अगर छात्रों के साथ बेरोजगारों की आत्महत्या को जोड़ दिया जाए तो इस देश में हर आधे घंटे में एक छात्र—युवा आत्महत्या को है मजबूर
जनज्वार, दिल्ली। एनसीआरबी की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2015 में 8934 छात्रों ने पढ़ाई के दबाव और मां—बाप के सपनों के आगे हारकर मौत को गले लगा लिया, तो 2014 में 8068 छात्रों ने जिंदगी नहीं मौत को चुना। 2013 में 8423 छात्रों ने आत्महत्या की और 2012 में 6654 छात्रों ने पढ़ाई के दबाव में अपनी जान ले ली।
वर्ष 2011 में 7696 छात्रों ने तो 2010 में 7379 छात्रों ने सुसाइड किया। वहीं 2009 में 6761 छात्रों और 2008 में 6060 बच्चों ने पढ़ाई और कैरियर के बजाय आत्महत्या का रास्ता चुना। वर्ष 2007 में 6248 तो 2006 में 5857 छात्रों ने मौत को गले लगाया। 2005 में यह आंकड़ा 5138 था तो 2004 में 5610 बच्चों ने आत्महत्या की। 2003 में 6089 और 2002 में 5355 छात्रों तो 2001 में 5352 छात्रों ने खुदकुशी की।
एनसीआरबी के आंकड़े के मुताबिक छात्रों की सर्वाधिक आत्महत्याओं के मामले 2015 में दर्ज किए गए।
इसी तरह बेरोजगार युवाओं की मौतों के मामले भी चौकाने वाले हैं। बेरोजगारों और छात्रों की आत्महत्या के मामलों को जोड़ दिया जाए तो हर आधे घंटे में एक युवा मौत को चुनता है।
वर्ष 2015 में 10912 पढ़े लिखे बेरोजगार युवाओं ने मौत को गले लगाया तो 2014 में 9918 बेरोजगारों ने मौत चुनी। 2013 में 9768 और 2012 में बेरोजगारी के चलते 8927 युवाओं ने खुदकुशी की। 2011 में 10419, 2010 में 10033, 2009 में 9916, 2008 में 9001 और 2007 में 8511 बेरोजगार युवाओं ने आत्महत्या की। वर्ष 2006 में 8886, 2005 में 8798, 2004 में 9538, 2003 में 9913, 2002 में 10180 तो 2001 में 9779 युवाओं ने बेरोजगारी के कारण अपनी जिंदगी को खुद ही खत्म कर लिया।
मनोचिकित्सकों की राय में जहां तक छात्रों की खुदकुशी के मामले हैं, अत्यधिक तनाव में बच्चे ऐसा कदम उठाते हैं। चूंकि बच्चे बहुत भावुक होते हैं तो तनाव को न तो किसी से शेयर कर पाते हैं और न ही उनकी काउंसलिंग हो पाती, इसलिए कब मौत को गले लगा लेते हैं पता भी नहीं चल पाता। हां, इसमें मां—बाप भी बराबर के दोषी हैं। उन्हें अपने सपने बच्चों पर इस हद तक नहीं लादने चाहिए कि बच्चे खुदकुशी जैसा कदम उठा लें।