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शिक्षा नीति 2019 बनाने वालों ने बीमारी की शिनाख्त ही गलत की है तो फिर सुधार कहां संभव

Prema Negi
7 July 2019 3:57 PM GMT
शिक्षा नीति 2019 बनाने वालों ने बीमारी की शिनाख्त ही गलत की है तो फिर सुधार कहां संभव
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6.2 करोड़ बच्चों के स्कूल से ड्रापआउट होने और 5 करोड़ स्कूल जाने वाले बच्चों में सीखने सम्बंधित बुनियादी कौशल से वंचित होने का एकमात्र बुनियादी कारण है देश में शिक्षा की दोहरी व्यवस्था व गरीबी, यानी अमीरों के लिए अलग और गरीबों के लिए अलग स्कूल...

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 का ड्राफ्ट किस तरह है गरीब तबके के बच्चों के लिए खतरनाक, उसके तमाम पहलुओं के बारे में बता रहे हैं स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता मुनीष कुमार

र्ष 2002 में देश के संविधान में संशोधन कर 6 से 14 वर्ष की उम्र के बच्चों को मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा के दायरे में लाया गया था। वर्ष 2009 में शिक्षा के अधिकार कानून द्वारा 6 से 14 वर्ष के निर्धन बच्चों के लिए निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने का कानून लाया गया था। इस सबके बावजूद भी आज स्थिति यह है कि देश में 6 से करोड़ से अधिक बच्चे, जिन्हें स्कूलों में होना चाहिए था, आज भी स्कूलों से बाहर हैं।

देश की नई शिक्षा नीति के प्रारूप में 3 वर्ष से 18 वर्ष उम्र के बच्चों व किशोरों को मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा के दायरे में लाने की सिफारिश की गयी है तथा 2035 तक देश में पूर्ण साक्षरता हासिल करने का दावा किया गया है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 के प्रारूप के पेज नंबर 85 पर कहा गया है कि 2015 में कक्षा 1-5 में बच्चों का नामांकन अनुपात 95.1 प्रतिशत था। कक्षा 6-8 में 90.7 प्रतिशत, कक्षा 9-10 में 79.3 व कक्षा 11-12 में 51.3 प्रतिशत था। कुल मिलाकर 6.2 करोड़ बच्चे स्कूल से बाहर थे।

च्चों के स्कूल छोड़ने के कारण के रूप में बताया गया है कि समय बीतने के साथ स्कूल में बहुत से बच्चे कक्षा 5 या 8 तक भी बुनियादी साक्षरता और संख्या ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाते और स्कूल जाना उनके लिए समय की बर्बादी बन जाता है। सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक मुद्दे, स्कूलों में अपर्याप्त बुनियादी ढांचे व सुरक्षा की कमी तथा बच्चों की स्कूल तक पहुंच की समस्या को भी बच्चों के स्कूल छोड़ने (ड्राप आउट) में अहम कारण बताया गया है।

वाल है कि बात किन बच्चों की हो रही है? यह बात उच्च, मध्यम वर्ग के बच्चों की नहीं, बल्कि निर्धन परिवारों से आने वाले सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की हो रही है।

पेज नंबर 71 पर कहा गया है कि वर्तमान समय में सीखने सम्बन्धित कई बुनियादी कौशल से विद्यार्थियों की एक बड़ी संख्या वंचित है, जो कि 5 करोड़ तक आंकी गयी है। वे प्रारम्भिक शिक्षा में बुनियादी साक्षरता एवं संख्या ज्ञान जैसे- साधारण वाक्यों को पढ़कर समझने की योग्यता और सामान्य जोड़-बाकी करने से वंचित हैं।

ये 5 करोड़ बच्चे कौन हैं? जवाब है ये भी गरीब बच्चे ही हैं। हमें समाज में एक भी उच्च व मध्यम वर्ग का बच्चा नहीं मिलेगा जो अशिक्षित हो अथवा स्कूल न जाता हो। बच्चों के ड्रापआउट के जो कारण प्रारूप में बताए गये हैं, वे मुख्य नहीं गौण हैं। यदि एक मुख्य कारण आर्थिक बताया भी गया है, परन्तु उसके समाधान पर पूरे प्रारूप में कहीं भी बात नहीं की गयी है।

