बलात्कारी पति के साथ रहने के अलावा बेटी को न्याय दिलाने के लिए उसने सबकुछ किया
बेटी की कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए उसने मजदूरी की। कल उसकी मजदूरी का हिसाब हुआ। बलात्कारी बाप को दस साल सश्रम कारावास की जब सजा सुनाई गई, वह अदालत में ही थी...
राजीव पांडे, वरिष्ठ पत्रकार
अभी कुछ देर पहले अखबार पढ़कर बैठा तो उसका ख्याल आया। अपनी एक आंख से वह अपने ही घर में अपनी सात साल की बेटी से बलात्कार होते देख रही थी। उसने पूरी ताकत लगाई खिड़की के उन सरियों को तोड़ने में जो उसे भीतर जाने से रोक रहे थे। उसने कई बार दरवाजा तोड़ने की भी कोशिश की। वह चीखी-चिल्लाई, लेकिन उसके वहशी हो चुके पति ने दरवाजा नहीं खोला। पास-पड़ोसियों को भी उसने आवाज लगाई लेकिन कोई नहीं आया।
सबके पास कैंडल मार्च निकालने का विकल्प है। वह निढ़ाल होकर गिर गई और जब तक दरवाजा नहीं खुला बेसुध पड़ी रही। दरवाजे के साथ ही उसकी एक आंख खुली। नशे में धुत पति को जाते देखा, लेकिन उसका सिर फाड़ने के लिए आसपास पड़ी कोई चीज उसे नहीं मिली। रेंगते हुए ही वह बेटी के बिस्तर के पास पहुंची। मां सहमी हुई बच्ची को हाथ लगाती इससे पहले ही बेटी ने उस एक आंख वाली औरत के आंसू पोछने शुरू कर दिए। उसने भींचकर अपनी बेटी को ऐसे छाती से लगाया जैसे दुनिया से बचाकर वापस अपने गर्भ में रख लेना चाहती हो।
उस काली रात वे दोनों ऐसे ही एक-दूसरे के आंसू पोंछते रहे। धरती के सूरज को देखने के साथ ही पति का नशा टूट गया था। वह रात गई, बात गई वाले अंदाज में गोठ (गोशाला) में गाय-बकरियों को चारा खिला रहा था, लेकिन उस एक आंख वाली औरत के लिए सुबह कहां थी?
बड़ी बेशर्मी से पति ने जब चाय मांगी तो वह फफक पड़ी और जहर देने की बात कहकर घर से निकल गई। उसे रोकने के लिए वह चिल्लाया, लेकिन वह रुकी नहीं। उसके दूसरी बार चिल्लाने पर वह सब लोग जमा हो गए, जिन्होंने पहली रात मां की चीखें नहीं सुनी थीं।
लोग उस एक आंख वाली औरत को समझाने लगे। कहां जाएगी? क्या देखा ठहरा तूने? शराब पीकर हो गया, हुआ तो बाप ही। समझौते की ये कोशिश उन पलों से कम खतरनाक नहीं थी जो अभी कुछ घंटों पहले उसने खिड़की के पास बिताए थे। वह कुछ नहीं बोली। लोगों की बातें सुन स्तब्ध थी। पति भी बेशर्मी से घर चलने की बात कह रहा था।
वह गुमशुम बैठी रही, बच्ची को छाती से लगाए। वह गरीब थी, अनपढ़ थी लेकिन गांव की समझदार औरतों में उसकी गिनती होती थी, इसलिए लोगों को लगा सुनसान बैठ गई है कुछ देर में घर आ जाएगी। लेकिन वह कुछ देर बाद थाने पहुंच गई थी। थाने से प्रधान जी को फोन आया। पुलिस वाले ने प्रधान जी को समझाया, मुकदमा दर्ज हो गया तो गांव की बदनामी हो जाएगी। इस औरत को समझाओ और घर ले जाओ।
सबने समझा-बुझाकर उसे घर भेज दिया, लेकिन उसकी समझ में कहां आने वाला था। वह अब उस आदमी के साथ कैसे रह सकती थी? उस बिस्तर पर अब वह कैसे सो सकती थी? वह तड़के ही अपनी बेटी को साथ लेकर चम्पावत की तरफ निकल गई। दूसरी या तीसरी बार इतने बड़े शहर में आ रही थी। पहले कभी मेले-ठेलों में आई होगी, इस बार वह मोर्चे पर थी।
एक पत्नी के सामने चुनौती थी पति के खिलाफ खड़ी होकर बेटी को न्याय दिलाने की और एक बार फिर से समाज को मां के मायने समझाने की। घर की आबरू के खातिर कई बार बड़े-बड़े लोग यह मोर्चा नहीं ले पाते। लोगों से पूछ-पूछकर अब वह एसपी दफ्तर के पास पहुंच चुकी थी। निर्भया सेल के पुलिसकर्मी रोंगटे खड़े कर देने वाली उसकी बातें सुन रहे थे। शुक्र है इस बार उसे एक संवेदनशील पुलिसकर्मी मिली, जिसने उसे समझाया नहीं एसपी से मिलाया।
इस मुलाकात और मुकदमा दर्ज होने में एक महीना लग गया। अब लड़ाई ने कानूनी रूप ले लिया था। वह लड़ने को तैयार थी, लेकिन उसके सामने बेटी को न्याय दिलाने के अलावा रहने-खाने और बच्ची को उस सदमे से उबारने के लिए नया माहौल देने की भी चुनौती थी।
बलात्कारी के साथ रहने के अलावा उसने सब कबूल किया। कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए उसने मजदूरी की। कल उसकी मजदूरी का हिसाब हुआ। बलात्कारी को दस साल सश्रम कारावास की जब सजा सुनाई गई वह अदालत में ही थी।
फैसला आने के बाद वकील ने उससे पूछा क्या तुम संतुष्ट हो? क्या जवाब देती, रोते हुए घर आ गई। तब तक रोती रही जब तक उसकी बेटी स्कूल से नहीं आई। स्कूल से आते ही उसने बस्ता फेंका और पूछा ईजा आज तू काम पर नहीं गई। एक आंख वाली औरत ने कोई जवाब नहीं दिया और बेटी को कसकर छाती से लगा लिया।
(उत्तराखंड के चंपावत में बेटी का बलात्कार करने वाले पति को 10 साल की सजा दिलाने वाली महिला के संघर्ष की यह साहसिक दास्तां 'हिंदुस्तान' नैनीताल के संपादकीय प्रभारी और वरिष्ठ पत्रकार राजीव पांडे ने लिखी है।)