कमल सोरेन जैसे बहुसंख्यक पतियों का मानना है शादी की जाती है हर हाल में 'सुख' के लिए, ये पतियों का फंडामेंटल राइट

कमल सोरेन किसी तरह से एक सप्ताह तक 'परहेज' करता था... जबकि डॉक्टर ने कहा था कि लगातार 6 महीने तक दूरी बनाकर रखनी है... इमोशनल ब्लैकमेल करके थोड़ा सा... थोड़ा सा करूंगा बोलकर ये भूल जाता था कि मेरी तबियत बिगड़ जा रही है...

Update: 2022-12-08 15:04 GMT

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झारखंड की आदिवासी प्रोफेसर रजनी मुर्मू की आपबीती, जो सोहराय पर्व में महिलाओं के साथ होने वाली छेड़खानी के खिलाफ आवाज उठाने के बाद आयी थीं चर्चा में और आदिवासी समाज ने की थी ​उनकी सोशल लिंचिंग

2006 में मेरा दूसरा बेटा हुआ... तीन महीने तक बेडरेस्ट लेने के बाद मैंने घर के काम करने शुरू कर दिये.. और धीरे धीरे घर के बाकी भारी काम भी... तब हमने पालो जोड़ी में एक किराये के घर में रहना शुरू किया था.. जहाँ कुएं से पानी निकालना पड़ता था... फिर मुझे एहसास हुआ कि मेरे वजाइना में कुछ फंस सा गया है.. जमीन पर उकुडू कर बैठने पर लगा कि अंदर से कुछ बाहर आ रहा है...

ये एहसास डरावना था... बहुत सुन रखा था कि बच्चे पैदा करने के बाद बहुत परहेज करना पड़ता है नहीं तो बहुत सारी औरतों का गर्भाशय बाहर लटक जाता है.. मैंने डॉक्टर को दिखाया... तो उन्होंने कहा कि दवाई के साथ 6 महीने' परहेज' भी कीजिए... अपने आप ठीक हो जायेगा... दवाई तो लेना शुरू किया और घर में भारी काम करना भी बंद कर दिया लेकिन ये 'परहेज' तो नहीं हो रहा था...

कमल सोरेन जैसे बहुसंख्यक पतियों का मानना है कि शादी इसीलिए ही की जाती है कि उसको हर हाल में 'सुख' मिले... ये पतियों का फंडामेंटल राइट होता है... ये मर्द किसी तरह से एक सप्ताह तक 'परहेज' करता था... जबकि डॉक्टर ने कहा था कि लगातार 6 महीने तक दूरी बनाकर रखनी है... इमोशनल ब्लैकमेल करके थोड़ा सा... थोड़ा सा करूंगा बोलकर ये भूल जाता था कि मेरी तबियत बिगड़ जा रही है...दवाई खाकर मैं ठीक महसूस कर ही रही होती हूँ कि ये अपना रोना धोना करके अपना ' सुख' भोग लेता था और उसके बाद फिर से मेरी तबियत खराब होती थीं... अक्सर दूसरे दिन मैं फूल बेडरेस्ट में चली जाती थी...

डॉक्टरों को पता होता है कि आम भारतीय परिवारों में 'पत्नी की सेहत के लिए' परहेज करना संभव ही नहीं है... इसलिए वो मुझे लगातार गर्भाशय निकाल कर झमेला खत्म करने की सलाह देतीं रहतीं थीं.. हॉस्पिटल जाने पर कहतीं कि देखो आज तो हमने 15 महिलाओं के गर्भाशय निकाला तो आज 20 का निकाला...

लेकिन मुझे लग रहा था कि मेरी समस्या इतनी गंभीर नहीं है कि गर्भाशय निकालने की जरूरत पड़े... मैं दवाई से ठीक हो सकती हूँ... इस बीच लगातार बुखार रहने लगा... मैं पंखे के निचे नहीं बैठ सकती थी.. भीषण गर्मी में भी मैं पसीने से तरबतर एक कोने में चादर ओढ़कर सोती थी क्योंकि बीच में पंखा चल रहा होता था... कहीं पर 5 मिनट से ज्यादा खड़े रहना मुश्किल था... क्योंकि कमर में भयंकर दर्द शुरू हो जाता था... ऐसे में खराब से खराब जगह में भी जमीन पर बैढ जाती थी.. या फिर अंजान लोगों से उसकी जगह बैठने के लिए रिक्वेस्ट करती थी.. मुझे हर बार अपनी लाचारी बतानी पड़ीं की मुझे बैठने दो मेरी तबियत खराब है.... भारी काम न कर पाने के कारण हमेशा परिवार वालों से लेकर अंजान लोगों पर निर्भर रही... कभी अकेली रही तो पानी से भरी बाल्टी को घसीट कर एक जगह से दूसरी जगह ले गयी..

