वरवर राव की रिहाई तो अदालत से होगी, हिंदी के कवियों को कौन रिहा करेगा?

वरवर राव की जेल उतनी मज़बूत नहीं है, जितनी हिंदी की जेल है, हिंदी का कवि अपने बनाये अनगिनत कैदखानों में बंधा पड़ा है। राव की रिहाई तो अदालत से होगी, हिंदी के कवियों को कौन रिहा करेगा? ....

Update: 2020-07-18 11:32 GMT

वरिष्ठ पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव का साप्ताहिक कॉलम 'कातते-बीनते'

तेलुगु के कवि व साहित्य आलोचक वरवर राव अस्पताल में भर्ती हैं और हिंदी के कवि व साहित्यकार जेल में बंद हैं। जेल में बंद आदमी ज्यादा हाथ पैर नहीं मार पाता। चुपचाप मिली हुई रोटी तोड़ता है और सो जाता है। हां, उसके एवज में कोई बोल दे तो बेहतर। प्रलेस, जलेस, जसम, दलेस, इप्टा जैसे लेखक संगठनों ने यह एवजी भूमिका एक साझा बयान जारी करके निभा दी है। कुछ भले लोग हैं बनारस और इलाहाबाद में अब भी, जिन्होंने वरवर राव की रिहाई के लिए आवाज़ उठा दी वरना बाकी का सारा विरोध और प्रदर्शन एक्टिविस्टों के जिम्मेे। क्या यह महज संयोग है कि राष्ट्रीय स्ववयंसेवक संघ के मुखपत्र से लेकर अखबारों और सोशल मीडिया के मंचों तक एक कवि के कवि होने पर ही सवाल उठाया जा रहा है और साहित्यकारों की ओर से कोई प्रतिवाद देखने को नहीं मिल रहा?

थोड़ा पीछे चलते हैं। बात 2007 की है जब डॉ. बिनायक सेन को पहली बार माओवादी समर्थक होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। दिल्ली में उनकी रिहाई के लिए एक कमेटी का गठन हुआ जिसकी घोषणा के लिए विमेन प्रेस क्लब में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलायी गयी थी। इसे दिल्ली‍ यूनिवर्सिटी के शिक्षक अपूर्वानंद सम्बोधित कर रहे थे। उस कॉन्फ्रेंस में अपूर्वानंद ने कई बार एक ही बात पर ज़ोर दिया था कि डॉ. सेन माओवादी नहीं हैं। किसी ने इस बीच उनसे एक सवाल पूछ दिया कि अगर वे माओवादी निकले तो क्या उनकी रिहाई के लिए यह कमेटी आवाज़ नहीं उठाएगी? इस सवाल को 'हाइपोथेटिकल' कहकर उन्होंने टाल दिया था।

जिस तरह डॉ. बिनायक सेन का चिकित्सक होना असंदिग्ध था, बिलकुल वैसे ही वरवर राव का कवि होना एक असंदिग्ध तथ्य है। हां, माओवादी विचारधारा के साथ अपने ताल्लुकात को वरवर राव ने खुद कभी नहीं नकारा। वे अपने नाम के आगे 'क्रांतिकारी कवि' लगाना पसंद करते हैं और यह बात हिंदी जगत में उन्हें जानने वाले हर लेखक को अच्छे से पता है। उनके बारे में कुछ भी 'हाइपोथेटिकल' नहीं है। बावजूद इसके, यलगार परिषद के जिस केस में उन्हें अंदर रखा हुआ है सरकार ने, उसके आरोपों का उनकी वैचारिक आस्था से कोई लेना-देना नहीं है। दोनों बिलकुल अलहदा बातें हैं।

संदर्भ आया है, तो याद दिला दूं कि अरूप भुइयां के मामले में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन जज मार्कण्डेंय काटजू ने केदारनाथ बनाम बिहार राज्यपाल (1962) में संविधान पीठ के हवाले से और अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों के माध्यम से कहा था कि 'महज एक प्रतिबंधित संगठन का सदस्य होने से कोई व्यक्ति अपराधी नहीं हो जाता जब तक कि उसने हिंसा न की हो, हिंसा के लिए लोगों को भड़काया न हो या हिंसा के माध्यम से सार्वजनिक शांति को भंग न किया हो।'

