Ground Report : हर पल डूबने को अभिशप्त इस गांव के वाशिंदे देख रहे हैं अपने विस्थापन की राह
Ground Report : ग्रामीणों ने सरकार के सामने अपने विस्थापन की मांग रखते हुए जमीन के बदले जमीन, मकान के बदले मकान, नौकरी और मुआवजा देने की मांग की थी, जिसे सरकार की ओर से नजरंदाज कर दिया गया.....
सलीम मलिक की रिपोर्ट
Ground Report : लोगों के घर बिजली से रोशन हों, इसके लिए क्या-क्या कीमत नहीं चुकानी पड़ती। लोगों का अपनी जमीन से उजड़ने का दर्द, संस्कृति का छिन्न-भिन्न होना, परंपरागत आपसी रिश्तों का तानाबाना टूटना, तमाम जीव-जंतुओं की बलि और पृथ्वी के इको सिस्टम में बदलाव जैसी कीमत चुकाना तो इस विकास की पहली शर्त है ही। लोगों की मानसिक यंत्रणा इससे अलग है। उत्तराखंड राज्य (Uttarakhand) में इससे पहले एक पूरे का पूरा टिहरी शहर अपनी समृद्ध सांस्कृतिक के साथ जलमग्न हो चुका है, जिसकी भरपाई अब तक नहीं हो पाई है और इसकी सांस्कृतिक विरासत (Cultural Heritage Of Uttarakhand) की भरपाई तो शायद संभव भी नही है।
ऐसे ही एक बड़े नुकसान से इन दिनों देहरादून जिले के कालसी (Kalsi) विकास खण्ड का जनजातीय बहुल यह लोहारी गांव (Lohari Village) हो रहा है जिसके निवासी अभी भी अपने विस्थापन की उम्मीद में सरकार की ओर टकटकी लगाए देख रहे हैं। 72 परिवारों वाला यह जनजातीय लोहारी गांव कभी हंसता-खेलता एक वैसा ही जीवंत गांव था, जैसे देश के अन्य गांव। लेकिन उत्तराखंड की एक बड़ी विद्युत परियोजना (Power Projects In Uttarakhand) के लिए इस गांव का अस्तित्व आड़े आने के कारण यह गांव अब विकास की भेंट चढ़ने को अभिशप्त हो गया है। प्रशासन की ओर से ग्रामीणों के लिए बिना वैकल्पिक व्यवस्था किये इस गांव को खाली करवा दिया गया है।
ग्रामीणों ने सरकार के सामने अपने विस्थापन (Displacement) की मांग रखते हुए जमीन के बदले जमीन, मकान के बदले मकान, नौकरी और मुआवजा देने की मांग की थी, जिसे सरकार की ओर से नजरंदाज कर दिया गया।
दरअसल 120 मेगावाट की यह व्यासी जल विद्युत परियोजना 50 वर्ष पहले 1972 में बनाई गई थी। इस परियोजना के तहत यमुना नदी पर 634 मीटर ऊंचा बांध बनाये जाने के कारण बांध स्थल से करीब 5 किमी दूर बसा जनजातीय गांव लोहारी पूर्ण डूब क्षेत्र में आ रहा था। 1972 से 1989 के बीच नौ किस्तों में लोहारी गांव की 8,495 हेक्टेअर जमीन अधिग्रहित की गई। इस जमीन पर कहीं कर्मचारियों की आवासीय कॉलोनी बनाई गई तो कहीं स्टोन क्रशर लगाया गया। उस समय के हिसाब से इस जमीन का मुआवजा भी लोगों को दिया गया लेकिन ग्रामीणों ने मुआवजे के साथ हर परिवार को नौकरी, जमीन के बदले जमीन की मांग के साथ अपने विस्थापन की मांग की थी। सरकार की तरफ से इन्हें पूरा करने का वायदा भी किया गया लेकिन समय के साथ यह वायदे भी भुला दिए गए। तब से लेकर अब तक इन जनजातीय लोगों को कई बार ठगा गया।
इस गांव का दौरा करके वापस लौटे देहरादून (Dehradun) के वरिष्ठ पत्रकार त्रिलोचन भट्ट के अनुसार इन दिनों गांव के जूनियर हाई स्कूल के 4 कमरों में 20 परिवार रह रहे हैं। चार कमरों के एक अन्य पुराने और खंडहर हो चुके मकान में 11 परिवारों ने डेरा डाला है। देहरादून जिला प्रशासन की ओर से मानवीय आधार पर लोगों के रहने की अस्थाई व्यवस्था करने के बावजूद गांव में कोई मदद नहीं पहुंची है। इसके उलट प्रशासन की ओर से भेजे जाने वाले पीने के पानी के टैंकर भी बंद कर दिये गये हैं। खुले में खाना बनाने और खाने, खुले में शौच और दूषित पानी का इस्तेमाल करने से गांव के लोग तेजी से डायरिया की चपेट में आ रहे हैं। अब तक दर्जनभर लोगों को डायरिया के कारण अस्पताल भेजा जा चुका है। कुछ लोग अवसाद के कारण भी अस्पतालों में भर्ती हैं।
