देश में हर रोज भ्रूण में ही मार दी जाती हैं 2000 से ज्यादा बच्चियां

Update: 2019-05-21 15:38 GMT

मोदी जी ने अधकचरी जानकारी देकर तीन तलाक़ पर खूब वाहवाही बटोरी और अपने आपको महिलाओं का मसीहा समझने लगे, पर क्या उन्हें मालूम है कि देश में जितने बलात्कार होते हैं, उनमें से 80 प्रतिशत दलित महिलायें होती हैं...

महेंद्र पाण्डेय, वरिष्ठ लेखक

हाल का चुनाव देश में ऐसा पहला चुनाव था जब मतदान में महिलायें पुरुषों की अपेक्षा अधिक संख्या में भाग ले रहीं थीं। देश की लगभग 50 करोड़ महिला मतदाताओं को ध्यान में रखकर पार्टियों ने भी अपने चुनावी घोषणापत्र में इनके मुद्दों को प्रमुखता से शामिल किया था। बीजेपी ने बेटी बचाओ, बेटी पढाओ और उज्ज्वला योजना को प्रमुखता दी थी, जबकि कांग्रेस के अनुसार महिलाओं की समस्या उनसे अधिक कोई नहीं समझ सकता क्योंकि इसी पार्टी ने देश को एकलौता महिला प्रधानमंत्री दिया था, पर सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि जब नयी सरकार आयेगी तब महिलाओं की स्थिति में कहीं से सुधार होगा?

बेटी बचाओ, बेटी पढाओ योजना का भले ही बहुत गुणगान किया जाता हो, पर इसके कुल बजट में से 56 प्रतिशत से अधिक केवल इस योजना के साथ-साथ बीजेपी के विज्ञापन में खर्च किये गए हैं। दूसरी तरफ, उज्ज्वला योजना से लाभान्वित अधिकतर महिलायें खाना पकाने के लिए वापस लकड़ी और उपले का सहारा लेने लगी हैं।

हाल में ही एक सर्वेक्षण में 70 प्रतिशत महिलाओं के लिए सबसे बड़ा मुद्दा उनकी सुरक्षा को लेकर था। देश की वर्तमान हालत यह है कि महिलाओं पर हिंसा की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं और इससे सम्बंधित मुकदमे और फैसले की दर न्यूनतम है। यहाँ ध्यान यह भी रखना होगा कि बहुत कम ऐसे मामले पुलिस दर्ज करती है और फिर अदालत तक पहुंचता है। हमारे देश को मोदी शासन में वैसे भी दुनिया में महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश का तमगा मिल चुका है। लड़कियां तो अब इन सबके विरूद्ध सड़क पर उतर जाती हैं, पर महिलाओं के हालात नहीं सुधरे हैं। वे अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित तो रहती ही हैं, इसके साथ ही उन्हें अपने बेटियों की चिंता भी रहती है।

लड़कियों की परवरिश में जितना भेदभाव हमारे देश में है, उतना और कहीं नहीं है। भ्रूणहत्या द्वारा बहुत सारी लड़कियां पैदा होने के पहले ही मार दी जाती हैं। जो पैदा होती हैं, उनमें भी अधिकतर प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर भेदभाव का शिकार होती हैं। यही भेदभाव प्रतिवर्ष पांच वर्ष से कम उम्र की 239000 लड़कियों को मार डालता है। ध्यान रहे कि यह संख्या भ्रूण-हत्या से अलग है। अप्रैल, 2016 को एनडीटीवी से साक्षात्कार में महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने बताया था कि भारत में हरेक दिन 2000 से अधिक लड़कियां भ्रूण में ही मार दी जाती हैं। यही कारण है कि तमाम सरकारी दावों के बाद भी देश के 17 राज्यों में लड़कियों की संख्या कम हो गयी है।

बीजेपी और कांग्रेस, दोनों राष्ट्रीय दल जब विपक्ष में होते हैं तब संसद में महिलाओं के 33 प्रतिशत आरक्षण का दावा करते हैं, पर सत्ता में आते ही उसे पूरी तरह से भूल जाते हैं। इन दोनों दलों ने आज तक किसी भी चुनाव में 33 प्रतिशत टिकट महिलाओं को दिए ही नहीं हैं। देश में महिलाओं की संख्या 48.53 प्रतिशत है, पर संसद सदस्यों में से केवल 12 प्रतिशत महिलायें हैं। इन चुनावों में भी केवल दो ऐसी पार्टियां थीं जिन्होंने महिलाओं को 33 प्रतिशत या अधिक टिकट दिए थे। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने 41 प्रतिशत और ओडिशा में बीजू जनता दल ने 33 प्रतिशत महिला उम्मीदवारों को चुनाव में उतारा था। राजनीति में महिलाओं की भागीदारी के सन्दर्भ में हम 193 देशों की सूची में 150वें स्थान पर हैं।

