ग्राउंड रिपोर्ट : गोरखपुर क्षेत्र के करीब 175 गांव बाढ़ की चपेट में, कई इलाके जलमग्न
प्रशासन हर साल इन समस्याओं से निपटने के लिए तमाम ऐलान और योजनाएं तो पारित करता है लेकिन वे योजनाए और वादे सफ़ेद हाथी ही साबित हुए हैं, अलबत्ता इस फंड में आने वाले धन का पूरा प्रवाह साहब लोगों की सेवा में जाता दिख रहा है....
आदित्य राजन की ग्राउंड रिपोर्ट
जनज्वार। इस साल गोरखपुर क्षेत्र के करीब 175 गांव बाढ़ की चपेट में हैं। अगल-बगल के जिलों में भी बाढ़ का अलर्ट जारी हो ही चुका है। राप्ती, घाघरा, रोहिन, आमी, गोर्रा आदि नदियों के तेजी से बढ़ते जलस्तर से जहां कई इलाके जलमग्न हो चुके हैं वहीं कई जगह के लोग अपने मकान, जमीन और फसलों को डूबते हुए देख रहे हैं।
गोरखपुर शहर के प्रभावित क्षेत्रों में भी पानी घुसने के कारण लोग बेहाल दिख रहे हैं। चिल्मापुर, भरवलिया, बडगो, कजाकपुर, पथरा, रामपुर, गायघाट, सहित दर्जनों गाँव औरशहरी क्षेत्र की कॉलोनियां बाढ़ के दंश को झेल रहीं हैं।
राप्ती के किनारे मंझरिया गाँव के राजमन बताते हैं कि बाढ़ की विभीषिका के बावजूद गाँव में मूलभूत व्यवस्था के नाम पर कुछ नहीं है। पानी की निकासी की कोई सुचारू योजना प्रशासन द्वारा सुनिश्चित नहीं की गयी जिसके कारण यहां के वाशिंदों को हर बारिश में परेशानियों का सामना करना पड़ता है। ऊपर से शहरी क्षेत्रों में बसने की चाह में जिले के सुदूर गाँवों से आकर यहाँ बसे लोगों की दशा उनके गाँव से भी बदतर हो गयी है..। उनका हाल 'आसमान से गिरे खजूर पर अटके' जैसा हो गया है।
दूसरी ओर नदी के तटों में अतिक्रमण करके लोगों ने मकान बनाए हैं। स्वाभाविक रूप से बाढ़ का खतरा उनकी दिक्कतों के लिए वाजिब वजह है। यहां तो सीधे तौर पर प्रशासन की कमी दिखती है और सवाल आता है कि नदी के किनारों से लगी अनाधिकृत जमीन रिहाइशी तौर पर किस आधार पर इस्तेमाल हो रही है?
इन क्षेत्रों में जाकर पता लगाने से प्रशासन की लापरवाहियां साफ़ तरीके से नजर आती हैं। पथरा गांव के एक निवासी ने हमें बताया कि मुख्यमंत्री जी दौरा कर रहे हैं और मुआवजे का ऐलान भी कर रहे हैं लेकिन ये समस्या हमारे सामने लगभग हर साल आती हैं। हर साल हमारा कुछ न कुछ नुकसान होता है। एक डेढ़ महीने तक रोजगार आमदनी सब ठप्प रहती है। या तो हमें छत पर बसेरा डालना होता है या घर छोडकर किसी रिश्तेदार के घर जाकर रहना पड़ता है। इसका कोई परमानेंट उपाय नहीं दिखता है।
साल 1998 की भीषण बाढ़ में लहसड़ी गाँव से लगा रिंग बांध टूटने पर रामबदन का घर बह गया था। उस त्रासदी के तेईस साल बाद तक उन्होंने इसी भय से अपना पक्का मकान नहीं बनवाया है कि न जाने कब यह विपत्ति दोबारा चली आए। यहां तक की प्रशासन की ओर से आज तक उन्हें कोई पुख्ता मदद भी नहीं मिल पाई है।
