कूड़ा बीनने वाले हाथों में कम्प्यूटर का माउस थमा बेसहारा बच्चों का भविष्य बना रही है यह संस्था
बच्चों को नारकीय हालात से बाहर निकालकर एक साल तक निसर्ग ग्राम में रखा जाता है जो ऐसे बच्चों के लिए एक बहुआयामी केंद्र भी है। यहां रहते हुए पहले साल के दौरान इन बच्चों को केंद्र में किताबें पढ़ना और अंग्रेज़ी के अक्षर लिखना सिखाया जाता है...
शीबा कूरियन की रिपोर्ट
जनज्वार। बेंगलुरु से लगभग 30 किलोमीटर दूर हेसरघट्टा में स्थित निसर्ग ग्राम नामक आवासीय केंद्र में रह रहे 146 बच्चे स्कूल जाकर कंप्यूटर सम्बन्धी नए-नए हुनर सीख रहे हैं, नयी किताबें पढ़ रहे हैं, मार्शल आर्ट टेक्वोंडो सीख रहे हैं और विभिन्न पारंपरिक कलाओं का प्रदर्शन कर रहे हैं। इन कलाओं में कर्नाटक का पारंपरिक ड्रम वादन और नृत्य भी शामिल है। इनमें बालिकाओं की संख्या ज़्यादा है।
हो सकता है कि आज ये बात साधारण लग रही हो लेकिन कुछ वर्षों पहले तक इन बच्चों द्वारा ये सब सीखना लगभग मुश्किल ही था। ये वे ही बच्चे थे जिनसे जबरन कूड़ा उठवाया जाता था, बंधुआ मज़दूर की तरह इनका इस्तेमाल किया जाता था और इनका बाल-विवाह कर दिया जाता था। इनमें से कुछ बच्चों को यौन-शोषण और माता-पिता की उपेक्षा की यंत्रणा से भी गुज़रना पड़ता था लेकिन बेंगलुरु के एक स्वयंसेवी संगठन स्पर्श ट्रस्ट ने इन बच्चों के हालात बदल डाले। उसने अपने इस प्रयास में देश की शिशु कल्याण समितियों की मदद ली। स्पर्श ट्रस्ट ने इन बच्चों को बदहाली से बाहर निकाला, उन्हें निसर्ग ग्राम लाये और स्कूल भेजना शुरू किया।
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बच्चों को नारकीय हालात से बाहर निकालकर एक साल तक निसर्ग ग्राम में रखा जाता है जो ऐसे बच्चों के लिए एक बहुआयामी केंद्र भी है। यहां रहते हुए पहले साल के दौरान इन बच्चों को केंद्र में किताबें पढ़ना और अंग्रेज़ी के अक्षर लिखना सिखाया जाता है। साथ ही साथ खेलकूद और दूसरी गतिविधियों में भी उन्हैं शामिल किया जाता है। एक साल बाद इन बच्चों को पड़ोस के सरकारी तथा निजी स्कूलों और कॉलेजों में भेजा जाता है।
निसर्ग ग्राम में भी उन्हें पुस्तकालय, कंप्यूटर रूम, साइंस लैब जैसी सुविधाएं उपलब्ध रहती हैं। इसके साथ ही केंद्र के पिछवाड़े स्थित बड़े मैदान में साग-सब्ज़ी और फल उगाने, पशु चराने और खेलने की भी सुविधा रहती है। इन सबके कर्ता-धर्ता गोपीनाथ आर हैं जिन्होंने स्पर्श ट्रस्ट की नींव रखी थी। निसर्ग ग्राम स्पर्श ट्रस्ट की प्रमुख शुरुआतों में से एक है।ट्रस्ट बच्चों की शिक्षा और विकास के लिये बंगलुरु के आस-पास पांच अन्य परियोजनाएं भी चलाता है। इन परियोजनाओं के तहत कुल 430 बच्चों को शिक्षा दी जाती है। अकेले निसर्ग ग्राम में 146 बच्चे हैं।
गोपीनाथ उन सभी बच्चों की मदद करना चाहते थे जो इस तरह के हालात से गुज़र रहे हों। स्पर्श ट्रस्ट के एक ट्रस्टी शशिधर कोटीन भी ऐसे ही लोगों में से एक हैं। वे और उनके जैसे दूसरे लोग अपने खाली समय में केंद्र चलाने का काम करते हैं।
एनजीओ 'स्पर्श' के काम करने के तौर-तरीक़े पर रोशनी डालते हुए उसके ट्रस्टी कोटीन बताते हैं : अगर बेंगलुरु के ग्रामीण इलाक़े में कोई भी बच्चा मुसीबत में हो तो कोई भी व्यक्ति हमें हेल्पलाइन 1098 पर फोन कर सकता है। हमारी टीम वहां एक बचाव दल भेजेगी। हम हर साल लगभग 700 बच्चों को बचाकर लाते हैं। इनमें बाल-श्रमिक होते हैं, कूड़ा बीनने वाले बच्चे होते हैं, भीख मांगने वाले बच्चे होते हैं, ड्रग-अडिक्ट बच्चे होते हैं, शोषित बच्चे होते हैं, बाल-विवाह के शिकार बच्चे होते हैं और ऐसे बच्चे जो नाबालिग अपराधी होते हैं।
वे कहते हैं कि उनकी संस्था ने बेंगलुरु के आस-पास 100 बाल-विवाहों को संपन्न होने से रोका है। शुरुआत हम खेलों के माध्यम से करते हैं और फिर लिखाई-पढाई शुरू करते हैं। बच्चे लिखना सीख जाते हैं और किताबें भी पढ़ने लगते हैं। उन्हें उनके अमानवीय हालात से निकालकर लाने के बाद एक साल तक उन्हें केंद्र में ही रखा जाता है और फिर उनका दाखिला स्कूलों में करा दिया जाता है।
कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी के तहत अनेक निजी संस्थाएं केंद्र में उपलब्ध पुस्तकालय एवं कंप्यूटर जैसी सुविधाओं के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करती हैं। अब सवाल ये है कि निसर्ग ग्राम में रह रहे इन बच्चों की ज़िन्दगी में क्या कोई बदलाव आया भी है ?
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एक अन्य बालिका पल्लवी कहती है, 'किसी भी बच्चे की ज़िंदगी में शिक्षा का बहुत महत्व है। हमें अभिव्यक्ति का अधिकार है और शिक्षा प्राप्त करने तथा खुद को सुरक्षित रखने की आज़ादी है।' एक बालिका कनका भारत के उन सात बच्चों में शामिल है जिन्हें 2017 में बाल दिवस पर भारतीय संसद में बोलने के लिए चुना गया था।
संसद में बोलते हुए कनका ने कहा था, 'मैं आपसे हाथ जोड़ कर आबादी के उस ४० फीसदी का ध्यान रखने की प्रार्थना करती हूँ जो असुरक्षित बच्चे हैं,बिल्कुल आपके बच्चों की ही तरह,ताकि भारत को अधिक शक्तिशाली बनाया जा सके क्योंकि आज के बच्चे ही भविष्य के देश-निर्माता हैं।'
(यह रिपोर्ट पहले 'द न्यूज' मिनट' पर प्रकाशित की जा चुकी है।)