Ground Report : सीएम हेमंत सोरेन को नहीं है आदिवासियों की चिंता, आज भी चुआं से प्यास बुझाते हैं लोग
ताज्जुब की बात है कि सीएम हेमंत सोरेन खुद आदिवासी समुदाय से आते हैं, लेकिन आज भी कई गांवों में रहने वाले उसी समुदाय के लोग मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं।
विशद कुमार की रिपोर्ट
लातेहार। आज भी झारखंड में आदिम जनजाति के लोग आज भी चुआं से प्यास बुझाने के लिए मजबूर हैं। बतौर उदाहरण लातेहार जिले से 35 किलोमीटर दूर स्थित नेतरहाट पंचायत के आधे और कुरगी गांव को लिया जा सकता है। दोनों आदिम जनजाति बहुल और पहाड़ों पर बसे गांव हैं। आजादी के 74 साल और अलग झारखंड राज्य गठन के 21 साल बाद भी यहां के लोग पेजयल जैसी बुनियादी सुविधाओं से महरूम हैं। बता दें कि झारखंड में पहाड़ के नीचे, खेतों या नदी के आसपास के क्षेत्रों में दो, तीन, चार हाथ का गढ्ढा खोदकर पानी निकाला जाता है, उसे चुंआ कहा जाता है।
चूं चूं का मुरब्बा...
आधे और कुरगी गांव में रहने वाले बिरजिया आदिम जनजाति की आाबदी लगभग 500 है। गांव के लोगों की सबसे बड़ी समस्या शुद्ध पेयजल का घोर अभाव होना है। इन दो गांवों में न एक चापाकल है न कुआं। 2017 में पीएचईडी विभाग द्वारा लाखों रूपए खर्च कर जलमीनार बनवाए थे, जो चूं चूं का मुरब्बा साबित हो रहा है। जमीनी हकीकत यह है कि ग्रामीण चुआड़ी से नदी का पानी के लिए मजबूर हैं। दोनों गांव की महिलाएं आधा किलोमीटर दूर पहाड़ से नीचे उतरकर चुआड़ी से पानी लाती हैं।
गांव तक पहुंचने का नहीं है कोई साधन
इसके अलावा, आधे और कुरगी गांव के लोगों को प्रखंड मुख्यालय यानि दुरूप पंचायत के दौना गांव तक पहुंचने के लिए आज भी 10 किलोमीटर की दूरी पैदल तय करना पड़ता है। ऐसा इसलिए कि ग्रामीणों को प्रखंड मुख्यालय जाने के लिए दौना से ही वाहन मिलता है। यह हाल उस समय है जब यह क्षेत्र जंगल, नदी-झरना, वन प्राणी एवं प्राकृतिक संपदाओं से संपन्न है। सोलर ऐनर्जी एवं मोटर के माध्यम से घरों तक पेयजल आपूर्ति का लक्ष्य तैयार किया गया था, जो हाथी केदांत साबित हुए हैं। ये बात अलग है कि सरकारी फाईलों में ये लोग इन सुविधाओं से संपन्न हैं।
पोल पर तार तो हैं, बिजली नहीं
बिजली आपूर्ति के नाम पर आधे और कुरगी गांव में बिजली के पोल और तार तो लग गए हैं लेकिन बिजली आपूर्ति अभी शुरू नहीं हो पाई है। यानि आजादी के 74 साल बाद भी लोग आदि मानव युग में जीने को अभिशप्त हैं। ग्रामीण अरूण बिरजिया, फूलचंद बिरजिया और अजय बिरजिया का कहना है कि सड़क नहीं होने के कारण गर्भवती महिलाओं व बीमार लोगों को अस्पताल ले जाने के लिए घाटी व पत्थरीली रास्तों से गुजरना होता है। इन्हें टोकरी और खटिया में रखकर दौना गांव तक ले जाते हैं। उसके बाद ही कोई साधन उपलब्ध हो पाता है। गांव तक एंबुलेंस नहीं पहुंच पाता है। बिजली की सुविधा न होने से जंगली जानवरों का खतरा बना रहता है। दोनों गांव के लिए केवल एक स्कूल और एक आंगनबाड़ी केंद्र है। गांव में बीसीजी और डीबीसी टीका समय पर नहीं लग पाता है।