मौजूदा केस में वरवर राव पर प्रधानमंत्री की हत्या के षडयंत्र में शामिल होने का आरोप है। इस आरोप पर अदालतों को फैसला करना है और उस फैसले से नौ और लोगों की किस्मत बंधी हुई है जिसमें नामी लेखक, पत्रकार, शिक्षक, वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता शामिल हैं। इस एक आरोप से उनकी अपनी निजी पहचानें, जो उन्होंने विशेषज्ञता के क्षेत्र में कमायी हैं, धूमिल नहीं हो जातीं। बिनायक सेन के लिए दुनिया भर के डॉक्टर आगे आये थे। सुधा भारद्वाज के लिए तमाम वकील सामने आये। गौतम नवलखा और आनंद तेलतुम्बडे के लिए अमेरिका के कमिटी टु प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स (सीपीजे) ने बयान जारी किया और दुनियाभर के बुद्धिजीवियों व लेखकों ने आवाज़ उठायी।


इनमें से किसी के भी मामले में हमने उसके अपने पेशे पर सवाल उठता नहीं देखा। यह बिरादरी के लोगों की पहल का असर रहा। फिर पंद्रह कविता संग्रहों के लेखक, तेलुगु आलोचना में युग प्रवर्तन करने वाले सभी भाषाओं में अनुवादित और पचास साल का शैक्षणिक जीवन बिता चुके वरवर राव के कवि होने पर उठ रहे बुनियादी सवाल को कैसे देखा जाए? जाहिर है, हर कवि को हर समाज नहीं जानता लेकिन यह तो कवि बिरादरी की जिम्मेजदारी बनती है कि वह व्यापक पाठक समाज को जेल में बंद कवि और उसके कामों से परिचित करवाये! मुट्ठी भर, वो भी तकरीबन निष्क्रिय हो चुके, लेखक संगठनों के साझा बयान के पीछे और आगे क्या इतना निर्वात है हिंदी में?

लॉकडाउन से उपजी जेल तो साफ़ दिखती है, जिसमें सवा सौ करोड़ लोग तीन महीने से बंद पड़े हैं। मजबूरी है कि घर में बैठकर बहुत कुछ नहीं किया जा सकता। इसके अलावा हालांकि एक और जेल है जिसमें हिंदी के लेखक कवि बरसों से बंद हैं, बस उन्हें इसका अहसास तक नहीं है। वरवर राव ने इस अदृश्य जेल को दिखाने की एक कोशिश आज से सात साल पहले की थी लेकिन दिल्ली में किसी ने उन पर कान तक नहीं दिया। अंतरंग कोनों में खुद को नक्सलबाड़ी धारा से प्रेरित, प्रभावित, कहने वाले और इस तमगे पर मचलने वाले स्वसयंभू कवि भी आज तक उनके एक सवाल का जवाब नहीं दे पाये जो उन्‍होंने 6 अगस्त 2013 को एक सार्वजनिक पत्र में उठाया था।

मामला मरहूम राजेंद्र यादव द्वारा 31 जुलाई 2013 को 'हंस' की सालाना संगोष्ठी में बुलाये जाने और राव द्वारा उसके बहिष्कार के बाद उपजी उस बहस का था, जिसका मंच था 'जनसत्ता' और जिसके झंडाबरदार थे वही डॉ. अपूर्वानंद, जिनके लिए एक पत्रकार का सवाल 'हाइपोथेटिकल' था। वरवर राव ने अशोक वाजपेयी और गोविंदाचार्य के साथ मंच साझा करने से इनकार करते हुए हंस की गोष्ठी का बहिष्कार करने पर अपना एक लिखित वक्तव्य 31 जुलाई 2013 को ही दिया था। उन्होंने उन्हें सुनने आये श्रोताओं से माफी की दरख्वास्त की थी। इस पत्र के जबाब में 'जनसत्ता' अखबार के तत्कानलीन संपादक ओम थानवी ने 'हंस अकेला' शीर्षक से एक संपादकीय लिख मारा। उसके दूसरे दिन अपूर्वानंद ने 'प्रेमचंद परंपरा का दायरा' शीर्षक से एक लेख लिखकर अशोक वाजपेयी के विरोध के विशिष्ट संदर्भ में वरवर राव की अनुपस्थिति की काफी सख्त पड़ताल की।

