झारखंड में एक पारा शिक्षक के भरोसे ज्यादातर सरकारी स्कूल, वही हेडमास्टर-वही चपरासी, 40 हजार शिक्षकों के पद हैं खाली

बीते दो दशकों में स्कूलों की बिल्डिंग खूब बनीं, मध्याह्न भोजन, पोशाक-साइकिल वितरण, ऑनलाइन से लेकर कई प्रकार की चीजों को आगे बढाया गया, मगर जो चीज नहीं सुधरी वह है शिक्षण व्यवस्था...

Update: 2020-10-07 03:29 GMT

गोरटोली प्राथमिक विद्यालय में एक भी स्थायी शिक्षक नहीं है, पारा शिक्षक मनोज कुमार राणा पर पूरे स्कूल की जिम्मेवारी है.

राहुल सिंह की रिपोर्ट

जनज्वार। बीते दो दशकों में सरकारी स्कूलों की दशा सुधारने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों के स्तर पर बहुत सारे प्रयास किए गए हैं। गरीब बच्चों को स्कूल से ड्राॅप आउट होने से बचाने के लिए मध्याह्न योजना शुरू की गई। बच्चों को मुफ्त साइकिल, कपड़े आदि देने की व्यवस्था भी हुई। इसके साथ ही ऑनलाइन व अन्य अत्याधुनिक तकनीक से भी शिक्षा देेने की व्यवस्था की गई। स्कूलों के विद्यालय भवन भी पहले से समृद्ध हुए हैं और ज्यादातर जर्जर व पुराने भवन पक्के के भव्य भवनों में तब्दील हो गए हैं।

सुदूर इलाकों में भी अमूमन अब पेड़ के नीचे बच्चों को पढाने की नौबत आने वाली स्थितियां कम ही हैं। वह पुराने दिनों की प्रेरणा व दुश्वारियों की एक मिलजुली कहानियां बन कर रही गईं जिसे बड़े बुजुर्ग अब अपने बच्चों को बताते हैं और कहते हैं कि हम ऐसा पढा करते थे, तुम्हारे समय में तो बहुत सारी सुविधाएं हैं।

लेकिन, शिक्षा-शिक्षण के मूल में शिक्षक होते हैं और निःसंदेह यह कहा जा सकता है कि हाल के दो दशकों में जो चीज नहीं सुधरी वह शिक्षकों की व्यवस्था। अमूमन उत्तर भारतीय राज्यों की स्थिति कमोबेश एक जैसी ही है, लेकिन झारखंड जैसे पिछड़े राज्य में शिक्षकों की संख्या भयावह हां भयावह ही रूप से कम है।

झारखंड में शिक्षकों के 40 हजार से अधिक पद रिक्त हैं। बड़ी संख्या में ऐसे विद्यालय हैं जो एक शिक्षक के भरोसे संचालित हो रहे हैं। उस शिक्षक को स्कूल के हेडमास्टर से लेकर पहली से आठवीं कक्षा तक के टीचर, मध्याह्न भोजन के प्रबंधक, सरकार के गैर शैक्षणिक कार्याें के लिए किरानी की भूमिका निभाने जैसे काम भी करने होते हैं। ऐसा काम कई स्कूलों में पारा शिक्षक करते हैं, जो लंबे समय से अपने स्थायी नियोजन की मांग करते रहे हैं।

आंकड़ों के अनुसार, झारखंड में 1336 अपग्रेडेड  high school हैं जहां प्रधानाध्यापक नहीं हैं। वहीं, 95 प्रतिशत मिडिल स्कूल में प्रधानाध्यापक विहीन हैं। कल्पना कीजिए एक ऐसा राज्य जहां 45 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करते हैं और इस रूप में उनके लिए शिक्षा व पठन-पाठन का सबसे सहज सुलभ साधन सरकारी स्कूल ही हो सकता है, वहां स्थिति कितनी भयावह है।

सरकारी विद्यालयों के खास्ताहाल सिस्टम को इस एक केस स्टडी से समझिए

झारखंड के गिरिडीह जिले के देवरी प्रखंड की जमखोखरो पंचायत में एक गांव है - गोरटोली। इस गांव में एक प्राइमरी स्कूल है, जो एकमात्र पारा शिक्षक मनोज कुमार राणा के भरोसे संचालित होता है। यह अलग बात है कि सात महीने से देश कोरोना संक्रमण की वजह से लाॅकडाउन है, लेकिन सामान्य दिनों में मनोज कुमार राणा पूरे स्कूल की जिम्मेवारी संभालते हैं। उन पर पहली से पांचवी कक्षा तक के प्रभारी शिक्षक भी हैं, हेडमास्टर भी और कक्षाओं के अंतराल को लेकर घंटी बजाना भी उनका ही काम है। स्कूल को खोलने से लेकर ताला-चाभी लगाना तक उनका काम है। अगर झाड़ू भी मारना हो तो उन्हें ही यह काम करना होगा या छोटे बच्चों से इसके लिए मदद मांगने का विकल्प हो सकता है।