राजनीति में महिलाओं की भागीदारी से पूरी दुनिया में महिलाओं के हालात सुधर रहे हैं, पर हमारे देश की महिला राजनीतिज्ञ किसी भी मौके पर महिलाओं का कोई भी मुद्दा उठाते हुए नहीं दिखतीं। अलबत्ता ऐसे हालत जरूर होते हैं जब किसी बलात्कार या महिलाओं से सम्बंधित दूसरे जघन्य कांडों पर महिला राजनीतिज्ञ सरकार के साथ मामले की लीपापोती में नजर आतीं हैं।

याद कीजिये एक भी वाकया जब हेमा मालिनी, किरण खेर, सुषमा स्वराज, निर्मला सीतारमण, हरसिमरत कौर या फिर विपक्षी महिला सांसदों ने महिलाओं का कोई मुद्दा उठाया हो। मोदी जी ने अधकचरी जानकारी देकर तीन तलाक़ पर खूब वाहवाही बटोरी और अपने आप को महिलाओं का मसीहा समझाने लगे, पर क्या उन्हें मालूम है कि देश में जितने बलात्कार होते हैं, उनमें से 80 प्रतिशत दलित महिलायें होती हैं। नेशनल कमीशन ऑन दलित ह्यूमन राइट्स के अनुसार देश में जितनी दलित महिलायें हैं, उनमें से 23 प्रतिशत से अधिक कभी ना कभी बलात्कार का शिकार हो चुकी हैं।

जनजाति महिलायें जिन दो कानूनों से कुछ सुरक्षित महसूस कर रहीं थीं, उन्हें बीजेपी ने धराशाई करने का बहुत प्रयास किया। ये दो क़ानून हैं – फारेस्ट राइट्स एक्ट और एसटी और एससी (प्रिवेंशन ऑफ़ ऐत्रोसिटीज) एक्ट। इसके अतिरिक्त कांग्रेस ने कम मूल्य पर चावल भी उपलब्ध कराया था और न्यूनतम रोजगार की योजना को आरम्भ किया था।

महिलाओं की एक बड़ी मांग शराबबंदी की भी है। बिहार में नीतीश कुमार ने इसे बंद करा दिया। इस बार वाईएसआर कांग्रेस ने आन्ध्र प्रदेश में यह वादा किया है। समस्या यह है कि अधिकतर राज्य ऐसे हैं जिनकी कुल कमाई में से 20 प्रतिशत से अधिक का योगदान शराब का ही होता है, इसलिए इसे बंद करने के बारे में कोई सोचता नहीं। बीजेपी शासन में शराब की बिक्री दूर-दराज के इलाकों में भी होने लगी।

लगभग सभी जनजातियाँ अपने यहाँ निर्मित शराब का ही सेवन करती थीं और इसके लिए सख्त सामाजिक नियम थे। इन नियमों का संचालन महिलायें करती थीं इसीलिए वहां शराब का सेवन होने के बाद भी इसके बुरे प्रभाव कभी सामने नहीं आते थे. पर बीजेपी शासन में इन इलाकों में भी देसी-विदेशी शराब उपलब्ध होने लगी, जिस पर किसी का नियंत्रण नहीं रहा और सामाजिक मान्यताएं बिखरने लगीं।

महिलाओं का रोजगार भी एक बड़ी समस्या है। वैसे तो तमाम सरकारी दावों के बाद भी देश में रोजगार की कमी जाहिर है, पर अब महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम रोजगार मिल रहा है। यह समस्या शहरों में और पढी-लिखी महिलाओं में अधिक है। इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाईजेशन के अनुसार दुनिया के सन्दर्भ में 15 से 64 वर्ष की उम्र में लगभग 53 प्रतिशत महिलायें और 81 प्रतिशत पुरुष रोजगार में हैं।

इसकी तुलना में हमारे देश में इसी आयु वर्ग में मात्र 30 प्रतिशत महिलायें ही रोजगार में हैं, जबकि 80 प्रतिशत पुरुष रोजगार में हैं। महिलाओं की रोजगार में संख्या दिनों दिन गिर रही है। वर्ष 1990 में देश में 35 प्रतिशत महिलायें रोजगार में थीं। इस सन्दर्भ में हम नेपाल, बांग्लादेश और श्री लंका से भी बहुत पीछे हैं।

इतनी समस्याओं के बाद भी महिलायें चुनावों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रही हैं तो आश्चर्य जरूर होता है। पर उन्हें नारों, दावों और आश्वासनों के अतिरिक्त मिलता ही क्या है?

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