मायावती ने किया दलितों के उभरते नेतृत्व की जड़ों में मट्ठा डालने का काम, जनाधार वाले नेताओं को दिखाया बाहर का रास्ता
दलित शोषित समाज में कांशीराम हमेशा अनुकरणीय व प्रेरणा के आधार रहेंगे, उनका सम्मान भी निरंतर बढ़ेगा, लेकिन अब उनका संगठन व पार्टी खत्म हो जाएगी, इसकी शुरुआत भी हो चुकी है
दलित कार्यकर्ता सीमा गौतम की टिप्पणी
जनज्वार। इतिहास सिखाता है और अपने आपको दोहराता भी है। बहुत साफ-साफ यह सच दलित, शोषित और वंचितों के आंदोलन में दिखाई दे रहा है। समतामूलक समाज की अवधारणा के पहले के सूत्रधार महान संत रैदास के बाद भारत की भूमि पर असमानता व गैर बराबरी के खिलाफ सशक्त व्यक्तित्व के रूप में 11 अप्रैल सन् 1827 को ज्योतिराव फुले का जन्म हुआ। इसके बाद 26 जून सन् 1874 में शाहू जी महाराज का जन्म हुआ, जिन्होंने शोषण अन्याय के खिलाफ खड़ा होकर सामंतवादी व जातिवादी ताकतों से लोहा लिया।
अब इनके बाद 17 सितम्बर सन् 1879 में दक्षिण एशिया के सुकरात कहे जाने वाले ई.वी.रामास्वामी पेरियार का जन्म भारत की भूमि पर हुआ, इनका पूरा जीवन जातिवादी सत्ता, पूंजीवादी ताकतों के खिलाफ एवं जातिविहीन समाज के निर्माण के लिए एक मिसाल है। फिर 14 अप्रैल सन् 1891 में बाबासाहब डॉ. बी.आर. अम्बेडकर का जन्म भारतभूमि पर हुआ, जिनका संघर्ष और त्याग आज पूरी दुनिया में बड़ा मिसाल है। इसके बाद 15 मार्च सन् 1934 को कांशीराम साहब इस दुनिया में आये और दलित, शोषित और वंचित की सशक्त लड़ाई भारत में लड़ी और एक प्रदेश में सरकार भी बनाया।
ज्योतिराव फुले के जीवन संघर्ष से हम बात शुरू करते हैं। फूले ने संघर्ष किया और संगठन बनाया 'सत्य शोधक समाज'। इस संगठन के माध्यम से समाज की आवाज उठाने का पूरा प्रयास किया। फुले की मृत्यु के बाद उनका संगठन धीरे-धीरे निष्क्रिय हो गया। फुले के बाद शाहू जी महाराज ने उस लड़ाई व विचारधारा को आगे बढ़ाया।
शाहू जी ने फुले की विचारधारा, संगठन को जिन्दा करने का प्रयास किया, लेकिन सफलता नहीं मिली। आगे शाहू जी के दुनिया से जाने के बाद ई.वी. रामास्वामी पेरियार ने उस लड़ाई को आगे बढ़ाने का आंदोलन चलाया। पेरियार ने भी फुले, शाहू की विचारधारा और उनके मकसद को लिया। पेरियार प्रारम्भ में तो कांग्रेस के साथ रहे, लेकिन जल्द ही कांग्रेस छोड़ा और सामंतवादियों, पूंजीपतियों के खिलाफ समाजवाद की सोच लेकर दक्षिण भारत में जस्टिस पार्टी के साथ कार्य किया और तमिलनाडु में सत्ता भी स्थापित की।
पेरियार के साथ ही बाबासाहब डॉ. बीआर अम्बेडकर ने महाराष्ट्र को केन्द्र बनाकर लड़ाई का नेतृत्व अपने हाथ में लिया। बाबासाहब ने फुले, शाहू को अपना आदर्श माना और उनसे भारी मदद भी ली, लेकिन डॉ. अम्बेडकर ने भी उन महापुरुषों का सिर्फ विचारधारा, उनका मिशन अपने हाथ में लिया। उनके संगठन या पार्टी को नहीं लिया।
उनके संगठनों को भी जिन्दा करने का प्रयास नहीं किया, बाबासाहब ने खुद अपना संगठन बनाया, फिर अपनी राजनीतिक पार्टी बनायी और लड़ाई लड़े। इसी धारा को आगे बढ़ाते हुए कांशीराम ने फुले, शाहू, पेरियार, अम्बेडकर को अपना आदर्श, प्रेरणा मानते हुए उन महापुरुषों का मिशन व आन्दोलन अपने हाथ में लिया। फुले, शाहू, पेरियार, डॉ. अम्बेडकर की पार्टियों, संगठनों (सत्य शोधक समाज, जस्टिस पार्टी, रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया—आरपीआई) का अध्ययन व अनुभव तो किया, लेकिन उनके द्वारा बनाई गयी संगठन या पार्टी में काम नहीं किया, बल्कि खुद का संगठन व पार्टी बनाया और उस मिशन व आंदोलन को आगे बढ़ाया।
