मोदी के मंत्री का दावा, 5 सालों में काम के दौरान सर पर मैला उठाने वाले किसी सफाईकर्मी की नहीं हुई मौत

मेनहोल की सफाई करते श्रमिकों की दम घुटने की कारण मृत्यु की खबरें अक्सर हम पढ़ते रहते हैं, पर रामदास अठावले को शायद पढ़ना नहीं आता, यही मंत्री जी पिछले वर्ष से इस वर्ष तक संसद में ऐसी मौतों का अलग-अलग आंकड़ा दे चुके हैं, पर इस बार तो आंकड़े को शून्य ही कर दिया...

Update: 2021-07-31 17:18 GMT

मेनहोल की सफाई करते श्रमिकों की दम घुटने की खबरें छायी रहती हैं मीडिया में, मगर रामदास अठावले के लिए ये नहीं हैं मौतें (file photo)

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

जनज्वार। देश में जिस नागरिक प्रतिनिधित्व क़ानून के तहत चुनाव कराये जाए हैं, उसके अनुसार जनप्रतिनिधियों को कोई मानसिक रोग या विकार नहीं होना चाहिए। हालांकि क़ानून में रहने के बाद भी जनप्रतिनिधियों के इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया जाता और कोई भी पागल, मनोरोगी या मनोविकार से ग्रस्त व्यक्ति चुनावों में खड़ा होता है, धन और बल के भरोसे चुनाव जीतता है और फिर हम पर हुकूमत करने लगता है।

वर्ष 2014 के बाद से जो सरकार हमारे ऊपर राज कर रही है, उसमें मुखिया से लेकर अधिकतर सदस्य मनोरोगी हैं, क्योंकि इनलोगों को अत्यधिक झूठ बोलने की आदत है, या यो कहें कि ये सभी प्रतिनिधि चाह कर भी सच बोल ही नहीं पाते हैं।

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार कम्पल्सिव लाईन्ग डिसऑर्डर एक मनोरोग है, जिससे ग्रस्त व्यक्ति अत्यधिक झूठ बोलने लगता है और इसका सबसे बड़ा कारण मनुष्य में आत्मविश्वास की कमी है। जाहिर है जब सत्ता पक्ष के संसद सदस्य, मंत्री और प्रधानमंत्री संसद में या फिर जनता के बीच जाते हैं तब उन्हें मालूम होता है कि अपने नकारापन के कारण वे देश को गर्त में पहुंचा चुके हैं, इसलिए उनमें कभी विपक्ष को या फिर जनता का सामना करने का साहस नहीं होता और आत्मविश्वास नहीं होता। यही आत्मविश्वास की कमी उन्हें मनोरोगी बनाता है और फिर कम्पल्सिव लाईन्ग डिसऑर्डर के शिकार मंत्री और प्रधानमंत्री बस झूठ का उत्पादन करने वाली फैक्टरी बन कर रह जाते हैं।

अभी संसद में मंत्री द्वारा दिए गए बयान, देश में ऑक्सीजन की कमी से कोई मौत नहीं हुई, का विरोध थमा भी नहीं था कि 28 जुलाई को सामाजिक न्याय मंत्री रामदास अठावले ने फिर से एक सफ़ेद झूठ संसद में उगल डाला। मंत्री जी के अनुसार देश में पिछले पांच वर्षों के दौरान किसी भी मैन्युअल स्कैवेंजर की मृत्यु अपना काम करते नहीं हुई।

मैन्युअल स्कैवेंजर उन्हें कहा जाता है जो पुराने शौचालयों से मानवमल उठाते हैं या फिर नालियों और मेनहोल की सफाई उसमें उतरकर अपने हाथों से करते हैं। मेनहोल की सफाई करते श्रमिकों की दम घुटने की कारण मृत्यु की खबरें अक्सर हम पढ़ते रहते हैं, पर मंत्री जी को शायद पढ़ना नहीं आता। बात यहीं ख़त्म नहीं होती, यही मंत्री जी पिछले वर्ष से इस वर्ष तक संसद में ऐसी मौतों का अलग-अलग आंकड़ा दे चुके हैं, पर इस बार तो आंकड़े को शून्य ही कर दिया।

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शायद उन्हें पुराने वक्तव्य याद नहीं रहते, यह स्थिति गंभीर है और उन्हें जांच करनी चाहिए कि वे कहीं पार्किन्सन डिजीज से ग्रस्त तो नहीं हैं, जिसमें अपने मस्तिष्क पर नियंत्रण नहीं रहता और सबकुछ भूल जाते है। वैसे यह जांच इस सरकार के सभी मंत्रियों और मुखिया को करानी चाहिए।

इसी वर्ष 2 फरवरी को मंत्री महोदय ने लोकसभा को बताया था कि पिछले 5 वर्षों के दौरान 19 राज्यों में कुल 340 सफाई कर्मी की मौत सीवर लाइन या मैनहोल साफ़ करते हो गयी। पिछले वर्ष भी उन्होंने लोकसभा को बताया था कि वर्ष 2016 से वर्ष 2019 के बीच ऐसी 282 मौतें दर्ज की गयी हैं। 28 जुलाई 2021 को राज्य सभा में मत्री जी ने यह आंकड़ा ही शून्य तक पहुंचा दिया, जाहिर है पिछले आंकड़ों में जिनकी मौतें बताई गईं थी, वे सभी सरकारी चमत्कार से पुनर्जीवित हो गए।