देश में 6.2 करोड़ बच्चों के स्कूल से ड्रापआउट होने व 5 करोड़ स्कूल जाने वाले बच्चों में सीखने सम्बंधित बुनियादी कौशल से वंचित होने का एक मात्र बुनियादी व मूल कारण है- देश में शिक्षा की दोहरी व्यवस्था व गरीबी। अमीरों के लिए अलग स्कूल, गरीबों के लिए अलग स्कूल।

देश में चार तरह के स्कूल (निजी, सरकारी, धार्मिक व दान दक्षिणा पर आधारित) व आधा दर्जन से भी ज्यादा तरह के शिक्षा बोर्ड (केन्द्रीय बोर्ड- सीबीएसई, आईसीएसई, एनआईओएस, राज्यों के शिक्षा बोर्ड व अंतरराष्ट्रीय बोर्ड- कैम्ब्रिज इंटरनेशनल, बाकलोरिएट इंटरनेशनल आदि) चलते हैं।

देश के स्कूलों में छलना लगा है। बच्चों को किस स्कूल में दाखिला मिलेगा, यह उनके माता-पिता की जेब में मौजूद पैसे व उनकी हैसियत से तय होता है।

प्रारूप के पेज नं. 238 पर स्वीकार किया गया है, पिछले दो दशकों में सामाजिक आर्थिक रूप से मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग के अधिकांश लोग अपने बच्चों को निजी स्कूल में ले गये हैं। इस प्रकार सरकारी स्कूलों के माता पिता के रूप में वही लोग बचे हैं, जो बहुत कम राजनीतिक व आर्थिक प्रभाव रखते हैं।

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मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा पिछले वर्ष जारी रिपोर्ट में बच्चों के स्कूल न जाने की सबसे बड़ी मुख्य वजह पैसे की कमी व उनका रोजी-रोटी कमाने में लगा होना बतायी गयी है, मतलब बच्चे आर्थिक कारणों से स्कूल नहीं जा पाते। 54.8 प्रतिशत लड़के उक्त आर्थिक कारणों से स्कूल नहीं जा पाते हैं।

ड़कियों के बारे में कहा गया है कि 13.9 प्रतिशत विवाह, 29.70 प्रतिशत घरेलू कार्य व 20.5 प्रतिशत आर्थिक कारण लड़कियां स्कूल नहीं जा पाती हैं। बच्चों के स्कूल न जाने के कारण जो शिक्षा नीति के प्रारूप में बताए गये हैं, वह कारण लड़कों में 10.8 प्रतिशत व लड़कियों के मामले में मात्र 12.7 प्रतिशत ही हैं।

इस बात का ढिंढोरा पीटा जा रहा है कि स्कूलों में बच्चों को दोपहर का भोजन अब कक्षा 1-8 से बढ़ाकर कक्षा 12 तक के छात्रों को भी दिया जाएगा तथा बच्चों को सुबह का नाश्ता भी दिया जाएगा, जिससे स्कूलों में नामांकन बढ़ेगा व ड्राप आउट खत्म हो जाएगा।

मानव संसाधन विकास मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2015-16 में सरकार ने देश भर के कक्षा 1 से 8 तक के 10.03 करोड़ बच्चों पर 9151.55 करोड़ रुपये खर्च किए। मतलब एक बच्चे पर सालाना खर्च लगभग 912 रुपये। मान लीजिये एक बच्चा वर्ष भर में छुट्टी घटाकर औसत 250 दिन स्कूल में उपस्थित होता है तो इस तरह एक बच्चे के मध्याहन भोजन पर सरकार द्वारा 3 रुपए 65 पैसे खर्च किए गये। इतने पैसे में क्या किसी को भरपेट पौष्टिक भोजन इस देश में नसीब हो सकता है? इस बात का जवाब जनता को दिया जाना चाहिए।

स्पष्ट है कि प्रारूप तैयार करने वाली कमेटी ने बीमारी के कारणों की पहचान ही गलत की है। जब डॉक्टर बीमारी की सही पहचान नहीं कर पाएगा तो वह मरीज का इलाज भी नहीं कर पाएगा।

