UP Election 2022 : उत्तर प्रदेश में कौन बनेगा मुख्यमंत्री?
UP Election 2022 : भले हिन्दू मुस्लिम चलता नहीं दिख रहा, लेकिन हिन्दू मुस्लिम पूरी तरह फ्लॉप भी नहीं हुआ है। जातिगत राजनीति में भी भाजपा ने अगड़ा पिछड़ा का कार्ड खेला और अखिलेश को जातिवादी राजनीति के नरेटिव में फँसाने की कोशिश की....
धनंजय कुमार की टिप्पणी
UP election 2022 : यूपी विधानसभा चुनाव 2022 के लिए आज आखिरी चरण का मतदान हो रहा है! शाम तक मतपेटी में जनता के मत लॉक हो जाएंगे और वे पेटियाँ 10 मार्च को खोली जाएंगी, मतों की गणना होगी और घोषित होगा- किस पार्टी को कितनी सीटें मिलीं और कौन सी पार्टी सरकार बनाने की स्थिति में है।
लेकिन मीडिया में आज शाम से ही सर्वे के आधार पर घोषणाएं शुरू हो जाएंगी। एंकर के साथ विशेषज्ञ पत्रकार से लेकर विभिन्न पार्टियों के प्रवक्ताओ-नेताओं के साथ बहसें चालू हो जाएंगी और एंकर से लेकर नेता तक अपनी अपनी पसंद के हिसाब से मुख्यमंत्री बनाएंगे। हंग असेंबली की स्थिति में क्या क्या समीकरण बने-बिगड़ेंगे, इस पर भी गरमागरम बहस होगी।
जो बीजेपी समर्थक हैं वे बीजेपी की वापसी के दावे कर रहे हैं, जो बीजेपी विरोधी हैं सपा की वापसी के दावे कर रहे हैं। बसपा और मायावती की वापसी पर मीडिया आश्वस्त नहीं है, लेकिन मायावती खुद दावा कर रही हैं उनकी पार्टी को बहुमत मिलेगा और उनकी सरकार बनेगी। कांग्रेस पार्टी और उसके कार्यकर्ता किसी किस्म के दावे से बच रहे हैं। मीडिया कह रहा है, बेशक प्रियंका गांधी ने चुनाव से पहले से अपने पक्ष में माहौल बनाया है, लेकिन काँग्रेस के पास संगठन का पावर नहीं है, तो तमाम तरीके के दावे-विश्लेषण होंगे, लेकिन फाइनल रिजल्ट तो 10 मार्च को ही आना है।
मैंने यूपी चुनाव की मतदान की प्रक्रिया शुरू होने से पहले ही कहा था कि इस बार यूपी में हंग असेंबली होगी और ऐसी परिस्थति में कांग्रेस सपा को सपोर्ट करेगी और अखिलेश के नेतृत्व में सरकार बनेगी। मैंने यह भी कहा था कि कांग्रेस को सरकार में शामिल होना चाहिए और खुद प्रियंका गांधी को कोई मंत्रालय लेना चाहिए, बेहतर हो महिला एवं बाल कल्याण विकास मंत्रालय का जिम्मा संभालें और अपना ऑफिस लखनऊ में रखने के बजाय बनारस में रखें। इससे अखिलेश पर नैतिक दबाव रहेगा, कांग्रेसी कायकर्ताओं का मनोबल बढ़ेगा और बनारस से प्रियंका बिहार को भी मैसेज देने का काम करेंगी। कांग्रेस अगर यह स्ट्रेटजी अपनाती है, तो निश्चित तौर पर आने वाले लोकसभा चुनाव में बीजेपी के लिए मुश्किलें खड़ी होंगी और कांग्रेस दिल्ली की सत्ता का प्रबल दावेदार बनके उभरेगी।
कई लोगों को लग रहा है कि हंग असेंबली संभव नहीं है; बीजेपी की वापसी होगी, क्योंकि हिंदुत्ववादी एजेंडा अभी कमजोर नहीं पड़ा है। अखिलेश राज के यादवराज वाली गुंडागर्दी, मुस्लिम परस्ती और परिवारवाद से परेशान लोग योगी सरकार ही चाहते हैं, क्योंकि योगी ने गुंडों पर लगाम लगाया है। योगी खुद बुलडोजर तंत्र को सुशासन के हथियार के तौर पर पेश करते रहे।
