आजादी के लिए अपने पूर्वजों की आहूति देने वाले घुमंतू आज भी भीख मांगने को मजबूर, अंग्रेजों ने विद्रोही भाटों को कर दिया था अपराधी घोषित
Fatehpur Ground Report : जिन घुमंतुओं ने देश की आज़ादी में चुपचाप अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाइयाँ लड़ीं, खुद के साथ अपने परिवार और कुनबे की भी बलि दे दी, उन्हीं की पीढिय़ों को सम्मान तो दूर की बात आज तक ठीक से जीने का हक भी नहीं मिल सका है, ये घुमंतू जातियां आज भी अपने ही देश में गैर मुल्क के लोगोें की तरह जीने को मजबूर हैं, रोजगार न होने के कारण भीख मांगकर गुजारा कर रहे हैं...
लईक अहमद की ग्राउंड रिपोर्ट
Fatehpur Ground Report : यूपी के फतेहपुर जनपद में में घुमंतू, नट, कंजड़, भाट, समेत लगभग एक दर्जन जातियां निवास करती हैं। जनज्वार ने बिंदकी तहसील के दरवेशाबाद गांव में रहने वाले भाट जाति के लोगों के बारे में पड़ताल की तो सामने आया कि इस जाति के 80 प्रतिशत लोग आज भी भिक्षावृत्ति से भरण पोषण करते हैं। लगभग 15 साल की उम्र से ही लड़के भिक्षावृत्ति के लिए प्रदेश और देशभर में अलग-अलग जगह निकल जाते है।
भाट जाति में भिक्षावृत्ति की कमाई से परिवार का खर्च चल रहा है। इस गांव के लोग कहते हैं, मौजूदा समय में भाट जाति का कोई भी व्यक्ति सरकारी नौकरी में नहीं है। जो चार लोग सरकारी नौकरी में थे, सेवानिवृत्त हो चुके हैं। भिक्षावृत्ति को पेट भरने का जरिया बना चुके भाट जाति के पढ़ने लिखने का प्रतिशत बहुत कम है। करीब एक हजार की आबादी वाले दरवेशाबाद गांव में ज्यादातर युवा आठवीं तक पढ़ाई कर पाते हैं, यहीं बारहवीं तक की शिक्षा प्राप्त करने वाले बमुश्किल 2 दर्जन लोग होंगे। जब हमने इसकी वजह जाननी चाही तो लोग कहते हैं, पढ़ेंगे तो तब न जब पेट भरने का जुगाड़ होगा। हमारी आर्थिक स्थिति बेहतर होगी तो और लोगों की तरह हम भी चाहेंगे कि हमारे बच्चे भी पढ़-लिखकर बाबू बनें।
80 वर्षीय सुन्दर लाल भाट कहते हैं, '15 साल की उम्र में भिक्षावृत्ति शुरू की थी, अब 80 साल की आयु में भी भिक्षावृत्ति करनी पड़ रही है। अब चाहता हूं कि किसी तरह भिक्षावृत्ति से मुक्ति मिल जाये, मगर कमाई का कोई और साधन भी नहीं है। भूमिहीन होने को वह इसका बड़ा कारण मानते हैं, हालांकि उन्होंने भिक्षावृत्ति से मुक्ति पाने के लिए अपने बेटों शिवमंगल, सूरज और अशर्फी को संगीत के क्षेत्र में उतार दिया है।
वहीं राजेश कुमार भाट कहते हैं, हम अपना पैतृक धंधा भिक्षावृत्ति छोड़कर कोई रोजगार करना चाहते हैं, मगर कोई काम मिले तब न। वह कहते हैं सरकार जब रोजगार के अवसर प्रदान करेगी तभी हमारी बिरादरी के लोगों को भिक्षावृत्ति से मुक्ति मिल सकती है।
भिक्षावृत्ति छोड़कर मजदूरी करने वाले बुजुर्ग वेदप्रकाश भाट कहते हैं, अब हमने दो जून की रोटी का जुगाड़ करने के लिए भीख मांगना छोड़ दिया है। मेहनत मजदूरी के अलावा साग सब्जी की बिक्री करके हमारे परिवार का खर्चा चलता है। मगर ये बहुत मुश्किल से हो पा रहा है, अगर सरकार की तरफ से रोजगार की दिशा में कोई सहायता मिलती तो हमारी आने वाली पीढ़ियां भीख मांगने के धंधे से मुक्त हो जातीं।
18 गांवों में रहने वाले भाट भिक्षावृत्ति पर निर्भर
फतेहपुर जनपद के 18 गांवों में भाट जाति के लोग रहते हैं, जिनमें दरवेशबाद, उमरगहना, मलाका, करसुम्मा, बलीपुर, लक्ष्मणपुर, इमलियापुर, डुडरा, फतेहपुर, फतेहपुर के लखनऊ बाईपास, कमालपुर, सेमौरा, भदाईपुर, अधरीपुर समेत कई अन्य गांव शामिल हैं। इन गांवों में रहने वाले भाट जाति के लोग भिक्षावृत्ति पर निर्भर हैं। ग्रामीण कहते हैं हमें भिक्षावृत्ति से तभी मुक्ति मिलेगी, जब सरकार रोजगार उपलब्ध करायेगी। हमारी सारी उम्मीदें सरकार पर टिकी हैं।
कौशल किशोर ने दिखाई भाट जाति को राह