देश में स्वच्छ भारत अभियान शौचालय बनाने तक सीमित रहा, पर इससे सम्बंधित समस्याएं बढ़ती रहीं। शौचालयों की संख्या बढाने के लिए लालायित सरकार ने इससे उत्पन्न समस्याओं की तरफ ध्यान ही नहीं दिया। सीवर में उतरकर सफाई करने वाले या फिर सर पर मैला उठाने वाले आज भी हैं और इनकी समस्याएं भी पहले जैसी ही हैं। प्रधानमंत्री जी केवल शौचालयों की संख्या बताकर पुरस्कार लेते रहे और दूसरी तरफ वर्ष 2019 में 112 सीवर कर्मियों की मृत्यु सीवर की सफाई के दौरान हुई। स्वच्छ भारत अभियान सफाई से जुड़े सबसे खतरनाक कार्य को ख़त्म नही कर पाया। सबसे बड़ी समस्या यह है कि ऐसे कर्मियों को सीवर में भेजने वाले ठेकेदारों या फिर अधिकारियों पर कोई भी ठोस कार्यवाही नहीं की जाती है, जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2013 में ही इस प्रकार के कार्य को गैर-कानूनी करार दिया था।

वाटरऐड इंडिया नामक संस्था के नीतिनिर्धारक वी आर रमण के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों की लगभग एक-चौथाई आबादी के पास अब तक शौचालय की सुविधा नहीं है, हालांकि सरकार सबके पास शौचालय के दावा लम्बे समय से करती आ रही है। ग्रामीण क्षेत्रों में यदि शौचालय हैं भी, तब भी सीवरेज की सुविधा नहीं है। अधिकतर ग्रामीण शौचालय केवल एक होल्डिंग पिट से जुड़े हैं, जिसमें मल खाद में परिवर्तित नहीं होता। ऐसे पिट को कुछ समय बाद हाथ से ही खाली करना पड़ता है।

मानव मल को सर पर उठाने की प्रथा को समाप्त करने वाले एक गैर-सरकारी संगठन के प्रमुख के ओबलाश कहते हैं कि यह काम जाति पर आधारित है, और सबसे निचली जाति के लोग यह काम करते हैं, इसलिए सरकारें इस समस्या पर कभी गंभीर नहीं होती। सर पर मैला उठाने वाले देश में कितने लोग हैं, इस संख्या का भी अता-पता नहीं है। कुछ समय पहले एक सर्वेक्षण के अनुसार इसकी संख्या देश में 150000 से अधिक है, जबकि के ओबलाश कहते हैं कि वास्तविक संख्या इससे बहुत अधिक है, अकेले कर्नाटक में ही इनकी संख्या 20000 से अधिक है।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश के 13 राज्यों में कुल 12742 लोग सर पर मैला उठाने का काम करते हैं, दूसरी तरफ वर्ष 2011 की जाति-आधारित सोसिओ-इकनोमिक सेन्सस के अनुसार देश में इस काम को करने वाले परिवारों की संख्या 182505 है। वर्ष 2011 के सेन्सस के अनुसार देश में 740078 घरों में ड्राई लैट्रिन हैं, जिन्हें हाथ से साफ़ करने की जरूरत होती है।

3 जुलाई 2019 को संसद में जानकारी दी गयी कि पिछले 3 वर्षों के दौरान 88 सीवर मजदूरों की मौत हो गई। जुलाई 2019 में ही नेशनल कमीशन फॉर सफाई कर्मचारीज के अनुसार वर्ष 2019 में जुलाई तक देश में 50 सीवर कर्मी की मौत हो चुकी थी। यह कमीशन देश के केवल 8 राज्यों – उत्तर प्रदेश, हरयाणा, दिल्ली, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्णाटक और तमिलनाडू - से ही जानकारी एकत्रित करता है। इसके अनुसार देश में 1993 से अबतक 817 सीवर कर्मियों की मौत काम के दौरान हो चुकी है। कमीशन के अनुसार अकेले दिल्ली में पिछले 2 वर्षों के दौरान 38 सीवर कर्मियों की मौत हो गयी।

दिल्ली सरकार ने इस समस्या को मिटाने के लिए कुछ काम किया है। यहाँ पर 200 से अधिक स्वचालित मशीनें खरीदी गयी हैं] जो सीवर की सफाई का काम करती हैं। पर, पुराने सीवर तंत्र और तंग गलियों में इन मशीनों के नहीं पंहुच पाने के कारण हरेक जगह इनका उपयोग नहीं किया जा सकता है।

सैनिटेशन वर्कर्स मूवमेंट के बी विल्सन के अनुसार स्वच्छ भारत अभियान एक पागलपन से अधिक कुछ नहीं है क्योंकि शौचालयों का निर्माण बिना किसी इंफ्रास्ट्रक्चर को विकसित किये ही किया जा रहा है, पर समस्या यह है कि यह पागलपन लाइलाज है और इसके लक्षण लगातार बढ़ाते जा रहे हैं।

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