बीमारी में इंसान चाहता है कि उसके पास एक इंसान तो हो जिसके गले लगकर भरपूर स्नेह और दुलार लिया जाय... पर इस पति परमेश्वर के पास गले लगना मतलब अपना गर्भाशय और खराब करना था...

कमल सोरेन का कहना था कि अगर तुम्हारी तबीयत खराब है तो फिर अपनी सहेलियों के साथ घूमने क्यों चली जाती हो... सोहराय बाहा कैसे अटेंड कर लेती हो ? और फिर इतना भकोस कर खा कैसे लेती हो...? बीमार इंसान को न किसी से हंसना बोलना चाहिए, कम खाना चाहिए (वो भी माड़ भात टाइप का) और न ही कोई पार्टी अटेंड करना चाहिए... हाँ, घर के काम हर हाल में घसीट कर भी कर लेने चाहिए .... और अगर मैंने किसी को मदद करने केे लिए रखने दिया है तो फिर तो वो देवता है...

इसी बीच में दो—तीन अबॉर्शन भी.... हमने कहा कि नसबंदी करा लो तो मुझे कुछ आराम मिलेगा, लेकिन जवाब वही जो इस देश के अधिकतर मर्द देते हैं कि मर्दानगी खत्म हो जायेगी...

2006 से लेकर 2014 तक लगातार ये सब झेलने के बाद इस मर्द केे लिए मन एकदम से खिन्न हो चुका था... अलग होने की बात करने पर इसका रोना धोना, उपर से मेरे परिवार का भी उस तरह से सपोर्ट नहीं करना... माँ मेरे फैसले में साथ देना चाहती थी, लेकिन पिता को अक्सर मैंने माँ को ताना मारते सुना कि तुम ही बेटी को बढ़ावा दे रही हो... तुम उसका घर उजाड़ दोगी..... माँ ऐसे आरोपों से बचने के लिए अक्सर चुप हो जाती थी...

अपनी सेहत और अपने आहत मन के साथ मैंने अपना बेड अलग कर लिया.... घिन इतनी आ गयी थी कि अब गले लगना भी गंदा लग रहा था.... तलाक लेकर अलग रहने की हिम्मत नहीं थी.... पिता के घर में मेरे रूम पर कोई और रहने लगा था... मेरे लिए वहाँ जगह ही नहीं थी.... उपर से इल्जाम ये भी लग रहा था कि मैं ही अलग होना चाहती हूँ... वो तो रो रहा है.. किसी के साथ रिश्ता इतना स्नेहिल नहीं था कि मैं बता पाती कि मेरे साथ क्या हो रहा है.... मैं कैसे खुद को लाचार, बेबस और अपमानित महसूस कर रही हूँ....

पुलिस कम्पलेन के नाम पर पर तब इसने शारीरिक हिंसा करने से खुद को रोक लिया था, लेकिन मानसिक हिंसा को जमकर करने लगा जब मैंने अपना बिस्तर अलग किया तो... बदला लेने के लिए मेरा जेआरएफ होने के बाद भी आगे कोई सहयोग करने से मना कर दिया.... सहयोग से मतलब केवल साथ में रांची जाने से था... और अकेले रांची जाने का मतलब तब मेरा लक्ष्मण रेखा लांघना था... फिर मेरी छोटी बहन का एडमिट कार्ड छुपा लिया...

थक हारकर मैं सोचने लगी कि अब क्या करना है.... यह समय था जब मुझे आत्महत्या के ख्याल बहुत जोर से आ रहे थे.... मैंने आसपास के परिवारों पर नजर दौड़ाई.... उन परिवारों की महिलाएं बहुत खुश थीं.... उन्होंने अपनी दूनियां बना कर रखी थी....मुझे भी लगा कि अपनी भी ' दूनियां' बननी चाहिए.... बाकी दूनियां को उसके हाल पर छोड़ देना चाहिए....

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