ठीक इसी वक्त देश की सड़कों पर, हाइवे पर, एक महान दृश्य नमूदार हुआ। हमने उन्हें देखा। दिन में पचास बार देखा। कुछ संवेदन हो रहा था भीतर। अवसाद सा घेर रहा था। शायद ऐसे ही किसी पल में एक लाचार बुजुर्ग, एक शव या किसी बीमार को देखकर सिद्धार्थ गौतम 'बुद्ध' बने रहे होंगे...
पढ़िये वरिष्ठ पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव को उनके साप्ताहिक कॉलम ‘कातते-बीनते’ में
अपने एक मित्र हैं। सामाजिक कार्यकर्ता हैं। मान लीजिए नाम है 'क'। ग्रामीण वंचितों में शिक्षण का काम करते हैं। एक बार अपनी प्रशिक्षण कार्यशालाओं में अपनायी जाने वाली मानक पद्धति का ज़िक्र कर रहे थे। वे आमतौर से कार्यशाला में नियत समय से देर से पहुंचते थे। फिर प्रतिभागियों से पूछते कि इस बीच जो समय गुज़रा, उसमें उनके मन में क्या विचार आये। एक बार इसके जवाब में उन्हें ज़ोर का झटका लगा।
उस कार्यशाला में ज्यादातर प्रतिभागी आदिवासी ग्रामीण थे, वो भी औरतें। अपनी पुरानी शैली में वे देर से आये और वही सवाल दाग दिये। किसी ने कोई जवाब नहीं दिया। फिर उन्होंने 'विचार' का मतलब समझाया। सबने कहा कि उन्होंने जिंदगी में कभी 'विचार' ही नहीं किया था। उन्हें पता ही नहीं था कि 'सोचना' भी एक 'काम' है।
अपने एक और मित्र हैं। मान लीजिए नाम है 'ख'। वे शहरी संपन्न वर्ग के बीच पर्सनालिटी काउंसलिंग का काम करते हैं। जो लोग मनोवैज्ञानिक रूप से हिले हुए हैं, वे उनसे मोटे पैसे लेकर उनका मानसिक इलाज करते हैं। वे बताते हैं कि जब पैसेवालों से उनके थॉट प्रॉसेस यानी विचार प्रक्रिया के बारे में पूछा जाता है तो वे एकदम से चुप हो जाते हैं। इन्होंने अकसर पाया है कि विचार सत्र के दौरान जब प्रतिभागियों को खाली छोड़ा जाता है, तो वे अपने स्मार्टफोन में कुछ करने लग जाते हैं। लौटकर जब वे पूछते हैं कि क्या सोचा, तो सबको काठ मार जाता है।
अपने एक और प्राचीन मित्र थे। इन्हें 'ग' मान लें। वे कहते थे कि इस व्यवस्था में 'काम' करने का मतलब है गोबर बनाने की मशीन चलाना। उनके मुताबिक आप अपने काम में जितना दक्ष होंगे, जितने कुशल, जितने आत्मनिर्भर, मशीन को उतनी तेज़ और कुशलता से चलाएंगे। नतीजा, गोबर ढेर सारा और उम्दा क्वालिटी का पैदा होगा।
ये बात कोई बीसेक साल पहले की है। काफी बाद में इन मित्र को जब समझ में आया कि गोबर बनाये बगैर मुक्ति नहीं है, तो वे भी मशीन चलाने लग गये। हां, उम्दा और ढेर सारा गोबर नहीं बनाते, बीच-बीच में खुद को काम से मुक्त कर के या खाली समय में विचार करते हैं। विचार पर अमल भी करते हैं।