सरकार के सर्वशिक्षा अभियान के तहत विद्यालय का भवन चकाचक है, लेकिन शिक्षण की व्यवस्था बेरौनक है। गांव के बच्चें के लिए स्कूल पढने-पढाने से अधिक मध्याह्न भोजन, पोशाक आदि का जरिया है। चर्चा भी उसी की होती है, कितना आया है, कितना बंटा, किसे मिला, नहीं मिली। पढाई-लिखाई गौण है।

गोरटोली गांव का प्राथमिक विद्यालय का भवन भव्य है, लेकिन शिक्षण व्यवस्था चौपट है.    फोटो : राहुल सिंह.

इकलौते मास्टर साहब के पास ब्लाॅक आफिस के कई तरह के काम होते हैं जो सामान्यतः सरकारें सरकारी स्कूलों के शिक्षकों से करवाती हैं। मनोज कुमार राणा को अक्सर ब्लाॅक ऑफिस गुरु गोष्ठी व अन्य क्लैरिकल काम के लिए जाना होता है। मोबाइल के जरिएं एसएमएस व अन्य माध्यमों से कई तरह के डेटा देने होते हैं। इन सब वजहों से सामान्य दिनों में भी स्कूल 10 से 12 दिन ही खुला रहता है। अगर स्कूल में ताला लगा तो समझिए मास्टर साहब ब्लाॅक ऑफिस गए हैं या सरकार के किसी और काम में लगा दिए गए हैं।

मास्टर साहब के पास उपलब्ध समय का एक बड़ा हिस्सा ब्लाॅक शिक्षा पदाधिकारी को विद्यालय के पोषाहार-मध्याह्न भोजन, पोशाक का हिसाब देने में खर्च हो जाता है। मनोज कुमार राणा 14 साल से पारा शिक्षक की नौकरी कर रहे हैं और हेड मास्टर के रिटायर होने के बाद स्कूल की पूरी जिम्मेवारी उनके कंधों पर आ गई।

विद्यालय भवन की दीवार पर मध्याह्न भोजन का मीनू चार्ट और बाल संसद का जिक्र.   फोटो : राहुल सिंह.

गोरटोली गांव का यह प्राथमिक विद्यालय पहले और अब की सरकारी शिक्षा की पोल भी खोलता है। दशक भर पहले स्कूल में पर्याप्त शिक्षक हुआ करते थे और पढाई भी ठीक होती थी, लेकिन अब व्यवस्था अधिक खराब हो गई है। ऐसे में अब प्राथमिक कक्षाओं में भी गांव के लोग अपेन बच्चों का नामांकन बगल के गांव जमखोखरो के निजी स्कूल में करवाते हैं।

आसपास के गांवों में नहीं है बेहतर शिक्षण व्यवस्था

गोरटोली गांव के लोग बताते हैं कि आसपास के गांवों में भी सरकारी स्कूलों की व्यवस्था बहुत बेहतर नहीं है, लेकिन यहां से थोड़ी ठीक कही जा सकती है। गांव के एमएससी कर रहे युवक बबलू यादव कहते हैं कि पहले स्कूल की व्यवस्था ठीक थी, लेकिन अब बाकी चीजें दुरुस्त हैं लेकिन शिक्षा बदहाल है। गांव की बच्ची पूजा कुमार और मनीषा कुमारी कहती हैं कि स्कूल में पढाई नहीं होती है।

गांव की बच्ची पूजा कुमारी व मनीषा कुमारी जिनका कहना है कि स्कूल में नहीं होती अच्छी पढाई.       फोटो : राहुल सिंह.

गोरटोली गांव जमखोखरो पंचायत में पड़ता है और इस पंचायत में दो मध्य व तीन प्राथमिक विद्यालय हैं। हाइस्कूल नहीं है। गांव के लड़के हाइस्कूल की पढाई के लिए नौ किलोमीटर दूर साइकिल से अन्य प्रखंड के स्कूल जाते हैं। ये बच्चे जमुआ प्रखंड के भंडारो हाइस्कूल बढाई के लिए जाते हैं। गांव के 20 से 25 बच्चे वहां जाया करते हैं। वहीं, लड़कियां हीरोडीह थाना के पास स्थित स्कूल में हाइस्कूल की पढाई के लिए जाती हैं।

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