हालांकि अखिलेश और उनके समर्थकों ने आरोप लगाया कि योगी सिर्फ विरोधियों पर निशाना लगाते रहे, गुंडे उनके राज में ज्यादा सुरक्षित हैं। पुलिस ने भी योगी के इशारे पर गुंडों की तरह काम किया। कमजोर दलितों से लेकर विकास दुबे जैसे दबंग योगी की पुलिस के शिकार हुए। दूसरी तरफ अखिलेश को देखें, तो पिछले पाँच सालों में विपक्ष में रहकर क्या किया, ये बड़ा सवाल है।
पिछले कुछ सालों में विपक्ष के नेता के तौर पर कोई नेता सड़क पर उतरा तो वो थी प्रियंका गांधी। अखिलेश यादव सिरे से गायब रहे और चुनाव की घोषणा से कुछ दिन पहले ही सक्रिय हुए। बावजूद इसके योगी या कहें बीजेपी के मुकाबले मीडिया से लेकर आम आदमी तक ने अखिलेश को ही विकल्प के तौर पर दखा। कारण बताया प्रियंका ने भले ही सड़कों पर लगातार सक्रियता बनाए रखी, लेकिन उनके पास संगठन नहीं है कि कांग्रेस ताकतवर बीजेपी से मुकाबला कर सके।
बीजेपी से भिड़ने और पटकनी देने की क्षमता सिर्फ सपा और अखिलेश में हैं, क्योंकि यादव और मुस्लिम गठजोड़ की वजह से बड़ा वोट बैंक सपा के पास है, इसलिए पश्चिमी उत्तरप्रदेश के नेता जयंत चौधरी हों या पूर्वाञ्चल के ओमप्रकाश राजभर या अन्य ओबीसी जातियाँ सबने सपा के साथ गठजोड़ करना ज्यादा मुनासिब माना। बीजेपी की योगी सरकार के मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य और अन्य दस विधायकों-मंत्रियों ने भी बीजेपी का दामन छोड़ सपा की टोपी धारण करने में अपनी भलाई देखी।
नतीजा हुआ ज़नता से लेकर मीडिया के मन में भी ये व्यापाने लगा कि अखिलेश कड़ी टक्कर देंगे। बीजेपी, उसके पालतू चैनल-अखबार, आईटी सेल और वाट्सअप यूनिवर्सिटी ने भी इसी नरेटिव को चलने दिया, चलाया क्योंकि 24 के चुनाव में अखिलेश की सपा की ताकत यादव मुस्लिम गठजोड़ को निशाने पर लेने से हिन्दू मुस्लिम करने में मदद मिलेगी।
मायावती ने खुद को खुद ही लड़ाई से बाहर रखा। क्यों, यह अबतक न उनके वोटर्स को समझ में आया न राजनीतिक विश्लेषक को। कुछ ने कयास जरूर लगाए कि मायावती थक गई हैं। हालांकि मुझे साफ दिखता है कि मायावती बीजेपी की राह में रोड़े नहीं अटकाना चाहती। दस साल पहले जब उनकी सरकार बनी तो उन्होंने दलित, ब्राह्मण और मुस्लिम गठजोड़ बनाया था और उन्हें सफलता मिली थी, क्योंकि तब मुलायम सिंह यादव की परिवारवादी, जातिवादी और मुस्लिमवादी राजनीति से जनता परेशान थी, वह मुलायम सिंह का विकल्प ढूंढ रही थी और मायावती बेहतर विकल्प बनकर उभरीं।
तब मोदी जी राष्ट्रीय फलक पर कहीं नहीं थे और आडवाणी अपनी धार खो चुके थे। कांग्रेस तो थी ही नहीं लड़ाई में कहीं। लिहाजा दलित-ब्राह्मण-सवर्ण-मुस्लिम गठजोड़ ने कमाल दिखाया। तब गैरयादव ओबीसी जातियां भी मायावती के साथ आ जुड़ीं थीं। स्वामी प्रसाद मौर्य बसपा के बड़े नेता के तौर पर उभरे थे, लेकिन बाद में मुलायम की पार्टी वापस जीती और अखिलेश मुख्यमंत्री बनाए गए। इसी दौरान मोदी धूमकेतु की तरह उभरे और सारे जातीय समीकरण ध्वस्त हो गए, हिन्दू मुस्लिम पिच पर लोकसभा और विधानसभा चुनाव हुए और 2017 में बीजेपी की योगी सरकार बनी।