इलाके का मुआयना करने पर पता चला कि वहां के वाशिंदों की भी कुछ लापरवाहियां भी खतरे का कारण बन सकती हैं। लोगों ने बंधे और नदी के तटों में ही अपने घर बना लिए हैं, अपने पशुओं को बंधे पर ही रखते हैं..। इस पार के रिहाइशी इलाके में उतरने के लिए बंधे के बोल्डर को ही छील काटकर सीढियां और रास्ते बना लिए हैं, जिसकी वजह से बाँध का क्षरण हो रहा है..।यह लापरवाही गंभीर समस्या को न्योता दे सकती है, इस बात का अंदाजा इन लोगों को भी है और वे झेलते भी है लेकिन बढती आबादी और कम जमीन के असंतुलित अनुपात का सम्बन्ध उनलोगों की अवांछित विवशता बन गयी है।
करीब तेईस साल पहले 1998 में आई बाढ़ ने यहाँ की जनता को एक गहरा घाव दे रखा है। ऐसा गहरा घाव, जो हर साल बरसात के मौसम में हरा हो जाता है। राप्ती का पानी जब जब उफान पकड़ता है, इस इलाके के लोगों की साँसे चढ़ जातीं हैं। कब कोई बंधा टूट जाए और पानी का वेग लोगों के घरों को डुबाने लगे इसका डर पूरे बरसात बना रहता है।
शहर में नदी के समीपवर्ती इलाकों, नौसढ़, रुस्तमपुर, तारामंडल, दाउदपुर और रामगढ ताल क्षेत्र के लोगों की नींद रात भर उडी रहती है कि न जाने कब जलस्तर बढने लगे। रामगढ़ ताल क्षेत्र में रहने वाले शैलेन्द्र कबीर बताते हैं कि, 98 के बाढ़ में उनके घर की पहली मंजिल लगभग छः फीट पानी में डूबी हुई थी और पूरे परिवार ने करीब अट्ठारह दिनों तक छत पर बसेरा किया था, तबसे हर साल उनको भी डर बना रहता है की वो पुराने हालात फिर वापस ना आ जाएं, इसलिए वे बरसात में हर दूसरे दिन बंधे पर जा जाकर जलस्तर और बांधो की दशा निहारते रहते हैं।
दूसरी तरफ गोरखपुर वाराणसी राष्ट्रीय राजमार्ग एनएच 29 पर पिछले चार-पांच दिनों से आवागमन बाधित है। रूट डायवर्जन के कारण वाहनों को घंटे दो घंटे की अतिरिक्त दूरी तय करनी पड़ रही है। जगह - जगह जलजमाव की स्थिति ने भी भारी दिक्कतें खड़ी कर रखी हैं।
जगह-जगह बाँध से होते रिसाव ने लोगों को दहशत में डाल रखा है, ग्रामीणों की नजर बराबर इस और बनी हुई है, वे बंधे की रखवाली में लगे हुए हैं। जैसे ही कोई आशंका मालूम पडती है लोग बंधे को ठीक करने में लग जाते हैं..। कई बार प्रशासन से मरम्मत में सहायता तो मिल जाती है लेकिन ज्यादातर स्थानीय लोग ही जी जान से लगकर कठिन परिस्थितियों में बंधों की मरम्मत करते हैं और रिसाव रोकते हैं।
प्रशासन हर साल इन समस्याओं से निपटने के लिए तमाम ऐलान और योजनाएं तो पारित करता है लेकिन वे योजनाए और वादे सफ़ेद हाथी ही साबित हुए हैं, अलबत्ता इस फंड में आने वाले धन का पूरा प्रवाह साहब लोगों की सेवा में जाता दिख रहा है। केंद्र और राज्य सरकार की तरफ से बाढ़ से बचाव व प्रभावित लोगों के पुनर्वासन की योजना जमीनी तौर पर धराशायी होती दिखती है।
NDRF, SDRF जिला प्रशासन, सिचाईं विभाग और शहरी क्षेत्र में नगर पालिका और नगर निगम हर साल अपनी तैयारियाँ और यथासंभव मदद की कोशिश तो करते हैं लेकिन सवाल ये उठ खड़ा होता है कि, इस समस्या का सम्पूर्ण और पूर्णकालिक निवारण क्यों नहीं होता?
