सांस्कृतिक धरोहर : हुड़के की थाप पर हुई धान की रोपाई, कुमाऊं की अद्भुत परम्परा में घट रहा युवाओं का रुझान

Ramnagar News, Ramnagar Samachar। उत्तराखंड के पहाड़ों की दुष्कर भौगोलिक परिस्थितियों में परंपराओं का ऐसा योगदान है कि वह जिंदगी को कुछ हद तक आसान करती हैं। यह परंपराएं लोगों को न केवल सांस्कृतिक रूप से समृद्ध करती हैं बल्कि सामूहिकता की भावना को बलवती करती हैं।

Update: 2022-08-19 06:58 GMT

सलीम मलिक की रिपोर्ट

Ramnagar News, Ramnagar Samachar। उत्तराखंड के पहाड़ों की दुष्कर भौगोलिक परिस्थितियों में परंपराओं का ऐसा योगदान है कि वह जिंदगी को कुछ हद तक आसान करती हैं। यह परंपराएं लोगों को न केवल सांस्कृतिक रूप से समृद्ध करती हैं, बल्कि सामूहिकता की भावना को बलवती करती हैं। इन्हीं परंपराओं में एक परम्परा खेतों में होने वाले "हुड़किया बौल" की है। मानसून के दिनों में कुमाउं के खेतों में इस परम्परा का लम्बा इतिहास रहा है। लेकिन पहाड़ों में खत्म हो रही खेती की वजह से अब यह परम्परा यदा-कदा ही देखने को मिलती है। रामनगर जैसे भावर के इलाके में इस परम्परा को कुछ हद तक जीवित रखने के प्रयास पूर्व विधायक रणजीत सिंह रावत द्वारा किए जा रहे हैं। जहां हर साल हुड़किया बौल का आयोजन किया जाता है। मोतीपुर गांव में उनके खेत में होने वाले इस आयोजन के कई लोग गवाह बनते हैं।


क्या है हुड़किया बौल?

हुड़किया बौल कब और कैसे शुरू हुआ, इसका कोई लिखित दस्तावेज उपलब्ध नहीं है। लेकिन इसे देखने भर से अंदाजा हो सकता है कि श्रम की दुरूहता को कम करने के साथ ही काम के दौरान एकाकीपन को खत्म करने के उद्देश्य से यह परम्परा अस्तित्व में आई होगी। हुड़किया बौल की बात करें तो बता दे कि यह कुमाउं मंडल में धान की रोपाई के दौरान होने वाला उत्सव है। गांव के स्त्री पुरुष खेतों के घुटने तक पानी में घुसे हरे कोमल धान के पौधे की रोपाई करते हैं तो इनका उत्साह बढ़ाने के लिए वहां एक हुड़किया (स्थानीय भाषा का लोक कलाकार) भी मौजूद रहता है। हुड़के की थाप पर किसी भी लोकगीत को गाता यह हुड़किया खेत में काम करने वालों को थकान का अवसर नहीं आने देता। हुड़के की इस थाप पर हुड़किया के साथ खेत में कमर झुकाये रोपाई कर रहे लोगों का यह समूह भी कोरस में गीत गाकर हुड़किए का पूरा साथ देता है। 

मानसून के दिनों में लोकगीतों के शोर के साथ धान रोपाई करते लोगों का यह समूह आज गांव के इस खेत में तो कल उस खेत में दिखाई देता रहता है। रोपाई के लिए पूरे गांव के अलग-अलग घरों के खेतों के लिये अलग दिन तय किया जाता है। सभी गांव वाले मिलकर एक परिवार के खेतों में रोपाई लगाते हैं फिर इस परिवार के लोग दूसरे लोगों के साथ दूसरे परिवार के खेत में रोपाई करते हैं। यह क्रम तब तक जारी रहता है जब तक गांव के हर व्यक्ति के खेत में धान रोपाई नहीं हो जाती। इस काम के लिए किसी को पैसों का भुगतान नहीं करना पड़ता है।

हां, इतना जरूर है कि गांव की सामूहिकता को बढ़ावा देने वाली इस रोपाई के दिन रोपाई करने वालों के खाने और चाय-पानी की व्यवस्था उसी परिवार को करनी पड़ती है जिसके खेत में उस दिन रोपाई लगती है। हुड़किया बौल को लेकर बच्चों में खासा उत्साह देखने को मिलता है। इसी उत्साह में वह रोपाई करने वालों की मदद करते हुए इस परंपरा से अपने को आत्मसात भी करते हैं। कुमाउं के घाटी वाले रामगंगा, सोमेश्वर, सरयू जैसे क्षेत्रों में यह परंपरा आषाढ़-सावन के महीनों में आज भी दिखती है। इस रोपाई का मुख्य आकर्षण हुड़किया बौल ही है जो इसे एक उत्सव का रूप देता है। हुड़के की थाप का ही असर होता कि कठिन काम भी मनोरंजन के साथ ऐसे किया जाता है कि रोपाई कर रहे हाथ खुद तेजी पकड़ने लगते हैं।

लेकिन पहाड़ों से हो रहे पलायन और वन्यजीवो की वजह से बरबाद हो रही खेती के चलते पहाड़ की यह परम्परा अब लगातार कम होती जा रही है। लेकिन भावर की तलहटी में बसे मोतीपुर गांव में इसका भव्य आयोजन अब भी हर साल धान रोपाई के दौरान किया जाता है। पूर्व विधायक रणजीत सिंह रावत के "द पहाड़ी ऑर्गेनिक फॉर्म" में होने वाले इस आयोजन को देखने के लिए कई लोग पहुंचते हैं। हर साल की तरह इस साल भी इसका आयोजन बृहस्पतिवार को किया गया। जिसमें हुड़के की थाप पर पर्वतीय वाद्य यंत्रों के साथ धान की रोपाई की गई।

Full View

आयोजक रणजीत रावत बताते हैं कि हुड़किया बौल हमारी पौराणिक सांस्कृतिक विधा है। पहले सामूहिक खेती हुआ करती थी। खेती में काम करते समय किसानों को ज्यादा थकान ना हो तो उनके साथ एक आदमी हुड़का (पर्वतीय शैली का वाद्य) बजाते हुए गाना गाता था तो धान रोपाई करने वालों का मनोरंजन भी होता था और काम भी ज़ल्दी होता था। लेकिन पहाड़ों में नष्ट होती खेती के कारण हमारी तमाम सांस्कृतिक विरासत खात्मे की ओर है। पहाड़ में धान रोपाई के दौरान हुड़किया बौल की परम्परा से भी आज की पीढ़ी अनभिज्ञ है। ऐसे में हमारा दायित्व है कि जो भी सांस्कृतिक परंपराएं हमारे बुजुर्गों से हम तक पहुंची हैं, उन्हें हम कम से कम उसी रूप में आने वाली पीढ़ी को सौंपे। इसी भावना के तहत हर साल वह अपने यहां हुड़किया बौल का आयोजन किया जाता है। जिसमें आस-पास के लोग सहभागिता करते हैं तो दूसरी तरफ लोग अपनी संस्कृति को समझने के लिहाज से भी इस आयोजन में शामिल होते हैं।

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