ब्लॉग पर इस पत्र के आने के बाद टिप्पणियां लिखी गयीं और राव के बारे में क़यास लगाया गया कि उन्होंने किसी के उकसावे या बहकावे में आकर इस तरह का पत्र लिखा। इसके बाद 6 अगस्त को अंग्रेज़ी में वरवर राव का दूसरा बयान आया, जिसे आज फिर से पढ़ा जाना बहुत ज़रूरी है। यह पत्र पढ़कर हम दो बातें समझ सकेंगे: पहली, कि खुद को 'नक्सलबाड़ी की धारा' से प्रेरित/प्रभावित कवि कहने वाले हिंदी के मूर्धन्य क्यों आज वरवर राव के मसले पर चुप हैं। दूसरी, दिल्ली की वह उदार वाम बिरादरी जो हर मुद्दे पर अदालत में सुनवाई से पहले ही मीडिया और सार्वजनिक स्पेस में ट्रायल कर देने की माहिर है, जिसने आज से दस साल पहले तक बिनायक सेन को रिहा करवाने में एड़ी चोटी का जोर लगा दिया था, राव के मुद्दे पर आज आखिर वह क्यों चुप है।

नीचे पढि़ए 'हंस' की गोष्ठी के बहिष्कार पर 'जनसत्ताप' में खड़ी की गयी बहस पर वरवर राव का बयान (6 अगस्तु 2013):

'अशोक वाजपेयी कारपोरेट घरानों और सत्ता के गलियारे से पूरी तरह नत्थी हैं, इस बात से अस्वीकार शायद ही किसी को है। उन्हें 'धर्मनिरपेक्ष' बताकर उनकी प्रगतिशीलता सिद्ध करने का तर्क दिया गया है। विनायक सेन की रिहाई के लिए अकादमी में जगह बुक कराने के लिए सहर्ष सहयोग के आधार पर उन्हें प्रगतिशील बताया गया है। अशोक वाजपेयी को प्रगतिशील सिद्ध करने के आग्रह के दौरान उतनी ही बार मुझे 'संकीर्ण' भी बताया गया जो सिर्फ 'अपनों' के बारे में बात करता है और 'दूसरों' के बारे में चुप रहता है। यह तर्क और उसका निष्कर्ष जितना गुस्से का परिणाम है उससे अधिक साहित्य और राजनीति में घट रही घटनाओं में पक्षधरता और सक्रियता का भी परिणाम है।

लगभग दो साल पहले जीतन मरांडी को निचली अदालत द्वारा दी गई फांसी की सजा के खिलाफ संस्कृति कर्मियों द्वारा दिल्ली में बुलाई गई मीटिंग में मदन कश्यप ने धर्मनिरपेक्षता को वर्ग दृष्टिकोण से देखने का आग्रह किया था। वे ठीक ही इस बात को रेखांकित कर रहे थे। मैं उनकी इस बात में इतना ही और जोड़ देना चाहता हूं कि भारत की धर्मनिरपेक्षता में धर्म के दृष्टिकोण से भी देखने की जरूरत है। हिंदी साहित्य में इन दिनों सीआईए द्वारा की गई 'साहित्य सेवा' के विवाद के केंद्र में जो मुख्य बात दिख रही है वह यह कि साहित्य, साहित्य है।

यही स्थिति देश में 'विकास की राजनीति' की है जिसे नरेंद्र मोदी करे तो अच्छा और टाटा-अंबानी-एस्सार करे तो अच्छा, के राग पर आगे बढ़ाया जा रहा है। यही स्थिति जन हितों की रक्षा का हो गया है जिसके झंडाबरदार आज एनजीओ की गैंग ने उठा रखा है। इनका राजनीति, साहित्य, जनसंगठन के स्तर पर विरोध संकीर्णता के दायरे में रखकर देखा जाने लगा है। इस 'संकीर्णता' को उदार लोकतंत्र की जड़ में मट्ठा डालने की तरह देखा जा रहा है। यह एक भयावह स्थिति है…

तेलुगु और हिंदी साहित्य हाल के दिनों में कमोबेश एक जैसी ही घटना और विवाद से ग्रस्त रहे हैं। जब यहां मारुति मजदूरों का आंदोलन हो रहा था तो उसके सामानान्तर कान्हा रिसॉर्ट में वहां की परियोजना से प्रभावित होते लोगों से बेखबर होकर कविता पाठ का आयोजन किया गया। हमारे यहां भी मजदूरों के दमन के समय गोदावरी नदी पर तैरती नावों पर पंडाल बनाकर कविता पाठ आयोजित किया गया। हिंदी में जितना यह मुद्दा विवादित रहा उतना ही तेलुगु में भी यह विवाद जोर पकड़ा। हिंदी के विश्व सम्मेलन जैसी ही स्थिति तेलुगु के विश्व सम्मेलन की स्थिति बन गई है। इस समानता और विभिन्नता के कई बिंदु हैं जिसमें कारपोरेट सेक्टर, फासिस्ट ताकतों और सत्ता की घुसपैठ एक मुख्य पहलू है। इनके हस्तक्षेप से साहित्य में तेजी से एक विभाजक रेखा पैदा हुई है और इसका असर तेजी से फैला है। 'उदार लोकतंत्र' के हवाले से अपूर्वानंद का तर्क ऐसे ही विभाजक स्थिति को दिखाता है।'

