कूड़े के पहाड़ और बजबजाते नालों के नरक में रहने को मजबूर नरोदा पाटिया दंगे के विस्थापित, BJP राज में पीड़ितों पर जुल्म की इंतहा
Ground Zero Naroda Patiya : अहमदाबाद के नरोदा पाटिया ने गुजरात दंगों के दौरान 97 लोगों को कत्ल किया गया था, अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मामला उछलने के बाद यहां के दंगा पीड़ितों को "शाहआलम कैंप" में रखा गया, बाद में इन्हें अहमदाबाद की उस जगह शिफ्ट कर दिया गया, जहां पूरे शहर का कचरा डाला जाता था और आज भी ये वहीं हैं...
Ground Zero Naroda Patiya : गुजरात के साल 2002 में हुए दंगों के दो दशक बाद इन दिनों पूरे राज्य में सरकारी कामकाज चलाने के लिए अगली विधानसभा बनाए जाने की प्रक्रिया जारी है। जनज्वार टीम बीते कुछ समय से गुजरात के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक माहौल का जायजा लेने के लिए गुजरात के दौरे पर है। टीम को इस अपनी इस रिपोर्टिंग के दौरान न केवल कई ऐसे अनछुए तथ्यों से बावस्ता होना पड़ रहा है, बल्कि 27 साल से भाजपा शासित इस राज्य में लोग लोकतंत्र होने के बाद भी कितने खौफजदा हैं, इन बातों से भी कदम दर कदम परिचित होना पड़ा।
गुजरात में रिपोर्टिंग हो और गुजरात मॉडल की बात न हो, ऐसा होना अस्वाभाविक है। गुजरात मॉडल के प्रस्तुतीकरण करने वाले भले ही इसकी आड़ में विकास की बात करता हो, लेकिन कहने और सुनने वाले दोनों गुजरात मॉडल की उस सच्चाई को जानते हैं, जो इसका असली सच है। 2002 का वह गुजरात दंगा, जिसको अभी अभी देश के गृह मंत्री अमित शाह "हमने ऐसा सबक सिखाया" कहकर परिभाषित कर रहे थे, ही असल में गुजरात मॉडल है।
गोधरा काण्ड के बाद साल 2002 में हुए इस दंगे में करीब दो हजार लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा था। तत्कालीन मुख्यमंत्री व मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मुताबिक यह "क्रिया की प्रतिक्रिया" थी। नरोदा पाटिया अहमदाबाद शहर की एक ऐसी ही बस्ती थी, जहां इस वक्त 97 लोगों को कत्ल किया गया था। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मामला उछलने के बाद यहां के दंगा पीड़ितों को "शाहआलम कैंप" में रखा गया था। बाद में इन्हें अहमदाबाद की उस जगह शिफ्ट कर दिया गया, जहां पूरे शहर का कचरा डाला जाता था। भाजपा नेताओं के मुताबिक यह "कचरे के पास और थोड़ा कचरा" रखने जैसा था। रिपोर्टिंग के दौरान हमारी इन्हीं नरोदा पाटिया के कुछ पीड़ितों से मुलाकात हुई, जो इस नरक में जैसे तैसे दिन गुजार रहे हैं।
एक पीड़ित नदीम ने साल 2002 के फरवरी महीने की आखिरी तारीख की सुबह 5 बजे का जिक्र करते हुए बताया, गर्मियों की दस्तक देती उस सुबह की खुशबू कहीं से भी बसंत आगमन की गवाही नहीं दे रही थी। गोधरा काण्ड की वजह से माहौल तनावपूर्ण तो था ही, लेकिन गोधरा दूर होने की वजह से हमें उम्मीद थी कि आग की यह लपटें शायद यहां तक न पहुंचे। हमारी यह इच्छा पूरी हो भी जाती, अगर भारतीय जनता पार्टी ने गोधरा में मारे गए लोगों के शवों की यात्राएं पूरे गुजरात में निकालकर गुजरात को आग के मुहाने पर न खड़ा किया होता। भाजपा की पूरी कोशिश थी कि गोधरा की आड़ में राज्य को आग के हवाले किया जाए।'
बकौल पीड़ित नदीम, नरोदा पाटिया में भी भीड़ की लूटमार 28 फरवरी की सुबह 9 बजे से शुरू हुई। शाम 6 बजे तक खुली लूटपाट और आगजनी होती रही। पुलिस ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया। शाम तक 97 लोगों को जिंदा जलाया जा चुका था। अगले दिन दहाशतजदा लोगों को उनकी हिफाजत का भरोसा दिलाकर शाह आलम कैंप पहुंचाया गया। 8 महीने कैंप में गुजारने के बाद उन्हें अहमदाबाद के जिस बाहरी इलाके में शहर का कूड़ा फेंका जाता है, भेज दिया गया। नई जगह, नए लोग मिले। दंगे की वजह से पुराना काम तो खत्म हो गया, लेकिन नई जगह काम नहीं मिला। लोगों की मदद पर जिंदगी की गाड़ी चली। सरकार से न तो उम्मीद ही थी और न कोई मदद मिली। मिलती भी तो नहीं लेते मदद।