जैसे वर्ष 2002 में किए गये संविधान संशोधन व वर्ष 2009 में शिक्षा के अधिकार कानून को लाने के बाद भी देश में गरीब बच्चों की शिक्षा के मामले में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं आया है, वैसे ही पूर्व प्राथमिक व कक्षा 9 से 12 तक की शिक्षा को मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा के दायरे में लाने मात्र से आगे भी कोई उल्लेखनीय परिवर्तन आने वाला नहीं है।

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शिक्षा में परिवर्तन के लिए जरूरी है कि देश के सभी निजी स्कूलों, धार्मिक व दान-दक्षिणा पर चलने वाले स्कूलों का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाए। बच्चों को वैज्ञानिक, तर्कपरक, श्रम का सम्मान करने वाली, रोजगारपरक शिक्षा उनको उनकी मातृ भाषा में बराबरी के साथ दी जाए। उन्हें ऐसी शिक्षा दी जाए जो व्यवहार से जुड़ी हो, जो उन्हें जातिगत, धार्मिक व लैंगिक भेदभवाव और पूर्वाग्रहों से मुक्त बनाए। देश में जो आधा दर्जन तरीके के शिक्षा बोर्ड चल रहे हैं, वे सभी राज्यों के शिक्षा बोर्डों में समाहित कर दिये जाएं।

रकार द्वारा देश में शिक्षा पर जीडीपी का 10 प्रतिशत खर्च किया जाना सुनिश्चित किया जाए। ऐसा किए जाने पर देश के पास शिक्षा पर खर्च करने के लिए 20 लाख करोड़ रुपए से भी अधिक धनराशि उपलब्ध होगी।

भी बच्चे चाहे वह किसी भी वर्ग, जाति व धर्म से हैं, उनका दाखिला उसके नजदीकी स्कूल में ही किया जाना अनिवार्य किया जाए। अधिकारी हो या चपरासी, हिन्दू हो या मुस्लिम, सवर्ण हो या अवर्ण, अमीर हो या गरीब सभी बच्चों को एक ही स्कूल में निःशुल्क शिक्षा प्रदान करने की जिम्मेदारी सरकार अपने हाथों में ले।

स बात का विशेष ख्याल रखा जाए कि देशभर के स्कूलों में उपलब्ध सुविधाएं व तकनीक का मानक लगभग एक ही जैसा हो, जिससे किसी को यह महसूस न हो कि उसकी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफेद क्यों है।

ह काम बहुत मुश्किल नहीं है जिस जर्मनी को 2032 तक अर्थव्यवस्था में पछाड़कर, दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का दावा भारत की सरकार कर रही है, वहां पर सभी बच्चों के लिए निःशुल्क व बराबरी की शिक्षा का माॅडल लागू है। वहां पर स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा सभी बच्चों को बराबरी के साथ निःशुल्क प्रदान की जाती है।

रन्तु सरकार करने क्या जा रही है, वह देश के बच्चों को वास्तविक रूप से शिक्षित करके उनके भीतर बराबरी के मानवीय मूल्यों का सृजन करने की जगह, सबको शिक्षा देने का शोर मचाने जा रही है। शिक्षा के इस शोर में एक बार फिर निर्धन व वंचित समुदाय के सपने, इच्छा व आकांक्षाएं दफन कर दिये जाएंगे।

च्चों को शिक्षित करने के तरीके व तकनीक के इस्तेमाल को लेकर जितनी भी बातें कही गयीं हैं, निजी स्कूलों की भौंडी नकल से ज्यादा कुछ नहीं हैं। बच्चों को स्कूल में मिट्टी के बर्तन बनाना, धातु कर्म व बढ़ई आदि के काम सिखाना जैसी बातें मात्र सरकारी स्कूल तक ही सीमित रहेंगी या काॅन्वेंट सकूलों में पढ़ने वाले अभिजात्य व मध्यम वर्ग के बच्चों के लिए भी लागू होगी, इस पर प्रारूप अनुत्तरित है।

(मुनीष कुमार समाजवादी लोक मंच के सह संयोजक हैं।)

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