वरवर राव जिस अदृश्य जेल की बात कर रहे थे वह अशोक वाजपेयी की जेल है। वह कॉरपोरेट पैसे से चलने वाले साहित्य उत्सवों का कैदखाना है। अब इस बयान को पढ़ने के बाद उन कवियों या लेखकों के नाम खोजिए जो अशोक वाजपेयी या उनके रज़ा फाउंडेशन के लाभार्थी न रहे हों। अगर आपको कुछ नाम मिलेंगे भी, तो ये वही होंगे जो फिलवक्त इलाहाबाद, पटना या बनारस में हाशिये पर हैं फिर भी राव की रिहाई के समर्थन में आवाज़ बुलंद किए हुए हैं। दिल्ली में अशोक वाजपेयी के तम्बू के नीचे कभी न कभी रसरंजन कर चुके कवि या लेखक वरवर राव को असमय श्रद्धांजलि देने वालों में शामिल हो चुके हैं। क्योंकि जेल में केवल श्रद्धांजलि दी जा सकती है, प्लेकार्ड नहीं उठाया जा सकता।

वरवर राव के लिखे पत्र का आखिरी पैरा पढ़ें

'साहित्य का इतिहास और उसकी परंपरा इस गोल गोल घूमने वाले दुष्चक्र से निकल कर आगे जाने की रही है। प्रेमचंद ने इसी जिम्मेदारी को मशाल की तरह आगे चलने के बिम्ब की तरह ग्रहण किया और इस बात को जोरदार ढंग से कहा। तेलुगु के महान आधुनिक कवि श्री श्री ने इसी जिम्मेदारी को उठाने के लिए सक्रिय भागीदार होने का आह्वान किया। मैं ऐसी ही सीधी भागीदारी का तरफदार हूं। मुझे खुशी है ऐसी सीधी भागीदारी के तरफदारों, खासकर युवा पीढ़ी की काफी संख्या है जो आज के हालात में खड़े होने, बोलने और सक्रिय होने का साहस रखते हैं।'

ये जो सीधी भागीदारी की तरफ़दारी है, वही हिंदी के लेखक कवियों को दुष्कर लगती है। 2005 में पहली बार हिंदी में वाणी प्रकाशन से वरवर राव का कविता संग्रह 'साहस गाथा' छपने के बाद हिंदी के प्रदेश में राव का आना-जाना जब बढ़ा, तो मोहभंग की अवस्था में पस्त हिम्मंत हिंदी के कुछ लेखक कवियों को एक उम्मीद की रोशनी दिखी। उन्हें प्रेरणा मिली। वे वरवर राव का नाम जपने लगे। आज वरवर राव जेल में हैं, अस्पताल में हैं, तो इस प्रेरणा से कुछ निकल नहीं पा रहा। नपुंसक हो गयी है यह प्रेरणा। इसलिए क्योंकि बरसों से हिंदी के कवि की स्थिति आधी रात ठंडे तालाब में पैठे बीरबल जैसी है जो दूर जल रहे वरवर राव नाम के दीये से अपना काम चला रहा था। 'सीधी भागीदारी की तरफ़दारी' वाली जो बात राव ने आज से सात साल पहले कही थी, उसे हिंदीवालों ने सुना ही नहीं। वे दीये से दूर से ऊर्जा लेते रहे। न अशोक वाजपेयी हैं अभियान चलाने के लिए, न अपूर्वानंद हैं कमेटी बनाने के लिए। इन लोगों ने संवाद के दरवाज़े तभी बंद कर लिए थे। चूंकि पहल करने वाला कोई नहीं और दीया अब बुझ रहा है, तो ठंड के मारे सब नीले पड़े हुए हैं।

वरवर राव की जेल उतनी मज़बूत नहीं है, जितनी हिंदी की जेल है। हिंदी का कवि अपने बनाये अनगिनत कैदखानों में बंधा पड़ा है। राव की रिहाई तो अदालत से होगी। हिंदी के कवियों को कौन रिहा करेगा? 

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