उक्त घटनाक्रम यह स्पष्ट करता है कि महापुरुषों का विचार, उनका मिशन व आन्दोलन महत्वपूर्ण होता है, न कि संगठन और पार्टी। कोई भी महापुरुष संघर्ष करके संगठन या पार्टी खड़ा करता है तो उसके जीवित रहते हुए उनका संगठन या पार्टी सही रास्ते पर काम करता है, लेकिन उनके मृत्यु के बाद उस संगठन या पार्टी को चालाक व चालबाज लोग तीन-तिकड़म से हासिल कर लेते हैं।
फिर कुछ दिन तक उस पार्टी या संगठन को बेचते हैं और निजी लाभ के लिए मूल उद्देश्य से भटक जाते हैं, समाज का लगाव भी उस पार्टी या संगठन से खत्म हो जाता है, लेकिन स्थापित करने वाले महापुरुष की विचारधारा को समाज मान लेता है। जैसे फुले, शाहू, पेरियार, डॉ. अम्बेडकर के विचारधारा को तो समाज मानता है, लेकिन उनकी पार्टी व संगठन को भूल चुका है।
आज दलित आंदोलन फिर अपना इतिहास दोहराने के लिए तैयार है, वर्तमान स्थिति ठीक वैसे ही जैसे पूर्व के महापुरुषों के साथ हुआ, अब वही घटना कांशीराम साहब के बनाए संगठन व पार्टी के साथ शुरू हो चुकी है। कांशीराम जी ने डीएस-4, बामसेफ व बहुजन समाज पार्टी बनायी, मगर अब जनता उसे भूल रही है। दलित शोषित समाज में कांशीराम हमेशा अनुकरणीय व प्रेरणा के आधार रहेंगे, उनका सम्मान भी निरंतर बढ़ेगा, लेकिन अब उनका संगठन व पार्टी खत्म हो जाएगी, इसकी शुरुआत भी हो चुकी है।
जिस बसपा को चुनाव में विधानसभा की हर सीट पर लगभग 30-40 हजार वोट पाना निश्चित रहता था, आज उस बसपा को विधानसभा के एक सीट पर 3 हजार से भी कम वोट मिले। यानी जो समाज यानी आधार मतदाता ने संकेत दिया, इस संकेत को यदि कोई हल्के में लेता है तो यह भारी भूल होगी। क्योंकि समाज ना तो मूर्ख है और न लालची। समाज सही समय पर यह संदेश स्पष्ट देता है कि अब हमें नया नेतृत्व चाहिए।
यहां यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कि संगठन या पार्टी जो व्यक्ति स्थापित करता है वो अपना मिशन समाज को बताता है, और उस पर वो काम करता है, लेकिन कोई भी जब दूसरे का बनाया संगठन या पार्टी चालाकी से हासिल करता है तो हासिल करने वाला व्यक्ति हमेशा अपने निजी लाभ के लिए संगठन व पार्टी का उपयोग करता है। यही काम कांशीराम साहब की बनाई संगठन व पार्टी को हासिल करके मायावती ने भी किया।
भाई-भतीजा प्रेम, भाई की कम्पनी को हजारों-लाखों करोड़ का फायदा कैसे हो, इसके लिए बसपा प्लेटफॉर्म का सीधा दुरुपयोग जितना हो सकता है, खूब किया। मायावती ने जो कुछ किया वो समाज को पसन्द नहीं है, फिर भी सुधरने का अवसर देते हुए कि आगे सुधार होगा, इसलिए साथ भी दिया इंतजार भी किया।