भाट जाति के स्वर्गीय कौशल किशोर पढ़े लिखे इंसान थे, जिन्होंने बिरादरी के लोगों को संगठित कर भाट विमुक्त जाति में शामिल होने का आंदोलन छेड़ा था। उन्होंने लखनऊ से दिल्ली तक भाग दौड़ करके जाट जाति को सामान्य जाति में शामिल कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। बिरादरी के लोग उनके योगदान के लिए उन्हें याद करते हुए कहते हैं, इससे पहले हमें विमुक्त जाति में रखा गया था, जिससे जाति प्रमाणपत्र बनवाना तक मुश्किल होता था, साथ ही शिक्षित लड़कों के नौकरी में भी जाति आडे़ आ रही थी। इस बात की पुष्टि भाट जाति के अवधेश, अनिल, अश्विनी और अरुण भी करते हैं।
महंगाई पर भारी पड़ रहा सिलेंडर
भीख मांगकर गुजारा कर रही 60 वर्षीय प्रेमावती कहती हैं, मेरे पति रामनाथ की आठ साल पहले मौत हो गयी थी, जिसके भिक्षावृत्ति और मजदूरी करके वह अपना खर्च चलाती हैं। जब जनज्वार उसके पास पहुंचा तो बुजुर्ग महिला अपने छप्पर के नीचे चूल्हे में लकड़ी से खाना बना रही थी और सिलेंडर बगल में खाली रखा था।
जब प्रेमावती से चूल्हे में लकड़ी से खाना बनाने की वजह पूछी तो बताती है, सिलेंडर बहुत मंहगा है बाबू, कहां से भरायें। महंगाई दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है और गरीब की कोई नहीं सुनता है। पहले कई बार सिलेंडर भरवाया था, मगर अब इतना ज्यादा महंगा हो गया है कि सोच भी नहीं पाती। प्रेमावती बताती है उसके पास अन्त्योदय राशन कार्ड है, कोटेदार सौ रुपये लेकर राशन देता है, जबकि अंत्योदय राशन कार्डधारकों को निशुल्क राशन दिया जाना है।
झोपड़ी में रहने वाले गरीबों को आवास की दरकार
दरवेशाबाद के शैलेंद्र मूकबधिर हैं। वह अवपनी पत्नी राधा देवी और 4 बच्चों के साथ झोपड़ी में रहते है। इसी तरह सोनूभाट, विनय सहित दर्जनों लोगों के पास पक्के मकान नहीं हैं। इन्हें प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ नहीं मिल पाया है। ये परिवार झोपड़ी में रहते हैं और प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ मिलने के लिए टकटकी लगाये हुए हैं।
आजादी की लड़ाई में दिया था महत्वपूर्ण योगदान
आज़ादी की लड़ाई में अंग्रेजों के खिलाफ घुमंतू (घुमक्कड़) जाति के लोगों ने बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की थी, मगर आज ये बदहाली की जिंदगी जी रहे हैं। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी 193 लड़ाका जनजातियों के लोगों को अंग्रेजों ने ही क्रिमिनल ट्राइब यानी अपराधी समूह का दर्जा दिया था। कथित तौर पर अपराधी घोषित इन जातियों में बंजारा, बाजीगर, सिकलीगर, नालबंध, साँसी, भेदकूट, छड़ा, भांतु, भाट, नट, डोम, बावरिया, राबरी, गंडीला, गाडियालोहार, जंगमजोगी, नाथ, पाल, गड़रिया, बघेल, मल्लाह, केवट, निषाद, बिन्द, धीवर, डलेराकहार, रायसिख, महातम, लोहार, बंगाली, अहेरिया, बहेलिया, नायक, सपेला, सपेरा, पारधीए लोध, गूजर, सिंघिकाट, कुचबन्ध, गिहार, कंजड़ आदि सम्मिलित थीं।
कहा जाता जिन लोगों ने देश की आज़ादी में चुपचाप अंग्रेजों के खिलाफ बड़ी.बड़ी लड़ाइयाँ लड़ीं, खुद के साथ.साथ अपने परिवार, कुनबे की बलि दे दी, लेकिन उन्हीं लोगों की पीढिय़ों को सम्मान तो दूर की बात आज तक जीने का हक भी नहीं मिल सका है। ये विमुक्त घुमंतू जातियां आज भी अपने ही वतन में गैर.मुल्कियों जैसा ही जीवन जी रहे हैं। यह अलग बात है कि इनमें से कई को नौकरियाँ भी मिली हैं, बहुत.से बस्तियों में रहते हैं और अधिकतर आज भी बेघर हैं।
ये जातियाँ सामाजिक भेदभाव और तिरस्कार की शिकार हैं। दुर्भाग्य यह है कि आज भी खुद को सभ्य मानने वाले समाज ने इन्हें नहीं अपनाया है। अब इन जातियों के लोग भिक्षावृत्ति में भी उतर गये हैं, और कई पीढिय़ों से भिक्षावृत्ति की प्रथा चली आ रही है।
एक अनुमान के मुताबिक, इनमें से 80 फीसदी के पास न तो रहने को घर है और न ज़िन्दगी को सँवारने के अन्य मूलभूत संसाधन, जिनमें शिक्षा एक महत्त्वपूर्ण अंग है। संविधान के लागू होने के बावजूद आज भी इन्हें सभी नागरिक अधिकार नहीं मिले हैं, जिससे इन्हें दस्तावेज़ बनवाने, बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने और सरकारी नौकरियाँ पाने में बहुत दिक्कतें आती हैं। अलग-अलग राज्यों में इन्हें अलग-अलग जाति वर्ग में रखा गया है। इनका जीवन उनसे भी निम्न स्तर का है।