भाजपा का अभूतपूर्व जश्न : क्या बिहार में अब समाजवादियों का सिर्फ प्रतीकात्मक शासन होगा?

समाजवादी राजनीति का बिहार प्रयोगशाला व किला माना जाता रहा है। समाजवादी आंदाोलन यहीं से परवान चढे और देश के विभिन्न हिस्सों के समाजवादी नेताओं जार्ज फर्नांडीस, मधु लिमिये, शरद यादव आदि ने भी इसे ही अपनी कर्मभूमि के रूप में चुना, लेकिन क्या अब यहां समाजवादियों का वर्चस्व खत्म होने वाला है...

Update: 2020-11-12 06:23 GMT

बिहार चुनाव प्रचार के दौरान लगाया गया नीतीश कुमार का एक कटआउट।

राहुल सिंह का विश्लेषण

जनज्वार। बिहार के सत्ताधारी गठबंधन में बड़ी पार्टी बनने के मौके ने भाजपा को 10 नवंबर को असीम सुख दिया है। राजनीति में उसका यह सुख, उपलब्धि अभूतपूर्व व अद्वितीय है। बिहार समाजवादी आंदोलनों की जन्मभूमि और गढ रहा है। जनता परिवार की जड़ें जब गुजरात, कर्नाटक जैसे राज्यों में सूख गईं, उत्तरप्रदेश में यह धारा संकटों में घिरती दिखी, तब भी बिहार में उसकी जड़ें गहरी रहीं। लालू प्रसाद यादव व नीतीश कुमार जैसे बड़े समाजवादी चेहरे बिहार की राजनीति की धुरी बने रहे, लेकिन अब स्थितियां बदलती दिख रही हैं। अब मुख्यमंत्री तो नीतीश होंगे लेकिन इसके पक्के संकेत हैं कि सत्ता की धुरी अब भाजपा होगी।

नरेंद्र मोदी युग के आरंभ के बाद भाजपा जब भी कोई चुनाव जीतती है तो वह जश्न का आयोजन करती है, लेकिन 11 नवंबर की शाम दिल्ली के भाजपा मुख्यालय में पहली बार भाजपा ने इतने व्यापक स्तर पर बिहार की जीत का जश्न मनाया, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत उसके तमाम शीर्ष नेता शामिल हुए। भाजपा के इस आयोजन में नरेंद्र मोदी, राजनाथ सिंह, अमित शाह व नितिन गडकरी की मौजूदगी समजावाद के अभेद्य दुर्ग पर भगवा झंडा लहराने का प्रतीक ही था।

बिहार की जीत के बाद कार्यकर्ताओं को संबोधित करने 11 नवंबर की शाम भाजपा मुख्यालय पहुंचे प्रधानमंत्री नरेेंद्र मोदी।

इस दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पुराने अंदाज में बिहार की जीत को अपनी जीत बताया। नीतीश कुमार की शराबबंदी से बने गुम्मा वोटर का भी श्रेय प्रधानमंत्री मोदी ने लिया, जिसमें महिलाओं की संख्या प्रमुख रूप से गिनायी जाती है। प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में यह संकल्प दोहराया कि नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही हम संकल्प सिद्ध करेंगे। यानी मुख्यमंत्री वही होंगे। भाजपा ने बिहार में 74 सीटें हासिल की हैं और सबसे बड़ी पार्टी राजद से उसकी सीट एक कम है।

सीटों का फासला जदयू से अब भाजपा के पक्ष में आया

भाजपा के लिए यह अभूतपूर्व उपलब्धि इस मायने में है कि वह पहली बार सत्ताधारी गठबंधन में बहुत अधिक सीटों के अंतर से बड़ी पार्टी बनी है। जदयू की 43 सीटों के मुकाबले उसके पास 31 सीटें अधिक हैं। हालांकि बिहार ने इससे पहले 2010 में नीतीश के साथ चुनाव लड़कर 91 सीटें जीती थी, लेकिन जब तब जदयू के पास उससे 24 अधिक यानी 115 विधायक थे। पिछले विधानसभा में भी जब दोबार जदयू भाजपा ने मिलकर सरकार बनायी तो जदयू के पास उल्लेखनीय रूप से भाजपा से अधिक सीटें थीं, लेकिन फासले की यह दिशा अब उल्टी हो गई है। अब भाजपा बड़े फासले के साथ बड़े भाई की भूमिका में है और उसके लिए वादे के अनुरूप नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार बनाने या कोई नया विकल्प चुनने का भी मौका है।

दिल्ली स्थित भाजपा मुख्यालय में जुटे कार्यकर्ता व समर्थक।


नीतीश ही मुख्यमंत्री क्यों?

