झारखंड में सरकार की डपोरशंखी योजनाओं के बीच भूख की त्रासदी झेलती नंदी हेम्ब्रम और गुम्मी दिग्गी जैसे आदिवासी
Tribal live matter : आदिवासी विधवा नंदी हेम्ब्रम कहती है जंगल से लकड़ी, दातौन और पत्ता तोड़कर बाजार में बेचकर किसी तरह पेट भरते हैं, कई बार तो भूखा भी रहना पड़ता है, जब यह सब नहीं बिक पाता है...
विशद कुमार की रिपोर्ट
Tribal live matter : झारखंड के पश्चिम सिहभूम का प्रखंड है सोनूआ, जहां से मात्र 3-4 कि.मी. दूरी पर बसा है पोड़ाहाट गांव, जिसकी जनसंख्या है लगभग 1800, जहां बसते हैं कुड़मी, कुम्हार, लोहार सहित आदिवासी समुदाय के हो जनजाति के लोग, जिनकी संख्या है 500 के करीब। रोजगार के लिए साधनविहीन इस गांव के लोग दूसरे राज्यों में पलायन को मजबूर हैं।
इस गांव का एक टोला है भालूमारा, जहां रहती है 57 वर्षीया विधवा नंदी हेम्ब्रम। नंदी हेम्ब्रम के पास आधार कार्ड व वोटर कार्ड के अलावा सरकारी जनाकांक्षी योजनाओं का कोई लाभ नहीं है। इंदिरा आवास, प्रधानमंत्री आवास, राशन कार्ड, विधवा पेंशन, स्वास्थ्य कार्ड, गैस, शौचालय कुछ भी नहीं है। मनरेगा का काफी पुरान जॉबकार्ड तो है, लेकिन उस पर आज तक कोई काम नहीं मिला है। नंदी के घर में सरकारी योजना के अंतर्गत आदिवासियों के घर में मुफ्त बिजली देने के तहत बिजली का कनेक्शन है और घर में बल्ब भी लटका है, लेकिन वह आज तक कभी जला नहीं, क्योंकि अभी तक इसमें बिजली की सप्लाई नहीं दी गई है।
20 साल पहले विधवा हुई नंदी हेम्ब्रम की अभी मात्र एक बेटी है जो अपने ससुराल में रहती है। वैसे उसके तीन बच्चे थे जिनमें से दो छोटी उम्र में ही काल कलवित हो गए। पति सीदीयों हेम्ब्रम पश्चिम बंगाल में एक ईट भट्ठा में काम करता था, जो काम के दौरान घायल हो गया था। काफी गहरा घाव था, इसििलए भट्ठा मालिक द्वारा उसका समुचित इलाज न करवाकर उसे उसके घर भालूमारा लाकर छोड़ दिया गया। पैसा भी नहीं दिया गया, जिसके कारण खाने के लाले पड़ गए और वह खाना व इलाज के अभाव में मौत के आगोश में समा गया।
पति की मौत के बाद नंदी हेम्ब्रम जंगल से लकड़ी, दातौन और पत्ता तोड़कर लाती, सोनुआ बाजार जाकर बेचती, तब अपना और अपनी बेटी का पेट भर पाती। कभी—कभी किसी के खेत में काम करके कुछ अनाज वगैरह मिल जाता, तो कई बार दोनों मां—बेटी को भूखा भी रहना पड़ता। आज भी नंदी का गुजारा ऐसे ही हो रहा है। थोड़ा फर्क यह है कि धान कटाई वगैरह के सीजन में अब बेटी बुला लेती है, वह बेटी का सहयोग कर देती है, जिससे उसका कुछ दिन के भोजन की व्यवस्था बेटी के घर हो जाती है।
गौरतलब है कि नंदी हेम्ब्रम को हिन्दी नहीं आती है, ऐसे में एक समाज सेविका प्यारी देवगम जो खुद हो जनजाति से आती हैं, का हमने सहयोग लेकर नंदी से सारी जानकारी ली। नंदी हेम्ब्रम की इस दशा के बारे में स्थानीय निवासी व एक सामाजिक कार्यकर्ता संदीप प्रधान ने बताया था। उन्होंने ही प्यारी देवगम के माध्यम से नंदी से बात की।
नंदी हेम्ब्रम हो भाषा में ही बताती है कि उसके पास आधार कार्ड व वोटर कार्ड तो है, लेकिन इंदिरा आवास, राशन कार्ड, विधवा पेंशन, गैस, शौचालय कुछ भी नहीं है। मनरेगा का काफी पुराना जॉब कार्ड है, लेकिन आज तक कोई काम नहीं मिला है। घर में बल्ब तो लटका है लेकिन वह आज तक कभी जला नहीं। वह बताती है कि 20 साल पहले पति का देहांत हो गया।