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ये तीन स्तर हैं समाज के। पहला उन वंचितों का, जिन्हें जिंदगी के खटराग में सोचने की सहूलियत हासिल नहीं है। उनके लिए 'विचार' करना एक लग्ज़री है। दूसरा स्तर खाये-पीये-अघाये लोगों का है, जिनके पास खाली वक्त तो खूब है, लेकिन उसे भरने के लिए संसाधन भी पर्याप्त हैं। लिहाजा उन्हें 'विचार' करने की ज़रूरत नहीं पड़ती। तीसरा समाज के उस निम्न मध्यवर्ग की नुमाइंदगी करता है जो आजीविका कमाने के साथ खाली वक्त में विचार भी करता है। वो आजीविका का अहर्निश गुलाम नहीं है।
'क' और 'ख' की कहानी में आये लोगों से आप विचार की उम्मीद नहीं रख सकते। गरीब वंचित के साथ इसकी उम्मीद करना उनके साथ नाइंसाफ़ी है। अमीर संपन्न से इसकी उम्मीद करना ज्यादा से ज्यादा सदिच्छा है। बचता है 'ग', जहां विचार की गुंजाइश है। कार्ल मार्क्स इसी 'ग' के सहारे जाने क्या-क्या फानते थे। जो लोग समाज को जस का तस बनाये रखना चाहते हैं, उन्हें इसी 'ग' से दिक्कत है। वे किसी तरह इसे उस गोबर उत्पादन की प्रक्रिया में खींच लाना चाहते हैं, जिससे उसे वैचारिक परहेज़ है।
एक बार एक कवि को युद्धकाल में सेना में भर्ती कर लिया गया था। उससे पूछा गया तुम क्या करते हो। उसने कहा, कवि हूं। उसे मटर छांटने के काम में लगा दिया गया। कहा गया बड़ी मटर और छोटी मटर को छांट कर अलग करो। कवि ने मटर छांटने के बजाय दिमाग छांट दिया। मटर को दो के बजाय कई खानों में बांट दिया। खाने बढ़ते ही जा रहे थे, छंटाई रुक ही नहीं रही थी। सारजेंट आया। उसने देखा कवि काम में भिड़ा हुआ है। उसने डपटते हुए कहा, “ये भी नहीं कर पा रहे, तो किस काम के हो?" कवि ने जवाब दिया, “काम थोड़ा मुश्किल है क्योंकि बड़े और छोटे का पैमाना नहीं बताया गया है।” सारजेंट को गुस्सा आया। कवि को तोप के मुंह पर रख के उड़ा दिया गया।
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दरअसल, ये जो अपना भाई 'ग' है, ये भी कुछ दशक पहले तक अपने कवि के जैसा ही था। इसे बताया गया कि मटर चाहे कितने ही अलग-अलग आकार प्रकार की हों, छांटने की काबिलियत तो उसी की मानी जाएगी जो बड़ी और छोटी फलियों में उसे बांट देगा। उसे ही कुशल कारीगर माना जाएगा। तरक्की भी उसी की होगी। पूरा मध्यवर्ग लग गया मटर छांटने, बिना सवाल किये या बड़े-छोटे का पैमाना पूछे। जिसने मन लगाया, बड़े-छोटे का मोटा फ़र्क बरतते हुए सबसे तेज़ काम किया, उसे मेरिटधारी कहा गया। परफेक्शनिस्ट कहा गया। उसे तरक्की मिली। बाकी को उससे प्रेरणा मिली।
धीरे-धीरे दिमाग में यह धारणा बैठा दी गयी कि काम का मतलब है बिना दिमाग लगाये मटर छांटना। पूरा समाज इसकी जद में आ गया। चूंकि लम्बे समय तक एक काम करने से विभ्रम का खतरा होता है, तो कहा गया कि हफ्ते के अंत में आराम कर सकते हो, ग़म भुला सकते हो। ऐसे पैदा हुआ वीकेंड।