राजनीति का अर्थशास्त्र समझने में असफल नदीम ने यहां सवाल किया कि मुसलमानों से शत्रुता पर उतारू भाजपा सरकार हिंदुओं के वोटों की बदौलत केंद्र तक की सत्ता में आने के बाद गैस सिलेंडर उन्हें भी मुसलमानों की तरह 1200 रुपए का क्यों दे रही है। कम से कम अपने को वोट देने वालों के साथ तो वह रियायत कर ही सकती है। भाजपा के वोट बैंक हिंदुओं को जोकि मजबूर हैं उन्हें 400 का गैस सिलेंडर क्यों नहीं मिलना चाहिए।
एक और पीड़ित महिला के अनुसार उनके सामने ही लोगों को जला जलाकर कुएं में डाला जा रहा था। उनके सामने ही कर्नाटक मूल के 9 लोगों को जलाया गया था। जबकि एक और पीड़ित का कहना है कि बच्चों को देखकर रोना आता है। दंगों के बाद पत्नी मर गई। बच्चे वीरान हो गए हैं। बुढ़ापे में मजदूरी करके पेट पालते हैं अब। जहां रह रहे हैं, वहां सफाई की बात तो कर नहीं सकते, लेकिन पीने के पानी की भी इतनी समस्या है कि 3 किमी दूर से पानी लाना पड़ता है।
नरोदा पाटिया दंगे की एक पीड़ित महिला बताती है, इधर न तो स्कूल है और न ही सरकारी दवाखाना। बीमार होने पर पांच सौ रुपए लेकर दवाई लेने जाना पड़ता है। एक पीड़ित ने आम आदमी पार्टी से राज्य की हालात सुधारने की उम्मीद लगाई है। बाकी के बारे में हम उन्हीं के शब्दों "हाथ जोड़कर आते हैं, लात मारकर जाते हैं" को दोहरा भर रहे हैं।
कुल मिलाकर नरोदा पाटिया के यह पीड़ित आज जिस नारकीय जीवन में धकेले गए हैं, वह दंगा पीड़ित हर किसी की कहानी है। 20 साल बाद भी इस दंगे के जख्म न तो भरे हैं और न ही सरकार भरने देना चाहती है। दंगा पीड़ितों की कहानी सुनाने के साथ ही पाठकों को फ्लैश बैक में ले जाकर बता दें कि 2002 में गुजरात में हुए दंगों के दौरान गोधरा में साबारमती एक्सप्रेस ट्रेन को जलाए जाने के एक दिन बाद अहमदाबाद के नरोदा पाटिया इलाके में अल्पसंख्यक समुदाय पर 5000 लोगों की भीड़ ने हमला कर दिया था, जिसमें 97 लोगों की हत्या कर दी गई।
जब ये घटना हुई तब विश्व हिंदू परिषद ने बंद का आह्वान किया था। करीब 10 घंटे तक चले इस नरसंहार में उग्र भीड़ ने लूटपाट, बालात्कार, हत्या और लोगों को जिंदा जलाने जैसी घटनाओं को भी अंजाम दिया गया था। इसके बाद पूरे इलाके में कर्फ्यू लगा दिया गया था और सेना बल को तैनात कर दिया गया था।
कहा जाता है कि नरोदा का मामला 2002 के गुजरात दंगों का सबसे बड़ा कत्लेआम था, जिसमें सबसे ज्यादा लोगों की जान गई थी। इस घटना के बाद जो तस्वीर सामने आई वो बेदह भयावह थी। इस दौरान सैकड़ों लोग बेघर हो गए थे। किसी के घर में कोई कमाने वाल नहीं बचा था तो कई बच्चे अनाथ हो गए थे। शिक्षा व्यवस्था पर असर पड़ने के साथ साथ धार्मिक इमारतों को भी भारी नुकसान पहुंचाया गया था। दंगों के सात साल बाद साल 2009 अगस्त में नरोदा पाटिया मुकदमे में 62 आरोपियों के खिलाफ आरोप दर्ज किए गए।
अदालत ने इस मामले में पत्रकार, डॉक्टरों, पीड़ितों, पुलिस अधिकारियों समेत 327 लोगों के बयान दर्ज किए थे। तीन साल बाद अगस्त 2012 में एसआईटी मामलों के लिए विशेष अदालत ने बीजेपी विधायक और नरेंद्र मोदी सरकार में पूर्व मंत्री माया कोडनानी और बाबू बजरंगी को हत्या और पड़यंत्र रचने का दोषी पाया गया। उनके अलावा अन्य 32 लोगों को भी दोषी ठहराया गया। अगली अदालत में मौजूदा गृह मंत्री अमित शाह ने भी साल 2017 सितंबर 18 को माया कोडनानी की तरफ से गवाही में कहा था कि जिस दिन दंगे हुए तब माया कोडनानी नरोगा गांव में थी ही नहीं। वो सोला सिविल हॉस्पिटल में थी, लेकिन इसके बाद भी 2012 में स्पेशल कोर्ट ने माया कोडनानी को 28 साल की कारावास की सजा मिली, बाबू बजरंगी को आजीवन कारावास की सजा, वहीं 7 अन्य आरोपियों को 21 साल की जीवनपर्यन्त आजीवन कारावास की सजा।
14 लोगों को साधारण आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई, साथ ही 29 अन्य आरोपियों को इस मामले में बरी कर दिया गया था। बाद में बड़ी अदालत ने माया कोडनानी को निर्दोष करार दिया था, जबकि इन्हीं के ऊपर अपनी देखरेख में लोगों को जिंदा जलवाए जाने का वीभत्स आरोप लगा था।