नीतीश का राजनीतिक कद काफी बड़ा है। कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने नीतीश कुमार को कहा है कि अब बिहार आपके लिए छोटा है और देश की राजनीति में आ जाएं और धर्मनिरपेक्ष ताकतों को एकजुट करने में योगदान दें। वे समाजवादी धारा के देश के शीर्ष नेताओं में वे शुमार किए जाते हैं। इस बार के चुनाव में चारों तरफ से घिरने के बावजूद व चिराग पासवान के नीतीश कुमार के उम्मीदवारों को हराने के संकल्प के बाद भी उनकी पार्टी ने 43 सीटें हासिल की हैं। यह कहा जा रहा है कि नीतीश को 20 से 25 सीटों का नुकसान लोजपा के अलग होने से हुआ है।

नीतीश ने जितनी मुश्किल लड़ाई अपने नेतृत्व में जीती है, उससे विश्लेषकों के एक तबके का कहना है कि इससे नीतीश की सीटें भले कम हो गईं हों लेकिन कद और बड़ा हुआ है। खुद सुशील कुमार मोदी ने कहा है कि देश में ऐसे बहुत कम मुख्यमंत्री हुए हैं जिन्हें चार बार लगातार जनादेश मिला है। उधर, दिग्विजय सिंह ने नीतीश की सीटें कम होने की ओर संकेत करते हुए कहा है भाजपा को अमरबेल बताया है जो जिस पेड़ पर लटकती है, वह सूखाता जाता है और वह पनपती जाती है।

नीतीश को मुख्यमंत्री बनाए रखने से भाजपा उनके सर्वस्वीकार्य चेहरे का लाभ लेगी और अपने एजेंडे पर अधिक सहज होकर काम कर पाएगी। भजपा की आव-भाव से यह भी लग रहा है कि मुख्यमंत्री तो नीतीश कुमार होंगे, लेकिन सरकार अब उसकी होगी। लेकिन, नीतीश की पुरानी शैली से यह भी सवाल उठता है कि वे किस हद तक दबाव व बंदिशों को झेलेंगे?


नीतीश कुमार एक गंभीर मुद्रा में। फाइल फोटो।

नीतीश कुमार ने चुनाव परिणाम पर 30 घंटे तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और प्रधानमंत्री ने जब भाजपा मुख्यालय के आयोजन में नीतीश के नेतृत्व का ऐलान किया तब उन्होंने इस पर प्रतिक्रिया देते हुए पहला ट्वीट किया कि वे प्रधानमंत्री से मिले रहे सहयोग को लेकर आभारी हैं। नीतीश के इस ट्वीट में विनम्रता व शिष्टाचार के साथ एहसानमंद होने व लाचारगी का भी भाव है।

भाजपा नीतीश के साथ जुटी रहेगी लेकिन उनका राजनीतिक आभामंडल उसके बढते प्रभाव में कम होता जाएगा। इसे आने वाले सालों में बिहार की राजनीति में राजद के साीधे मुकाबले में भाजपा आ सकती है। नीतीश कुमार ने पूर्णिया में यह ऐलान भी कर दिया है कि यह उनका आखिरी चुनाव है और अगले चुनाव तक उनकी उम्र 75 साल के आसपास हो जाएगी। जाहिर है हर किसी को एक समय रिटायर तो होना ही होता है।

बिहार में नए बने राजनीतिक हालात से ऐसे में यह सवाल तो उठता है कि क्या संपूर्ण क्रांति की भूमि में समाजवादियों का नेतृत्व अब सिर्फ प्रतीकात्मक तौर पर रह जाएगा?

बिहार की जीत के बाद भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा का भाजपा मुख्यालय में जोरदार ढंग से अभिनंदन किया गया।


 


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