समाज के इसी साथ व इंतजार का मतलब मायावती ने गलत निकाला और यह मान लिया कि समाज उनका अंधभक्त या गुलाम बन गया है, जो हमेशा हमारे इशारे पर नाचेगा। इस बड़ी गलतफहमी ने मायावती को सुधरने के बजाय बड़ा तानाशाह बना दिया। मायावती दलित, शोषित समाज में कोई और नेतृत्व या नेता न उभरे, इसके लिए हमेशा साजिश रचने लगीं। दलित, शोषित समाज की समस्या व दुख दर्द पर ध्यान न देकर दिन-रात पूरी ऊर्जा के साथ सिर्फ यही काम करने लगी कि दलित समाज के उभरते हुए नेतृत्व या नेता को खत्म या बदनाम कैसे किया जाए। यह मिशन मायावती ने अपने लिए बनाया।
मायावती ने पहले तो बसपा में जो भी कांशीराम के साथ काम करने वाले प्रतिभाशाली व जनाधार वाले नेता थे, उन सभी को बारी-बारी से कोई न कोई आरोप लगाकर पार्टी से निकाल दिया। पार्टी के अंदर अपने यशमैन को भर लिया, जो उनके सामने सर झुकाकर खड़े रहे और जो कुछ बोल न सके और बोले तो सिर्फ 'जी बहन जी', कुछ कहने की हिम्मत न हो।
सिकुड़ती हुई सोच और मायावती की भारी गलतफहमी ही एक महान नेता कांशीराम का आंदोलन को पतन के तरफ ले जाने लगा, जो समाज सहन करने को तैयार नहीं है, इसीलिए समाज ने शांत मुद्रा में रहते हुए क्षेत्रवार युवा नेता यानी नया नेता खड़ा करने का फैसला कर लिया। गुजरात में जिग्नेश मेवानी, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चन्द्रशेखर रावण, दीदी निर्देश सिंह, पूर्वी उत्तर प्रदेश में श्रवण कुमार निराला, मध्य प्रदेश में फूल सिंह वरैया, महाराष्ट्र, हरियाणा के साथ-साथ अन्य प्रदेशों में युवा दलित नेतृत्व का उभार कोई घटना नहीं है, बल्कि दलित शोषित समाज का रणनीतिक योजना का आम सहमति का फैसला है।
उभरती हुई जो लीडरशिप है उसमें पूर्वी उत्तर प्रदेश में श्रवण कुमार निराला का नाम एक ऐसा नाम है, जिसके पास संगठन खड़ा करने का कुशल अनुभव है, और इस कुशलता का उपयोग पूर्वी उत्तर प्रदेश में बहुत ही बेहतरीन तरीके से श्रवण कुमार निराला कर रहे हैं, जिसका अभी शोर तो बहुत नहीं है, पर जमीनी स्तर पर दखल बहुत मजबूत है, जिसकी एक झलक 12 जनवरी 2020 को गोरखपुर में श्रवण कुमार निराला के नेतृत्व में आयोजित अम्बेडकर जनमोर्चा की महारैली में उमड़ी पचासों हजार की संख्या में जनसैलाब का जुटना प्रमाण है।
स्पष्ट है कि दलित, शोषित, वंचित समाज की अब अगले दस साल कोई सेन्ट्रल लीडरशिप नहीं होगी। क्षेत्रीय आधार पर नया नेता या नेतृत्व तैयार होगा और संघर्ष भी सीधा होगा। समाज भी उसी के साथ खड़ा होगा, जिसमें सीधा संघर्ष करने की हिम्मत और जुनून होगा।
इसका मतलब यह भी नहीं कि भारत में सेन्ट्रल लीडरशिप अब मान्यवर कांशीराम साहब जैसा नहीं मिलेगी। सेन्ट्रल लीडरशिप दलित, वंचित समाज को मिलेगी, लेकिन इसमें लगभग 10 साल लगेंगे, क्योंकि जब क्षेत्रीय आधार के नेता उभर रहे हैं तो इसमें से ही कोई लम्बी रेस का नेतृत्वकर्ता निकलेगा।
यह बात स्पष्ट है कि मायावती का नेतृत्व स्वयं ही दलित वंचित समाज छोड़ देगा। इसका प्रमाण 2022 के उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में मिल जाएगा, जिसके संकेत आने शुरू हो गचे हैं। यूपी में 2019 के उपचुनाव में कुछ सीटों पर 3000 से भी कम वोट मिलना मायावती से दलित समाज की बढ़ती दूरी और असहमति हैं, क्योंकि अब दलित बंगले में बैठकर कम्पनियों जैसी मैनेजमेंट की राजनीति से उब चुका है। अब नेता वही जो समाज से सीधा जुड़ेगा और सीधा संवाद करेगा, और समस्या के खिलाफ सड़क पर उतरकर संघर्ष करेगा।