नंदी का पति पश्चिम बंगाल में एक ईट भट्ठा में काम करता था, काम के दौरान घायल हो गया। भट्ठा मालिक घर लाकर छोड़ गया, पैसा भी नहीं दिया। खाना व इलाज के अभाव में उनकी मौत गयी। वह बताती है कि तब से जंगल से लकड़ी, दातौन और पत्ता तोड़कर बाजार में बेचकर किसी तरह पेट भरते हैं। कभी कभी तो भूखा भी रहना पड़ता है, जब यह सब नहीं बिक पाता है या मन खराब रहने पर जंगल नहीं जा पाते हैं। जंगल में भी दिक्कत है, वहां रहने वाले लोग केवल सूखी लकड़ी ही तोड़ने देते हैं। वे कहते हैं कि तुम जंगल में पानी दी है जो पेड़ काटेगी।
नंदी हेम्ब्रम कहती है कि धान कटाई के सीजन में बेटी बुला लेती है, बेटी का सहयोग कर देते हैं, जिससे तीन-चार महीना का खाना मिल जाता है। खेती की जमीन है? के सवाल पर नंदी हेम्ब्रम बताती है कि इस घर के अलावा और कोई जमीन नहीं है।
यह हाल अकेले नंदी हेम्ब्रम का नहीं है, ऐसे ही हालात का शिकार है इसी गांव और इसी टोले की 5 बच्चों के साथ 35 वर्षीया विधवा गुम्मी दिग्गी। 4 साल पहले उसके पति की मौत ईंट भट्ठा की दीवार गिरने से उसके नीचे दबकर हो गई थी। वह भी पश्चिम बंगाल में ईंट भट्ठा में काम करता था। ईंट की पकाई के बाद उसके निकालने की प्रक्रिया में अचानक ईंट का टाल उस पर आ गिरा, जिससे उसकी घटनास्थल पर ही मौत हो गई। लेकिन उसके परिवार को इस दुर्घटना से हुई मौत का कोई मुआवजा नहीं मिला।
गुम्मी किसी तरह गांव में ही मजदूरी करके और जंगल से जलावन की लकड़ी वगैरह लाकर उसे बेचकर बच्चों का पेट पालती रही। पिछले साल गांव के सरकारी स्कूल में तीसरी कक्षा में पढ़ने वाली बड़ी उसकी बेटी अरकाली दिग्गी जिसकी उम्र 13 साल के करीब हो गई थी, पश्चिम बंगाल में ईंट भट्ठा में काम करने चली गई। गुम्मी दिग्गी के 5 बच्चों में से 2 बच्चे स्कूल जाते थे, 13 साल की लड़की तीसरी कक्षा में और 10 साल की लड़की दूसरी कक्षा में पढ़ती थी। स्कूल जाने का एकमात्र कारण था, मध्याह्न भोजन।
इन बच्चों को स्कूल में मध्याह्न भोजन में जो खाना मिलता था, उसमें से कुछ बचाकर घर लाते थे, जिसे अन्य तीन भाई—बहन का पेट भरता था। लेकिन वह भी कोरोना काल में हुए लॉकडाउन के कारण बंद हो गया। तब 13 साल की अरकाली दिग्गी को काम करने पश्चिम बंगाल जाना पड़ा। लेकिन इस वर्ष के लॉकडाउन में उसे घर आना पड़ा, जिस कारण इस परिवार को भूखों मरने की स्थिति आ गई है, बावजूद कोई सुध लेने वाला नहीं है।
गुम्मी दिग्गी भी हो जनजाति समुदाय से आती है, वह भी हिन्दी बोल नहीं पाती है। वह अपनी हो भाषा में बताती है, 'मेरे पास सरकारी कोई भी योजना का लाभ नहीं मिला है। राशन कार्ड, विधवा पेंशन, स्वास्थ्य कार्ड, मनरेगा कार्ड, गैस, शौचालय नहीं है। केवल प्रधानमंत्री आवास है। 14 साल की बेटी बंगाल काम करने गई है। हम यहां मजदूरी करते हैं, लेकिन करोना के कारण वह भी नहीं मिलता है। पांच बच्चे हैं। पति की चार साल पहले मौत हो गई है।'