अबकी मोदी और योगी दोनों की असलियत जनता के सामने है। नोटबंदी, जीएसटी, कोरोना- मजदूरों की पैदल घर वापसी और किसान आंदोलन आदि ने मोदी के खिलाफ देशभर में माहौल बनाया है। अजेय मोदी पश्चिम बंगाल में भी बुरी तरह हारे। फिर किसान कानून वापस लेना पड़ा, कथित 56 इंच का सीना रखने वाले मोदी झुके। चुनाव की जब घोषणा हुई तो मोदी और योगी, दोनों का 2017 या 19 वाला जादू जनता में नहीं रहा। निर्विवाद रूप से दोनों की छवि मलिन हुई है। इसलिए कई जगह मोदी और योगी की चुनावी रैलियों में भी अपेक्षित भीड़ नहीं आई, जबकि अखिलेश की रैलियों में भीड़ बढ़ती गई और बिना कुछ किये अखिलेश मोदी-योगी के विकल्प बन गए उत्तर प्रदेश में।
ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि हमारे देश में प्रायः जीत को ध्यान में रखकर जनता वोट नहीं देती, उसका पहला मोटों होता है सत्ता में बैठी पार्टी को हटाना। जैसे 2014 में मोदी की बीजेपी को जो वोट मिले थे, उसमें सबसे बड़ा मुद्दा था, कांग्रेस से नाराजगी- कि वह भ्रष्टाचारी पार्टी है। आर एस एस ने बड़े सुनियोजित तरीके से चुनाव के पहले सारी प्लानिंग की थी, जैसा 2014 की जीत के बाद जाहिर भी हो गया कि अन्ना आंदोलन किस तरह मैनुप्लेटेड था।
कैग की रिपोर्ट भी किस तरह से सुनियोजित थी। फिर राहुल गांधी के खिलाफ सुनियोजित तरीके से पालतू मीडिया, सोशल मीडिया और वाट्स एप यूनिवर्सिटी का प्रोपेगण्डा चला। उन्हें पप्पू साबित किया गया और बार बार साबित किया गया और जाहिर किया गया कि मोदी का विकल्प राहुल नहीं हो सकते। यहाँ तक कि कांग्रेस के भीतर भी यह मान लिया गया कि राहुल कमजोर नेता है। नतीजा हुआ 2019 के चुनाव में भी मोदी अप्रत्याशित बहुमत से जीते।
आरएसएस, पालतू मीडिया, सोशल मीडिया-आई टी सेल और वाट्सएप यूनिवर्सिटी ने सुनियोजित तरीके से भारत के आम वोटर के दिल दिमाग का हरण कर लिया। उनके जादू का अंदाजा लगाइए कि मुसलमानों के खिलाफ नफरत को तालियाँ मिलीं, यहाँ तक कि किसानों के खिलाफ भी नफरत की धारा बहाई गई। सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ जहर भरे गए कि सब रिश्वतखोर और अकर्मण्य हैं, इसलिए निजीकरण ही सबसे सही विकल्प है।
कैसी विडंबना रही लोक कल्याण की नीति से खड़ी सरकारी कंपनियां नकारा साबित कर दी गयीं और शुद्ध मुनाफा को ध्यान में रखकर खड़ी की गई निजी कंपनियां जनता को जरूरी सेवा देने के लिए जरूरी मान ली गयीं। रिश्वत, कमीशन और चंदा देकर अपने फायदे के लिए कानून बनवाने वाली कंपनियां नए भारत के लिए सक्षम करार दी गई और सरकार के कंट्रोल की सरकारी कंपनियां देश के लिए नुकसानदेह बता दी गयीं। अगर सही में सरकारी कंपनियां बेकार हो रही थीं, तो ये मंत्रियों और सचिवों का नकारापन था, लेकिन मंत्रियों और सचिवों ने तो दोनों तरफ से मलाई खाई, खामियाजा भुगता सिर्फ छोटे कर्मचारियों और गरीब जनता ने।
