो ये है कि वे अब भी क़ानून की किताब में मौजूद हैं। और हालात ऐसे बन सकते हैं कि ग़ैर-इरादतन उल्लंघन के चलते कोई ज़रुरत से ज़्यादा परेशानी में पड़ सकता है। मेरे द्वारा ज़िक्र किये गए क़ानूनों के तहत वाकई गिरफ्तारियां हुयी हैं।

अब सवाल यह है कि क्या ग़ैर-अनुपातिक सज़ा से लैस इन क़ानूनों को वाकई बने रहना चाहिए ? क्या ऐसे क़ानूनों को पास करने से पहले उन्हें समझा नहीं जाना चाहिए। क्या वो उन उद्देश्य और मक़सद को पूरा करते हैं जिसके लिए वे बनाये गए थे यानी कि सार्वजनिक व्यवस्था और सुरक्षा ?

ऐसे साक्ष्य बहुत अधिक नहीं हैं जो यह दिखाते हों कि कड़ा दंड उतना डर नहीं पैदा करता है जितना इसे करना चाहिए था। शोध में यह बात सामने आई है कि कठिन हालातों में जेल में डालना अक्सर अधिक हिंसक अपराध को जन्म देता है। दूसरी तरफ़, भारत में मुक्त जेल सहित मजबूती देने वाली न्याय व्यवस्था से उत्साहवर्धक आंकड़े सामने आ रहे हैं। क्या हम इस साक्ष्य का इस्तेमाल कर सज़ा देने वाली अपनी न्याय व्यवस्था को ज़्यादा न्यायपूर्ण, अधिक मानवीय और अपराध कम करने में ज़्यादा असरदार बनाने की पुनर्कल्पना नहीं कर सकते हैं ?

अभी तक हम संभ्रांतों ने क़ानून-निर्माण और जेल सुधार सम्बन्धी गंभीर आम बहस में हिस्सा नहीं लिया है। लॉकडाउन की कड़ियों ने हममें से बहुतों को वास्तविक क़ैद के भयावह नकली रूप से रूबरू करा दिया। तो क्या इसे समाज के लिए इस बात का एक अवसर माना जाय कि समाज उन क़ानूनों की चर्चा में ज़्यादा उत्साह से भागीदारी करे जो क़ानून आसानी से अपराधी घोषित कर देते हैं। और फिर वहां से आपराधिक न्याय के ज़्यादा व्यापक मुद्दों पर चर्चा करें ? इन व्यापक मुद्दों में ज़रुरत से ज़्यादा भरे हुए हमारे जेलों में, जहां 70 फीसदी बंदी विचाराधीन मासूम हैं, मानव अधिकार के अतिक्रमण का भी मुद्दा है।

सुप्रीम कोर्ट अब देशद्रोह के मसले को चर्चा में ले आया है। महामारी ने आपदा प्रबंधन क़ानून की कलई खोल दी है। समय आ चुका है कि हम क़ानून बनाने वालों यानी कि सांसदों और विधायकों से इस बारे में गहरा विमर्श करें कि अच्छे क़ानून कैसे एक बेहतर समाज का निर्माण कर सकते हैं। आई टी क़ानून की धारा 66 ए पर हुए गहरे जन विमर्श का ही परिणाम था कि उसे रद्द कर दिया गया।

भारत के संभ्रांत वर्ग ने आम जन सेवाओं से खुद को अलग रखने का महारथ हासिल कर लिया है, फिर चाहे वो शिक्षा का क्षेत्र हो,स्वास्थ्य का मसला हो या फिर यातायात और ऊर्जा का क्षेत्र ही क्यों न हो। प्रदूषण और महामारी ने हमें इस वीभत्स वास्तविकता के प्रति जागरूक बना दिया है कि हम प्रदूषित वायु और विषैले जीवाणुओं से बच नहीं सकते हैं। सच तो ये भी है कि हम ख़राब क़ानूनों से भी बच नहीं सकते।

(रोहिणी नीलेकणि अर्घ्यम संस्था की अध्यक्ष हैं। अभिव्यक्त किये गए विचार उनके निजी हैं। उनका यह आलेख पहले हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित किया जा चुका है।) 

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