प्रधानमंत्री आवास उसके पति के जिंदा रहते बना था। बस वही एक सरकारी लाभ मिला है इस परिवार को। यहां तक कि आधार कार्ड भी केवल गुम्मी दिग्गी के नाम है, बाकी किसी भी बच्चों का आधार कार्ड नहीं है। ऐसी स्थिति में अगर राशन कार्ड बनता भी है तो वह केवल गुम्मी दिग्गी का ही बनेगा, बच्चों का नाम राशन कार्ड में शामिल नहीं हो सकता है।
पिछले वर्षों में झारखंड में भूख से होने वाली मौतों की खबरें सुर्खियों में रही हैं। जो आंकड़े उपलब्ध हैं उसके अनुसार दिसम्बर 2016 से 2020 तक झारखंड में भूख से 24 लोगों की मौत भोजन की अनुपलब्धता के कारण हुई है।
1— इंदरदेव माली (40 वर्ष) हजारीबाग ——— दिसंबर 2016
2— संतोषी कुमारी (11 वर्ष) सिमडेगा ——— 28 सितंबर 2017
3— बैजनाथ रविदास, (40 वर्ष) झरिया ——— 21 अक्टूबर 2017
4— रूपलाल मरांडी, (60 वर्ष) देवघर ——— 23 अक्टूबर 2017
5— ललिता कुमारी, (45 वर्ष) गढ़वा ——— अक्टूबर 2017
6— प्रेममणी कुनवार, (64 वर्ष) गढ़वा ——— 1 दिसंबर 2017
7— एतवरिया देवी, (67 वर्ष) गढ़वा ——— 25 दिसंबर 2017
8— बुधनी सोरेन, (40 वर्ष) गिरिडीह ——— 13 जनवरी 2018
9— लक्खी मुर्मू (30 वर्ष) पाकुड़ ——— 23 जनवरी 2018
10— सारथी महतोवाइन, धनबाद ——— 29 अप्रील 2018
11— सावित्री देवी, (55 वर्ष) गिरिडीह ——— 2 जून 2018
12— मीना मुसहर, (45 वर्ष) चतरा ——— 4 जून 2018
13— चिंतामल मल्हार, (40 वर्ष) रामगढ़ ——— 14 जून 2018
14— लालजी महतो, (70 वर्ष) जामताड़ा ——— 10 जुलाई 2018
15— राजेंद्र बिरहोर, (39 वर्ष) रामगढ़ ——— 24 जुलाई 2018
16— चमटू सबर, (45 वर्ष) पूर्वी सिंहभूमि ——— 16 सितंबर 2018
17— सीता देवी, (75 वर्ष) गुमला ——— 25 अक्टूबर 2018
18— कालेश्वर सोरेन, (45 वर्ष) दुमका ——— 11 नवंबर 2018
19— बुधनी बिरजिआन, (80 वर्ष) लातेहार ——— 1 जनवरी 2019
20— मोटका मांझी, (50 वर्ष) दुमका ——— 22 मई 2019
21— रामचरण मुंडा, (65 वर्ष) लातेहार ——— 5 जून 2019
22— झिंगूर भूंइया, (42 वर्ष) चतरा ——— 16 जून 2019
23 — भूखल घासी, (42 वर्ष) बोकारो ——— 6 मार्च 2020
24 — सोमारिया देवी, (70 वर्ष) गढ़वा ——— 02 अप्रैल 2020
उल्लेखनीय है कि भारत में हर साल रोज़ 20 करोड़ लोग भूखे सोते हैं, जबकि 40% खाना बर्बाद होता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य और कृषि संगठन FAO (Food and Agriculture Organization) की रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया भर में हर दिन 69 करोड़ से ज़्यादा लोग भूखे सोते हैं।
वहीं, भारत में भोजन के अभाव में प्रतिदिन भूखे सोने वालों की संख्या 20 करोड़ से भी ज़्यादा है। आपको बात दें कि भारत में हर साल पैदा होने वाला 40% खाद्यान्न रखरखाव या आपूर्ति की गड़बड़ी के कारण खराब हो जाता है। इसके बावजूद करोड़ों लोग देश में खाली पेट सोने पर मजबूर हैं।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स - 2021 की रिपोर्ट के मुताबिक 116 देशों की सूची में भारत 91वें स्थान से फिसलकर 101वें स्थान पर आ गया है। देश में हर साल प्रति व्यक्ति 50 किलो खाना बर्बाद होता है। अगर कुल खाने की बर्बादी का अनुमान लगाएं तो हर साल 68,760,163 टन खाना बर्बाद हो जाता है। इसके बावजूद भारत में करोड़ों लोग भूखे सो जाते हैं, वहीं एक बड़ी आबादी को पौष्टिक भोजन नहीं मिलता है।