रेलवे टिकट महंगे कर दिए गए, बुजुर्गों को टिकटों में मिलने वाली रियायत खत्म कर दी गई, गैस महंगी कर दी गई, सब्सिडी खत्म कर दी गई। पेट्रोल-डीजल से लेकर घरों और जीवन के लिए जरूरी तमाम चीजों के भाव अनवरत बढ़ाए गए, नौकरियां खत्म की गयीं, विपत्ति काल में मजदूरों से लेकर निम्न मध्य वर्गीय परिवारों तक को अकेला छोड़ दिया गया। यूक्रेन में किस तरह से छात्रों को मुश्किलों का सामना करना पड़ा, ये हम सबने अभी अभी देखा, लेकिन अभी भी ऐसा नरेटिव गढ़ा जा रहा है, जिसमें मोदी को देश के लिए जरूरी बताया जा रहा है।
मोदी को विश्व नेता बनाने के लिए झूठी और हास्यास्पद कहानियाँ गढ़ी जा रही हैं। मोदी खुद इस स्तर पर आ गए कि रैलियों में जनता से कह गए, आपने मोदी का नमक खाया है। पालतू मीडिया में उन लोगों क बयान को ज्यादा महत्व दिया गया जो राशन को बड़ा तोहफा मान रहे हैं। ये उन नागरिकों की अज्ञानता है। उन्हें नहीं पता पाँच किलो राशन के नाम पर किस तरह से देश और उनके दिमाग को लूटा जा रहा है।
बहरहाल, भले हिन्दू मुस्लिम चलता नहीं दिख रहा, लेकिन हिन्दू मुस्लिम पूरी तरह फ्लॉप भी नहीं हुआ है। जातिगत राजनीति में भी भाजपा ने अगड़ा पिछड़ा का कार्ड खेला और अखिलेश को जातिवादी राजनीति के नरेटिव में फँसाने की कोशिश की। नतीजा हुआ कि पब्लिक में कन्फ्यूजन बढ़ा और यह कन्फ्यूजन ही चुनाव को एकतरफा होने से रोक रहा है। बीजेपी ने बसपा को पिछली सीट पर बिठा रखा है, मीडिया ने पूरे चुनाव में फ्रंट सीट पर बैठकर काम किया।अगड़ावाद ने अपना पूरा जोश लगाया है। समझिए ऊंचे पदों पर आज भी 90 प्रतिशत से ज्यादा अफसर सवर्ण हैं, सवर्णवादी हैं, जिनमें से ज्यादातर अभी भी बीजेपी के समर्थक हैं।
कारण हिन्दू समाज की जातिगत संरचना। ब्राह्मण को छोड़कर लगभग हर जाति-उपजाति एक साथ ऊंची और नीची है। सवर्ण ओबीसी को देखना नहीं चाहता तो ओबीसी दलित को दुरदुराता है। इसी तरह ओबीसी में भी जो मजबूत जाति है वो दूसरी ओबीसी जातियों-उपजातियों को वोट देना पसंद नहीं करती। अगर मजबूरी हो जाए, तो अपने से ठीक नीचेवाले को वोट दने के बजाय उसके नीचे या जो सबसे कमजोर जाति का प्रतिनिधि है उसे वोट दे देता है। सवर्णों का झगड़ा तभी सतह पर आता है, जब प्रतिद्वंद्वी भी सवर्ण ही हैं।
ऐसे में मुझे न तो भाजपा बहुमत पाती दिख रही है, न सपा। इसकी एक बड़ी वजह कांग्रेस भी है। प्रियंका ने पिछले एक दो सालों में जिस तरह से अपनी सक्रियता बढ़ाई है, उससे हर समझदार व्यक्ति के भीतर एक उम्मीद जगी है। इस चुनाव में वह उम्मीद भले निर्णायक वोट लेकर नहीं आ रही हो, लेकिन भाजपा से नाराज सवर्णों और हिंदुओं को विकल्प दिखा है। सपा से नाराज ओबीसी और मायावती से नाउम्मीद हुए दलितों में ये संदेश गया है कि प्रियंका और कॉंग्रेस बीजेपी और सपा-बसपा तीनों का विकल्प है।
(पत्रकारिता से अपना करियर शुरू करने वाले धनंजय कुमार मुंबई में स्क्रीन राइटर्स एसोसिएशन के पदाधिकारी हैं।)