गांव के उदय सिंह तोमर इस परियोजना की बाबत पुराने दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि 1989 में इस परियोजना के तहत लोहारी गांव के पास यमुना में पुल बनाया जा रहा था। निर्माणाधीन पुल टूट जाने से 14 लोगों की मौत हुई और कई घायल हो गये। तब परियोजना पर काम बंद हो गया। लोग अधिग्रहित जमीन सहित अपनी दूसरी जमीन पर काश्तकारी करते रहे। 2013 में एक बार फिर परियोजना पर काम शुरू करने की बात शुरू हुई। व्यासी बांध का निर्माण भी शुरू हुआ। गांव की कुछ अन्य जमीन लेने की बात करते हुए ग्रामीणों के लिए जमीनों का मुआवजा नये सिरे से तय करने की भी बात कही गई। इसके साथ ही ग्रामीणों को इस परियोजना में नौकरी या काम देने के भी ऑफर दिये गये।
जनजातीय लोगों के रीति-रिवाज व परंपराएं अन्य समाज से अलग बताते हुए ग्रामीण राजकुमार सिंह तोमर का कहना है कि हमारे देवता भी बाकी समाज के देवताओं से अलग हैं। ऐसे में हमारी मांग थी कि पूरे गांव को एक ही जगह पर बसाया जाए। जिससे गांव की सांस्कृतिक विरासत को बचाया जा सके।
बांध की भेंट चढ़ने वाली जमीनों के लिए वर्ष 2014-15 में मुआवजा की बात हुई थी तो लोगों ने मुआवजा लेने से यह कहकर इंकार कर दिया कि उन्हें जमीन के बदले जमीन और मकान के बदले मकान दिया जाए। राज्य सरकार ने यह मांग मान भी ली थी। कैबिनेट में इस पर फैसला भी हुआ और विकासनगर के पास जमीन चिन्हित भी हुई, लेकिन बाद में यह फैसला पहले स्थगित और फिर निरस्त कर दिया गया। जून, 2021 में बांध में पानी भरना शुरू हुआ तो लोहारी के लोगों ने बांध स्थल पर धरना शुरू कर दिया। इस दौरान जल सत्याग्रह भी किया गया। 120 दिन तक धरना चलता रहा। 2 अक्टूबर की देर रात भारी संख्या में पुलिस बल भेजकर गांव के 17 लोगों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया और बाकी लोगों को खदेड़ दिया गया।
एक अन्य ग्रामीण रमेश सिंह चौहान के अनुसार हाल में गांव के कुछ लोगों के खाते में 2 लाख से 6 लाख रुपये तक भेजे गये हैं। लेकिन रुपये किस हिसाब से भेजे गये, यह नहीं बताया जा रहा है। नया मुआवजा 23 लाख रुपये प्रति हेक्टेअर तय किया गया था। वह भी 20-25 परिवारों को ही मिला। जबकि जनजाति एक्ट में प्रावधान है कि यदि विस्थापित किये जाने वाला कोई परिवार भूमिहीन हो तो उसे 2.50 हेक्टेयर जमीन का मुआवजा दिया जाएगा। लेकिन, लोहारी के मामले में इन सब कानूनों का पालन नहीं किया गया। इतना ही नहीं, जो जमीन एक्वायर की गई थी, बांध का पानी उससे भी ज्यादा भर दिया गया है। उन्हें यह भी नहीं बताया गया है कि पानी कहां तक भरेगा ?
परियोजना का एक दिलचस्प तथ्य यह बताया जाता है कि बांध निर्माण के दौरान गांव के कुछ लोगों की गाड़ियां काम पर लगी थी। जबकि कुछ लोगों ने मजदूरी की थी। बाद में कहा गया कि मजदूरी और गाड़ियों के किराये के रूप में गांव वालों को जो पैसा दिया गया है, वह मुआवजे में से काट दिया जाएगा। गांव के ओमपाल सिंह चौहान सवाल उठाते हैं कि बांध निर्माण में पूरे देश के सैकड़ों लोगों को काम मिला था, ऐसे में लोहारी गांव के लोगों के मुआवजे में से पैसे काटने का कोई औचित्य समझ नहीं आ रहा है। गांव के लोगों के सरकार से पूछने के लिए कई सवाल हैं, लेकिन कोई उनकी बात सुनने को तैयार नहीं। लोगों को घरों से खदेड़कर उनके हाल पर छोड़ दिया गया है।
फिलहाल लोहारी गांव अब क्षण-प्रतिक्षण डूबने की राह पर है। जैसे-जैसे गांव में पानी भरता जा रहा है, वैसे-वैसे लोग खुद पीछे हटते जा रहे हैं। गांव के अबोध बच्चों के लिए यह एक कौतुक बना हुआ है। वह न तो इस विस्थापन का दर्द समझने की उम्र में हैं। और न ही इसकी गंभीरता। अलबत्ता गांव के बुजुर्ग अपनी कातर नजरों से एक हंसते-खेलते गांव की हत्या होते देखने को मजबूर हैं। महिलाओं के तमाम दुख-दर्द, हंसी-खुशी के रिश्तों का गवाह यह गांव रहा है। वह नम आंखों से इसे अंतिम विदाई देते हुए धोती के पल्लू से आंखों की कोर का पानी साफ कर रही हैं।
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