नदियों में बीस दिनों से लगातार बढ़ते जलस्तर ने लोगों की साँसे तो अटका ही रखी थी लेकिन बीते शनिवार से यह स्तर घट रहा है। हालाँकि यह घटने की दर काफी धीमी है, फिर भी लोग राहत की सांस ले रहे हैं।लेकिन राप्ती नदी अभी भी खतरे के निशान से लगभग दो मीटर उपर बह रही है। अन्य नदियों का भी यही हाल है। इस इलाके में ढाई-तीन लाख की आबादी बाढ़ के पानी से प्रभावित हुई है, दुर्भाग्यवश इस विभीषिका से लोगों का हर साल सामना होता आया है। स्थानीय लोगों से बात करने पर पता चलता है कि अब उन्हें ऐसी विषम परिस्थितयों की आदत सी हो गयी है। उन लोगों ने इसे अपनी नियति ही मान ली है।
प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बाढ़ ग्रसित इलाकों में इस दौरान हुए दौरों में आश्वासन और सहायता घोषणाओं की लड़ियाँ लगीं, स्वयं मुख्यमंत्री ने यह तो कह दिया कि हमने बाढ़ से लोगों को बचा लिया है, वास्तव में जान तो बच जा रही है लेकिन अन्य परेशानियों का क्या..। आजीविका, स्वास्थ्य, भोजन पानी की आपूर्ति में कमी, बिजली की कटौती, ऐसी मूलभूत सुविधाओं की कमी से बचाव कैसे होगा, यह मूल प्रश्न है।
सिर्फ मुआवजा आवंटित कर देना कोई समाधान नहीं है। प्रबन्धन में इमानदारी और स्थायी योजनाओं के जमीनी स्तर पर क्रियान्वयन की प्रक्रिया को सुनिश्चित करना होगा। जल बंधों का स्थायी और पक्का निर्माण और उनकी समय-समय पर मरम्मत को लेकर प्रशासन को गम्भीरता से सोचना होगा और जरूरी तौर पर नदियों की समय-समय पर डीसिल्टिंग के साथ-साथ तटवर्ती क्षेत्रों में आपात स्थिति में सुरक्षा संसाधनों की व्यवस्था की प्राथमिकता तय करनी होगी। साथ ही नदियों के प्रवाह को सुचारू और प्राकृतिक रूप में बनाए रखने की नैतिक जिम्मेदारी भी हमें ही लेनी होगी। विकास के नाम हमने प्राकृतिक संपदाओं की जो दुर्गति की है उसके दुष्परिणाम हमें हर समय भुगतने को मिल रहे हैं। ऊपर से प्रशासन और सरकारों की लापरवाही और बेईमानी के नतीजे झेलने के लिए आम जनता ही साधन बनी हुई है।
एक कहावत प्रचलित है कि 'दस सूखा और एक बाढ़ बराबर होते हैं', यह बात हमारे इस क्षेत्र में बिल्कुल चरितार्थ होती दिखती है। सरकार और प्रशासन की नीतियों में नैतिकता का आभाव इस बात की ओर सीधा इशारा करता है कि लोकतंत्र में जनता के सर्वोपरि होने की अवधारणा, सुंदर जिल्द के किताब लिखा एक वाक्य भर है, जिसकी उस किताब के बाहर कोई प्रासंगिकता नहीं है। जरूरत अब इस बात की ज्यादा हो चली है कि खुद जनता ही इस बात को गंभीरता से समझ जाए कि इस तंत्र में प्रजा ही राजा है। कबीरदास भी कह गये हैं- करू बहिया बल आपने, छोड़ बिरानी आस।