वीकेंड मतलब खाली वक्त। खाली वक्त मतलब वो समय जब आप उत्पादन करने को बाध्य न हों। लोग जमकर वीकेंड पर खाने, पीने और सोने लगे। खुद को सोमवार के लिए तैयार करने लगे। कुल मिलाकर बीते दशकों में हुआ यह कि एक आम इंसान की जिंदगी काम और आराम में बंट गयी। काम का मतलब, तीसरे प्राचीन मित्र के मुताबिक वही, उम्दा और ढेर सारा गोबर पैदा करना। आराम का मतलब, गोबर पैदा करने के लिए खुद को तैयार करना। इस प्रक्रिया में दिमाग की ज़रूरत नहीं रह गयी। खोपड़े के अंदर गोबर भर गया। अब विचार तो मगज से होता है, गोबर से नहीं। दूसरे, विचार की ज़रूरत भी किसी को नहीं थी, तो गोबर से परहेज़ भी क्यों होता।
धीरे-धीरे जब समूचा मध्यवर्ग एक पायदान पर पहुंच गया, तब अगला क्षण आया ग्लानि का। सामाजिक शर्मिंदगी का। प्रतिस्पर्धा का। इस डर से, कि कहीं 'काम' में कोई कमी न रह जाए और दूसरे को टोकने या शर्मिंदा करने का मौका न मिल जाए, लोग परफेक्ट बनने की होड़ में लग गये। अब वे बारह घंटे काम नहीं करते तो खुद को ही बुरा लगता। एक तो मालिक था ही सिर के ऊपर। दूजे, लोग खुद अपने स्वयंभू बॉस बन गये। खुद को ही अपना खून चूसने के लिए निर्देशित करने लग गये। बाकी, मशीन तो थी ही समय और हाजिरी का हिसाब रखने के लिए।
इस तरह एक कौम को 'आत्मनिर्भर' बनाने का काम पूरा हो चुका था। एक ऐसा तंत्र विकसित किया जा चुका था जहां आप अपने ही शोषक थे। पैरों में खुद जंज़ीर डाल कर नाच रहे थे। वीकेंड पर आज़ादी मना रहे थे, ताकि सोमवार से गुलामी बजायी जा सके। सब मामला बिलकुल फिट था, कि अचानक आ गया एक अदृश्य विषाणु। एक झटके में मशीनें रुक गयीं। गोबर निर्माण के संयंत्रों पर ताले लग गये। हम घरों में कैद हो गये।
पुरानी आदतें और गुप्तरोग जल्दी नहीं जाते। शुरू में हमने मनाया कि जल्दी लॉकडाउन खत्म हो, वापस काम पर लौटा जाये। चूंकि अपनी आज़ादी हमें अपनी गुलामी में ही दिखती थी। फिर मामला खिंचा। खाते में पैसे थे, घर चल ही रहा था। तो हम 'ग' से 'ख' होने लगे। खाली होते दिमाग में हमने स्मार्टफोन को भर दिया और पचास दिन का एक-तिहाई वक्त उसके नाम कर दिया।
अब हम मानना शुरू कर चुके थे कि 'काम' किये बगैर भी जिया जा सकता है। ठीक इसी वक्त देश की सड़कों पर, हाइवे पर, एक महान दृश्य नमूदार हुआ। हमने उन्हें देखा। दिन में पचास बार देखा। कुछ संवेदन हो रहा था भीतर। अवसाद सा घेर रहा था। शायद ऐसे ही किसी पल में एक लाचार बुजुर्ग, एक शव या किसी बीमार को देखकर सिद्धार्थ गौतम 'बुद्ध' बने रहे होंगे!
यह एक निर्णायक पल था। इसके आगे एक नया कल था, लेकिन जब अगले दिन नींद खुली तो जाने कैसे अचानक ग्यारह बज गया और आवाज़ आयी, “आत्मनिर्भर बनो”! शहर से मटर छांटकर देर शाम अपने आदिवास लौट रहे एक भूतपूर्व कवि की पीठ पर सारजेंट ने जोर की थाप लगाते हुए टहोका, "कहां…च्चली सवारी?"