2 साल में विकास के लिए मिले 5 करोड़, खर्च हुए शून्य
8 आदिम जनजातियों के विकास के लिए सितंबर 2020 में सरकार ने 5 करोड़ रुपए खर्च करने की योजना बनाई थी। ये पैसे भी अभी तक खर्च नहीं हुए। अब जाकर आदिवासी कल्याण आयुक्त हर्ष मंगला ने राज्य के उपायुक्तों को पत्र लिख कर आदिम जनजातियों के ग्रामोत्थान योजना से संबंधित कार्य योजना प्रस्ताव बना कर उपलब्ध कराने का निर्देश भी दिया है। यहां के लोगों को मुख्यमंत्री राज्य आदिम जनजाति पेंशन योजना के लाभ से भी वंचित हैं। रोजगार के लिए यहां के युवक-युवती केरल, दिल्ली और उत्तर प्रदेश व अन्य राज्यों में की ओर रुख करते हैं। महुआडांड़ एसडीओ नित निखिल सुरीन कहते हैं कि मामला मेरे संज्ञान मे आया है। गांव के लोगों को जरूरी सुविधा मुहैया कराने के लिए सर्वे कराया जाएगा। स्थानीय अधिकारी इस तरह की बात तब करते हैं जब आदिम जनजातियों के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए झारखंड सरकार की ओर से बिरसा आवास, मुख्यमंत्री डाकिया योजना, मुख्यमंत्री राज्य आदिम जनजाति पेंशन योजना सहित कई योजनाएं पहले से ही अस्तित्व में हैं। लेकिन इसका लाभ ग्रामीण कई कारणों से नहीं उठा पाते हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि ग्रामीणों को इन योजनाओं के बारे में जागरूक करने के काम में स्थानीय अधिकारी कोई रुचि नहीं लेते।
क्या है डाकिया योजना?
मुख्यमंत्री डाकिया योजना झारखंड के आदिम जनजाति समुदाय को घर बैठे चावल मुहैया कराने की योजना है। खाद्य सुरक्षा के तहत आदिम जनजाति के लिए झारखंड सरकार की महत्वाकांक्षी योजना है। इस योजना की शुरुआत 2017 में शुरु हुई थी। इस योजना के कुल लाभार्थी 73,386 लोग हैं। जबकि आदिम जनजातियों की कुल जनसंख्या 2,92,369 है।
इस योजना के तहत चयनित लोगों को घर तक बंद बोरी में निशुल्क 35 किलोग्राम चावल पहुंचाया जाता है। हकीकत में लाभार्थियों को 35 किलो चावल की जगह 20 से 30 किलो ही दिया जाता है। बरसात में ये चावल 10 किलोमीटर दूर दौना गांव से लाना पड़ता है।
आबादी में कुल हिस्सेदारी 27.67%
झारखंड में 32 जनजातियां हैं। राज्य की कुल आबादी इनकी हिस्सेदारी 27.67% है। इनमें 8 आदिम जनजातियां असुर, बिरहोर, बिरजिया, कोरवा, माल पहाड़िया, परहिया, सौरिया पहाड़िया और सबर का अस्तित्व खतरे में है। 2011 की जनगणना के मुताबिक झारखंड की इन आदिम जनजातियों में असुर की कुल जनसंख्या ( 22,459) , बिरहोर ( 10,736) , बिरजिया ( 6,276 ), कोरवा ( 35,606 ), माल पहाड़िया ( 1,35,797 ), परहिया ( 25,585 ), सौरिया पहाड़िया ( 46,222 ) और सबर की जनसंख्या ( 9,688 ) है। महुआडांड़ प्रखंड में लगभग सभी जातियों के लोग रहते हैं, लेकिन प्रखंड में विशिष्ट आदिम जनजाति बिरजिया परिवार के दर्जनों गांव हैं।